पश्चिमाम्नायनायिका श्रीकुब्जिका

५ श्रीकुब्जेश्वरसहितकुब्जिकाम्बापादुकां पूजयामि॥

तरुणरविनिभास्यां सिंहपृष्ठोपविष्टाम्
कुचभरनमिताङ्गीं सर्वभूषाभिरामाम्।
अभयवरदहस्तामेकवक्त्रां त्रिनेत्रां
मदमुदितमुखाब्जां कुब्जिकां चिन्तयामि ॥
भगवति कुब्जिका पश्चिमाम्नाय की अधिष्ठात्री देवी हैं।चिंचिणी,कुलालिका,कुजा,वक्त्रिका,क्रमेशी,खंजिणी, त्वरिता,मातङ्गी इत्यादि देवी के ही अन्य नाम हैं । भगवान परशिव ने अपने पश्चिमस्थ सद्योजातवक्त्र से सर्वप्रथम कुब्जिका उपासना का उपदेश किया। जैसा कि परातन्त्र में कहा गया है

सद्योजातमुखोद्गीता पश्चिमाम्नायदेवता ॥

वही कहा गया है

सद्योजातःसाधिता सा कुब्जिकाचक्रनायिका ॥

कुब्जिका शब्द की व्युत्पत्ति कुब्जक+टाप्, इत्व से होती हैं । कुब्जिका शब्द के शाब्दिकार्थ पर न जाकर रहस्यार्थ की ओर कुछ संकेत किया जाता हैं। कुब्जिका शब्द का कुबड़ी या झुकी हुई कमर वाली ऐसा शाब्दिक अर्थ करना मूर्खता हैं। कुब्ज होकर जो सर्वत्र संकुचित रूप से व्याप्त हो जाती हैं उसे कुब्जिका कहते हैं। जैसा कि शतसाहस्रसंहिता के भाष्य में कहा गया है

कुब्जिका कथम्? कुब्जो भूत्वा सर्वत्र प्रवेशं आयाति । तद्वत् । सा सर्वत्र सङ्कोचरूपत्वेन व्याप्तिं करोति तदा कुब्जिका ।

संवर्तामण्डलसूत्रभाष्य के अनुसार कु,अब्,ज अर्थात अग्निसोम तथा प्राण की अधिष्ठत्री देवि कुब्जिका हैं । वास्तव में सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जाए तो भगवती कुब्जिका ही कुलकुण्डलिनी हैं । जैसा कि शतसाहस्रसंहिता में कहा गया है

कुण्डल्याकाररूपेण कुब्जिनि तेन सा स्मृता ॥(शतसाहस्रसंहिता अध्याय २८)

