॥ वासुदेवशब्दार्थनिर्णयम् ॥

द्वादशाक्षरमन्त्र के अंतर्गत वासुदेव पद का निरूपण किया जाता हैं। भगवान पाणिनि की अष्टध्यायी में वासुदेवारर्जुनाभ्यां वुञ्ं (४.३.९८) से वासुदेव के भक्त के अर्थ मेँ वासुदेवक शब्द व्युत्पन्न किया गया । किन्तु यह शब्द गोत्र क्षत्रिया रव्येभ्यो बहुलं वुञ्ं (४.३.९८) से भी व्युत्पन्न हो सकता था । ऐसा क्यों नहीं किया गया इसका कारण भगवान पतंजलि बताते हैं संज्ञैषा तत्र भवतः ( अथवा तत्र भगवतः) । वासुदेव यह भगवान् का नाम हैं। न क्षत्रियाख्या । यह किसी क्षत्रिय वर्ण मेँ उत्पन्न मनुष्य विशेष की आख्या नही हैं। तो फिर वासुदेव शब्द भी
वसुदेवस्य अपत्यं पुमान् । वासुदेव के पुत्र के रूप मे व्युत्पन्न नहीं होगा। यह स्वीकार करके हुए वासुदेव की व्युत्पत्ति की गई वस् निवसने धातु से “वह देव जो सर्वत्र निवास करता हैं” ।
वासुदेव शब्द की गुप्तकालीन विष्णुपुराण मे भी ऐसी ही निरुक्ती मिलती हैं यथा
सर्वत्राऽसौ समस्तं च वसत्यत्रेति वै यतः ।
ततः स वासुदेवेति विद्वभिः परिमीयते ॥ (१.२)
अन्यस्थल पर भी कहा गया हैं
भूतेषुवसते सोऽन्तर्वसन्त्यत्र च तानियात् ।
धाता विधाता जगतां वासुदेवस्ततः प्रभुः ॥ (६.५.८२)