A verse from karpUrama~njarI

karpUrama~njarI is an experimental drama written in shaurasenI prAkRRita around 900 CE by mahAkavi rAjashekhara . The early mediaeval period of Indian history was time , when many tantric sects rose to prominence . They were both subject of fear and reverence in Indian society . Dramatists too were part of that society , so most of them choose to potray a fearsome image of kApAlikas.This work is unique in many sense. In contrast with Indian tradition of Sanskrit drama,it is written in pure prAkRRita. Second important point to notice about this drama is, it potrayes a positive image of kApAlika ascetic while other dramatists of that time potrayed a negetive and fearsome image of kApAlikas to there subjects. mAlatImAdhava ,harShacharitra mattavilAsaprahasana and yashastilaka are examples of such dramas. In pandemic time , while going through the karpUrama~njarI , a prAkRRita verse attracted my attention.This verse is invocation to goddess chAmuNDA .


kappantakelibhavaNe
kAlassa purANaruhirasuram ।jaadi piantI chaNDI parameTThikavAlachasaeNa ॥

Sanskrit ChAyA of this sloka will be like

kalpANtakelibhavane
kAlasya purANarudhirasurAm ।
jayati pibantI chaNDI parameShThI kapAlachashakeNa ॥

” Praise to godess chaNDikA who drinks alcohol of life from skull of brahmA , in mahAkAlarudra’s palace of destruction. “

This verse praises fearsome form of mother divine chAmuNDA who is drinking blood and alcohol from skull of brahmA during the final distruction of Universe.Why This verse attracted my attention is because this verse have multiple secrate meanings.This verse can be interpreted in light of krama doctrine ,kula doctrine and Tantra doctrine. I’m not interpretating whole verse but pointing out some words and hidden aspects encapsulated in them .

chaNDI = kuNDalinI,chaNDakApAlini, chAmuNDA ,kAlasaNkarShiNI
kapAlachashaka= Skull cup,kAdya, brahmarandhra, VirapAtra
kalpANtakelibhavan = mahAshmashAna, Final yogic State of assimilation , Plain of mahAbhairava where he destroys everything in universe
rudhirasurAm = brahmarasa, nector falling from sahasrAra , chandrAmRRita , Blood and Alcohol,Life force of universe, PashUtA
parameShThI =brahmA , creater of impure universe , propagator of pashushAstra,हूँ सर्वसंहारिणीमहाचण्डेकापालिनीपादुकां पूजयामि॥