गुप्तकाल (५ C.E. )से ९ C.E. के पूर्वार्ध तक संकलित अग्निपुराण, मत्स्यपुराण तथा गरुडपुराण में देवी कुब्जिका सम्बन्धी विवरण प्राप्त होता हैं। इस से इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि कुब्जिकाक्रम प्राचीन हैं । १०-१२ C.E. तक उत्तरभारत में कुब्जिका उपासना अपने चरम पर थीं । १५-१६ C.E. के अन्त तक यह गुप्त हो गईं। महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त जी अपने तन्त्रालोक में देवि कुब्जिका सम्बन्धी कुछ श्लोक उद्धृत करते हैं। (दृष्टव्य- तंत्रालोक २८ वां अध्याय जिसमें कुलयाग का वर्णन हैं ।, खंडचक्रविचार प्रकरण )। कश्मीर में भी एक कुब्जिकापीठ था । देवि कुब्जिका की एक अमूर्त सिन्दूरलिप्त प्रतिमा थीं। जिसका पूजन कश्मीर के कुब्जिकाक्रम के अनुसार किया जाता था । कालान्तर में जाहिल धर्मोन्मादी तथा आतंकवादी मानसिकता वाले विशेषवर्ग के लोगों के कारण इस पीठ का लोप हो गया। देवीरहस्यतन्त्र में अभी भी कश्मीर के कुब्जिकाक्रम का कुछ अंश सुरक्षित हैं । कश्मीर के मूर्धन्य विद्वान श्रीसाहिबकौल (कौलानन्दनाथ) द्वारा विभिन्न देवियों के पूजा मंत्रों का संग्रह किया गया था। देवी कुब्जिका संबंधित मंत्र उस पांडुलिपी में प्राप्त होते हैं । आनन्देश्वरानन्दनाथकृत आनन्देश्वरपद्धति तथा आज्यहोमपद्धति की पांडुलिपियों में भी भगवतीकुब्जिका सम्बन्धी अंश प्राप्त होता हैं । भारत में अभी भी कुछ मुठ्ठीभर साधक स्वतंत्रक्रम से तथा अन्य साधकगण श्रीविद्या केआम्नायक्रम में कुब्जिका उपासना करते हैं । नेपाल में कुब्जिका उपासना के साक्ष्य ९००-१६०० C.E. तक के मिलते हैं । मन्थानभैरवतंत्र,शतसाहस्रसंहिता, कुब्जिकामततंत्र,अम्बासंहिता,श्रीमततंत्र आदि ग्रन्थों के हस्तलेख मात्र नेपाल से प्राप्त होते हैं। नेपाल में पश्चिमाम्नाय कुब्जिकाक्रमपरम्परा अभी तक जीवित हैं। आगे कम्युनिस्टों के राज में वहां क्या हो यह तो भगवती जाने । अथर्ववेदीय परम्परा में कुलदीक्षा के समय आचार्य शिष्य को ३२ अक्षरों वाली विद्या तथा पांचमन्त्रों वाले गोपनीय सूक्त का उपदेश करता हैं ।
यह सूक्त श्रुतपरम्परा द्वारा प्राप्त होता है तथा अथर्ववेद के किसी भी प्रकाशित भाग में उपलब्ध नहीं होता हैं। अथर्ववेदीय परम्परा में देवी कुब्जिका के सिद्धकुब्जिका, महोग्रकुब्जिका, महावीरकुब्जिका, महाज्ञानकुब्जिका,महाभीमकुब्जिका, सिद्धिलक्ष्मीकुब्जिका ,महाप्रचंडकुब्जिका, रुद्रकुब्जिका तथा श्रीकुब्जिका इन ९ गुप्तस्वरूपों की साधना की जाती हैं। कुब्जिका उपासना की फलस्तुति
बताते हुए आथर्वणश्रुति कहती है

स सर्वैदेर्वैज्ञातो भवति…. स सर्वेषुतीर्थषु स्नातो भवति…. स सर्वमन्त्रजापको भवति स सर्वयन्त्रपुजको भवति…. स सोमपूतोभवति स सत्यपूतोभवति स सर्वपूतोभवति य एवं वेद ॥

कुब्जिका उपासक सभी देवताओं में जानने वाला होता हैं। वह समस्त मंत्रो का जापक होता हैं। वह सोम तथा सत्य द्वारा पवित्र होता हैं। वह सबके द्वारा पवित्र होता हैं। आगे भी आथर्वणश्रुति कहती है

एतास्या ज्ञानमात्रेण सकलसिद्धिभाग्भवति महासार्व भौमपदम्प्राप्नोत्येवं वेद ॥

कुब्जिका क्रम का ज्ञाता सकलसिद्धि का फलभागी होता हैं अवधूतरूप महासार्वभौमपद प्राप्त करता हैं।
परातन्त्र के अनुसार साधक अष्टसिद्धि युक्त होकर परमसिद्धि शीघ्र ही प्राप्त करता हैं। भगवती भोग और मोक्ष फलद्वयप्रदायिनी हैं।

अणिमादिमहासिद्धिसाधनाच्छीघ्र सिद्धिदा ।
मोक्षदा भोगदा देवी कुब्जिका कुलमातृका ॥

कुब्जिका उपासना मपञ्चक के द्वारा वामकौलाचार तथा अवधूताचार से की जाती हैं। दक्षिणाचार से उपासना निष्फल होती हैं । परा तन्त्र में कहा गया है

