Month: April 2020
॥ श्रीवारुणीदेवीध्यानम् ॥

सुरासुरमध्यमाने क्षीरोदे सागरे शुभे ।
तत्रोत्पन्ना महादेवी दिव्यकन्यां मनोरमा ॥
लाक्षारसनिभा देवी पद्मरागसमप्रभा ।
अष्टादशभुजा देवी रत्नालङ्कारभूषिता ॥
सौम्यरूपधरा देवी त्रिनेत्रा नवयौवना ।
खड्गत्रिशूलवज्रञ्च दिण्डिमं मुसलं तथा ॥
गदापद्मवरं पात्रं दक्षिणे च विराजिता ।
फेटकं अंकुशन्घण्टां मुण्डखट्वाङ्गकुम्भयो ॥
नीलोत्पलाभयं बिन्दुं वामहस्ते विधारिणी ।
दिव्यरत्नकृताटोपा हेमाभरणभूषिता ॥
श्वेतपद्मासनासिना बद्धपद्मासनस्थिताम्।
एवं ध्यात्वा महादेवी वारुणी दिव्यरूपिणीम्॥ ह्रीँ श्रीँ वारुणीभट्टारिका पादुकां पूजयामि ॥
॥ वैकुण्ठचतुर्मूर्ति ॥
वैकुण्ठचतुर्मूर्ति अथवा वैकुण्ठविष्णु भगवान विष्णु का एक विशिष्ट तांत्रिक स्वरूप हैं । वैकुंठनारायण के स्वरूप पर त्रिशिरोभैरव का प्रभाव मालूम होता हैं। दोनों में काफी कुछ साम्य हैं। दोनों देवताओं की उपासना विशेषतः काश्मीरदेश में की जाती थीं।

नारदविष्णु संवाद से अवतरित ३३ पटलों वाली श्रीजयाख्यसंहिता नामक पाञ्चरात्रागम मे वैकुण्ठचतुर्मूर्ति की उपासना का विशद वर्णन प्राप्त होता हैं । नारद जी से शांडिल्यऋषि ने इस संहिता को प्राप्त किया तथा नाना ऋषिगणों को इसका उपदेश दिया। श्रीजयाख्यसंहिता के षष्टपटल में वैकुण्ठभट्टारक का ध्यान उल्लिखित हैं:-
अनादिनिधनं देवं जगत्स्रष्टारमीश्वरम् ।
ध्यायेच्चतुर्भुज विप्र शङ्खचक्रगदाधरम् ॥
चतुर्वक्त्रं सुनयनं सुकान्तं पद्मपाणिनम् । वैकुण्ठं नरसिह्मास्यं वाराहं कपिलाननम् ॥
शुक्लं खगेश्वरारूढं सर्वाभरणभूषितम् । सर्वलक्षणसंपन्नं माल्याम्बरधरं विभुम् ॥किरीटकौस्तुभधरं कर्पूरालिप्तविग्रहम् ।सूर्यायुतसहस्राभं सर्वदेवनमस्कृतम् ॥ (ज.सं.६.७३-७६)
वैकुण्ठचतुर्मूर्ति चतुर्मुख ,चतुर्हस्त तथा शक्तिचतुष्टय से युक्त होते हैं। वराह, सौम्य, नृसिंह तथा उग्रकपिल यह श्रीभगवान के चतुर्मुख हैं । अपने चतुरहस्तो में शंख,चक्र,गदा तथा पद्म धारण करते हैं। उत्तान अवस्था में पद्मासनस्थ अथवा गरुडासन के ऊपर विराजमान होते हैं। जया, माया, लक्ष्मी तथा कीर्ति भगवान की चार अंतरंग शक्तियां हैं । भगवान कौस्तुभमणि, वनमाला,नानारत्नजड़ित किरीट तथा कुण्डल धारण करते हैैं। पार्श्व में चक्रपुरुष तथा गदादेवि हैं। जयाख्यसंहिता का रचनाकाल ५ शताब्दी हैं अतः वैकुण्ठचतुर्मूर्ति के उपासनासंप्रदाय का उदय गुप्तकाल में सिद्ध होता हैं । वैकुण्ठचतुर्मूर्ति की गुप्तकालीन प्रतिमाओं पर गान्धार शैली का प्रभाव दृश्य हैं । कुछ पाश्चात्य विद्वान हेलेनिस्टिक प्रभाव के भी पक्षधर है परन्तु यह मत समीचीन नहीं हैं ।


अग्निपुराण, विष्णुधर्मोत्तरपुराण तथा शिल्पशास्त्रग्रंथ रूपमण्डन में भी वैकुण्ठविष्णु का उल्लेख मिलता हैं । भगवान विष्णु के वैकुण्ठचतुर्मूर्ति स्वरूप की उपासना विशेषतः से काश्मीरदेश प्रचलित थीं । ८-१२ शताब्दी में वैकुण्ठचतुर्मूर्ति की उपासना कश्मीरदेश में चरम पर थीं । १२ शताब्दी में रचित कल्हण की राजतरङ्गिणी में भी काश्मीरनरेश अवन्तीवर्मन द्वारा वैकुंठनारायण की प्राण प्रतिष्ठा का उल्लेख मिलता हैं। वैकुण्ठचतुर्मूर्ति कर्कोटराजवंश तथा उत्पल राजवंश के राजकीयदेव (कुलदेवता) थे । १३ शताब्दी में मलेच्छजाहिलो के आगमन के साथ हीं वैकुंठभट्टाराक की उपासना का ह्रास होने लगा । कई मंदिरों को तोड़ा गया , स्वर्णादि से निर्मित प्रतिमाओं को गलाकर आभूषणआदि बनाए गए । पाषाणप्रतिमाओं को खंडित किया गया। वैकुंठनाथ के उपासकों की निर्ममहत्याएं की गई । उपासना सम्बन्धी ग्रंथों को नष्ट कर दिया गया। इन्हीं मलेच्छजाहिलो के अत्याचारों के कारण १४-१५ शताब्दी तक वैकुण्ठचतुर्मूर्ति की उपासना काश्मीर देश से लुप्त प्राय हो गई । काश्मीर के अलावा उत्तरभारत के अन्य स्थानों पर तथा नेपालदेश में भी वैकुण्ठनाथ की उपासना होती थीं।

उत्तरभारत में अनेकों स्थानों पर वैकुण्ठचतुर्मूर्ति स्वरूप की प्रतिमाएं मिलती हैं विशेषकर गुजरात, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में । ११७० ईसवी में एक प्रतिमा चम्बा घाटी में प्रतिष्ठत की गई थीं । चंदेलों द्वारा १० शताब्दी में निर्मत खुजराहों का लक्ष्मणमंदिर भी वैकुण्ठचतुर्मूर्ति को समर्पित हैं।

खुजराहों के कंदरियामहादेव मंदिर में भी वैकुण्ठ नारायण की प्रतिमा प्राप्त होती हैं।

गुजरात के सिद्धनाथ महादेव मंदिर में भी वैकुण्ठचतुर्मूर्ति की प्रतिमा हैं । यह सिद्ध करता है कि मध्यभारत में भी कभी वैकुण्ठचतुर्मूर्ति की उपासना का प्रचलन रहा होगा अस्तु ।
ॐ विश्वरूपाय विद्महे विश्वातीताय धीमहि तन्नो विष्णु: प्रचोदयात् ॥