ॐ या चण्डी मधुकैटभादिदैत्यदलनी माहिषोन्मादिनी या धूम्रेक्षणचण्डमुण्डमथनी या रक्तबीजाशनी ।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धिलक्ष्मीः परा सा देवी नवकोटिमूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी ॥
सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र एक अत्यन्त रहस्यमय तथा क्षिप्रफल प्रदान करने वाला स्तोत्रराज हैं। इस स्तोत्र की साधना सर्वाम्नाय से की जा सकती है , इसी कारण इस स्तोत्र के विभिन्न आम्नायगत पाठभेद हैं । यथा उत्तराम्नाय के साधक डामरतंत्रोक्त सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र का पाठ करते है और पश्चिमाम्नाय के साधक गौरीतंत्रोक्त सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र का पाठ करते हैं । सर्वसाधारण साधकों में रुद्रयामलतंत्रोक्त सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र के पाठ का प्रचलन हैं । साथ ही महाविद्या के उपासक गण अपनी अपनी उपास्य महाविद्या से संबंधित सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र का पाठ करते हैं । भगवति काली के उपासक कालीतंत्रोक्तसिद्धकुञ्जिकास्तोत्र तथा भगवति बगलामुखी के उपासक बगलातंत्रोक्त सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र का पाठ करते हैं। बृहदमहासिद्धकुञ्जिकास्तोत्र नाम से भी इस स्तोत्र का एक पाठ मिलता हैं जो अनिरुद्धसरस्वतीमंत्र तथा मातृकाक्षर से पुटित हैं। वे साधक जो पूर्ण श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करने में असमर्थ है मात्र सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र के पाठ से ही दुर्गापाठ के पूर्ण फल का लाभ उठा सकते हैं । जैसा कि सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र की पूर्वपीठीका में उल्लिखित है-
कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् ॥
साथ ही साधक इस स्तोत्र के पाठ से षट्कर्मो मे भी सफलता प्राप्त कर सकता हैं।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥
जो साधक श्रीदुर्गासप्तशती के पाठ के पूर्व इस स्तोत्र का पाठ नहीं करता उसे अभीष्टफल की प्राप्ति नहीं होती हैं। उसका पाठ जंगल में रोने के सामन होता हैं।
कुंजिका रहितां देवी यस्तु सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ॥
अब प्रश्न यह उठता है कि इस स्तोत्र का नाम सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र ही क्यों हैं। इसका उत्तर हैं पूर्व काल में भगवान शिव तथा ऋषियों ने कलिकाल के आगमन पर श्रीदुर्गासप्तशती तथा नवार्णमन्त्र को किलित कर दिया अर्थात ताला/कील लगाकर निष्प्रभावी कर दिया तथा उसकी चाबी, जिसे संस्कृत में कुंजी कहते हैं इस स्तोत्र में गोपित कर दी इसी कारण इस स्तोत्र को सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र कहा जाता हैं। जैसा कि सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र की फलस्तुति में उल्लिखित है
इदंतु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे ॥
अर्थात यह सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र श्रीदुर्गासप्तशती तथा नवार्णमन्त्र की जागृति के हेतु हैं । इस स्तोत्र में नवार्णमन्त्र का अर्थ भी भगवान शिव ने बताया है साथ ही साथ संक्षेप में श्रीदुर्गा के चरित्र का भी वर्णन किया हैं। इस स्तोत्र में पारद के संस्कार तथा जागरण के सूत्र भी भगवान शिव ने बताएं हैं । इसी कारण रससिद्धि में भी यह स्तोत्र सहायक हैं । इस स्तोत्र का पाठ बालकों की भूतादिग्रहपीड़ा में भी लाभदायक हैं । सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र का उत्तम पुरश्चरण १००८ बार पाठ करके, मध्यमपुरश्चरण ३३६ बार पाठ करके तथा साधारण पुरश्चरण १०८ पाठ करके संपादित किया जा सकता हैं । साधक यदि समर्थ होवे तो पंचांगपुरश्चरण करें अन्यथा पाठमात्र करें…… अस्तु ।
ॐ अम्बेऽअम्बिकेऽम्बालिके न मा नयतिकश्चन ।
ससस्त्यश्वक: सुभद्रिकाङ्काम्पीलवासिनीम् ॥