वाममार्गे रता नित्या दक्षिणा फलवर्जिता ।
मकारपञ्चकैः पूज्यानां यथाफलदा भवेत् ॥

कौलिकसंप्रदाय में सिद्धिनाथ,श्रीकंठनाथ,
कुजेशनाथ,नवात्मभैरव,शिखास्वच्छन्द तथा श्रीललितेश्वर द्वारा प्रपादित क्रम से कुब्जिका उपासना की जाती हैं। जैसा कि परातन्त्र में कहा गया हैं

विभिन्ना सिद्धिनाथेन श्रीनाथेनावतारिता ।
कुजेशनाथवीरेण कुजाम्नायप्रकाशिता॥
नवात्मा श्रीशिखानाथस्वच्छन्दःश्रीललितेश्वरः॥

श्रीवडवानलतंत्र में भी कहा गया है
बहुप्रभेदसंयुक्ता कुब्जिका च कुलालिका ॥
पुनः यह कुब्जिकाक्रम बाल,वृद्ध तथा ज्येष्ठ इन तीन क्रमों में विभाजित हैं । कलियुग में बालक्रम का प्राधान्य हैं। बालक्रम को ही अष्टाविंशतिक्रम भी कहते हैं ‌। भगवती का यंत्र बिन्दु, त्रिकोण, षट्कोण,अष्टदल तथा भूपुरात्मक हैं। जैसा कि कहा गया है

बिन्दुत्रिकोणषट्कोणमष्टपत्रं सकेसरम् ।श्रीमत्कुब्जेश्वरीयन्त्रं सद्वारं भूपूरत्रयम् ॥

कुब्जिकाक्रमपूजा में श्रीनवात्मागुरुमण्डल, श्रीअष्टाविंशतिक्रम तथा श्रीपश्चिममूलस्थानदेवी का अर्चन किया जाता हैं । चिञ्चिनिमतसारसमुच्चय, कुब्जिकामततंत्र,शतसाहस्रसंहिता, गोरक्षसंहिता, अम्बासंहिता, श्रीमततंत्र, कुब्जिकोपनिषत्, नित्याह्निकतिलकं ,मन्थानभैरवतंत्र इत्यादि कुब्जिका उपासना संबंधित ग्रन्थ हैं । अग्निपुराण में कहे हुए
भगवती कुब्जिका के ध्यान को लिखकर लेख का समापन किया जाता है…. ॐ शिवमस्तु ।

नीलोत्पलदलश्यामाषड्वक्त्राषट्प्रकारिका ।
चिच्छक्तिरष्टादशाख्या बाहुद्वादशसंयुता ॥
सिंहासनसुखासीना प्रेतपद्मोपरिस्थिता ।
कुलकोटिसहस्राढ्या कर्कोटोमेखलास्थितः॥
तक्षकेणोपरिष्टाच्चगलेहारश्च वासुकिः।
कुलिकः कर्णयोर्यस्याःकूर्म्मःकुण्डलमण्डलः॥
भ्रुवोःपद्मो महापद्मोवामे नागःकपालकः ।
अक्षसूत्रञ्च खट्वाङ्गं शङ्खं पुस्तकञ्चदक्षिणे॥
त्रिशूलन्दर्पणं खड्गं रत्नमालाऽङ्कुशन्धनुः।
श्वेतमूर्ध्वं मुखन्देव्या अर्धश्वेतन्तथाऽपरं ॥
पूर्व्वास्यं पाण्डरं क्रोधि दक्षिणं कृष्णवर्णकं ।
हिमकुन्देन्दुभं सौम्यं ब्रह्मा पादतले स्थितः॥
विष्णुस्तु जघने रुद्रो हृदि कण्ठे तथेश्वरः।
सदाशिवोललाटेस्याच्छिवस्तस्योर्ध्वतःस्थितः॥
आघूर्णिता कुब्जिकैवं ध्येया पूजादिकर्म्मसु॥