लाकुलपाशुपतसंप्रदाय का गुरुमण्डल तथा उनके ग्रंथ

मध्यकाल के आते आते भगवान लकुलीश के द्वारा प्रवर्तित लाकुलपाशुपतसंप्रदाय क्षीण हो चला था । लाकुलपाशुपतसंप्रदाय का स्थान अब त्रिक,सिद्धान्त इत्यादि नए शैवमत ले रहे थे। मध्यकाल के अंत तक पाशुपतसम्प्रदाय काल के धुंधले अन्धकार में समा गया, और अपने पीछे छोड़ गया अपने ध्वस्तावशेष ।
शैवसिद्धान्त सम्प्रदाय के अनुयायी लाकुलपाशुपतों को सर्वथा हेय मानते थे । काश्मीर के त्रिकसम्प्रदाय तथा कुलसंप्रदाय के अनुयायी लाकुलपाशुपतों को सर्वथा हेय नहीं मानते थें। वे लाकुलपाशुपतों के कुछ सिद्धांत स्वीकार करते थे , अन्य सिद्धांतो पर उनका मतभेद था । इन दोनों संप्रदायों ने कुछ अंश में लाकुलपाशुपतसम्प्रदाय को अपने अंदर समाहित कर लिया । श्रीसिद्धामत (अपरनाम- सिद्धयोगेश्वरीमत ) की गुरुपरम्परा में भगवान लकुलीश का नामोल्लेख मिलता है, जो इस तथ्य की पुष्टि करता हैं ।श्रीसिद्धादिविनिर्दिष्टा गुरुभिश्च निरूपिता ।
भैरवो भैरवी देवी स्वच्छन्दो लाकुलोऽणुराट् ॥ गहनेशोऽब्जजः शक्रो गुरुः कोट्यपकर्षतः ।
नवभिः क्रमशोऽधीतं नवकोटिप्रविस्तरम् ॥     (तंत्रालोक ३६.१-२)                                कुलसंप्रदाय की एक गुरुपरम्परा के अनुसार लकुलीश के शिष्य अनन्त की परम्परा में विश्वरूप नामक एक आचार्य हुए । ये विश्वरूप उत्तरतंत्र के सिद्धसाधक , लाकुलपाशुपतसम्प्रदाय के अनन्तगोत्र के थे । इन्ही के शिष्य श्रीमान अल्लट कुलशास्त्रों के विशेष प्रचारक तथा ज्ञाता हुए। लाकुलपाशुपतसम्प्रदाय की छोटी धाराएं अन्य संप्रदायों में विलीन हो गई तथा मुख्यधारा का लोप हो गया , पीछे रह गये तो बस उनके होने के प्रमाण । लाकुलपाशुपतसम्प्रदाय की गुरुपरम्परा में अठारह प्रधान पाशुपताचार्य हुए हैं । इन्हे ‘तीर्थकर’ भी कहा जाता था । पाशुपताचार्य भासर्वज्ञकृत ‘गणकारिका’ में कहा गया है- ततोऽवभृथस्नानं कृत्वा भगवंल्लकुलीशादीन्राशीकरान्तांश्च तीर्थकराननुक्रमेण यथावद्भक्त्या नमस्कुर्यात् तदनु प्रदक्षिणमेकमिति ॥ (गणकारिका-१.७.४९)      भगवान लकुलीश से स्वविद्यागुरु पर्यन्त अठारह आचार्यों के नाम का उल्लेख ‘तर्कसंग्रहदीपिका’ में मिलता हैं । इनके शुभनाम क्रमशःहै-
१) भगवान् श्रीलकुलीश
२) श्रीकौशिकपाशुपताचार्य
३) श्रीगार्ग्यपाशुपताचार्य
४) श्रीमित्रपाशुपताचार्य
५)श्रीकारूषपाशुपताचार्य
६) श्रीईशानपाशुपताचार्य
७) श्रीपारगार्ग्यपाशुपताचार्य
८) श्रीकपिलाण्डपाशुपताचार्य
९) श्रीमनुष्यकपाशुपताचार्य
१०) श्रीकुशिकपाशुपताचार्य
११) श्रीअत्रिपाशुपताचार्य
१२) श्रीपिङ्गलपाशुपताचार्य
१३) श्रीपुष्यकपाशुपताचार्य
१४) श्रीबृहदार्यपाशुपताचार्य
१५) श्रीअगस्तिपाशुपताचार्य
१६) श्रीसंतानपाशुपताचार्य
१७) श्रीराशीकरपाशुपताचार्य
१८) श्रीस्वविद्यागुरु अमुकपाशुपताचार्य
लाकुलपाशुपतसंप्रदाय के अनुयायी अपने इन अठारह पाशुपताचार्यों का नित्यस्मरण तथा प्रणाम किया करते थें । ‘तर्कसंग्रहदीपिका‘ के साथ साथ ‘गणकारिका‘ में भी लाकुलपाशुपतों की इस विधि का उल्लेख मिलता हैं ।
तत्रोपस्पृश्य कारणतीर्थकरगुरून् अनुप्रणम्य प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा पद्मकस्वस्तिकादीनाम् अन्यतमं यथासुखम् आसनं बद्ध्वा कृतम् उन्नतं च कृत्वा शनैः संयतान्तःकरणेन रेचकादीन् कुर्यात् ॥ (गणकारिका-१.६.७६)  लाकुलपाशुपतसंप्रदाय में आठप्रमाण ग्रंथों का प्रचलन था । कालान्तर में जब पाशुपत सम्प्रदाय का पतन हुआ तब प्रमाणग्रंथ लुप्त हो गये । कुछ विद्वान प्रमाणों की संख्या चौदह मानते हैं। इन चौदह के नाम क्रमशः है –
१) पञ्चार्थप्रमाण
२) शिवगुह्यप्रमाण
३) रुद्राङ्कुशप्रमाण
४) हृदयप्रमाण
५) व्युहप्रमाण
६) लक्षणप्रमाण
७) आकर्षप्रमाण
८) आदर्शप्रमाण
९) पुराकल्पप्रमाण
१०) हाटकप्रमाण
११) शालकप्रमाण
१२) निरूक्तप्रमाण
१३) विश्वप्रमाण
१४) प्रपंचप्रमाण
हृदयप्रमाण के छः उपविभाग थे , जिनको उपप्रमाण कहा जाता था । भगवान लकुलीश के शिष्य मुसलेन्द्र ने इन छः उपप्रमाणों का संग्रह किया था। यदि इन उपप्रमाणों का योग कर लिया जाए तो कुल चौदहप्रमाण सिद्ध होते हैं । केवल पञ्चार्थप्रमाण का कुछ अंश महामाहेश्वराचार्य क्षेमराज के ‘स्वच्छन्दोद्योत‘ में मिलता हैं। कश्मीर के शैवसिद्धान्ताचार्य भट्ट रामकण्ठ हृदयप्रमाण का नामोल्लेख अपने ‘परमोक्षनिरासकारिकावृत्ति’ में करते हैं। सायणमाधव कृत ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ के पाशुपतदर्शनप्रकरण में “इत्यादर्शकारादिभिस्तीर्थकरैर्निरूपितम् “
वाक्य में आदर्शप्रमाण का नामोल्लेख मिलता हैं। विभिन्न संप्रदायों के आचार्यों द्वारा उद्धृत होने तथा नामोल्लेख से इन प्रमाणग्रंथों की ऐतिहासिकता सिद्ध हो जाती हैं । दुर्भाग्यवश पञ्चार्थप्रमाण के ४ श्लोकों के अतिरिक्त इन ग्रंथों का कोई ओर अंश अप्राप्य हैं ।

भट्टारक लकुलीश के चतुर्भुज ध्यान को लिखकर लेख समाप्त करते हैं………शिवमस्तु ॐ ।
शोणाङ्गं डमरुञ्चशूलमपरे वामेऽभयं कुण्डिकां बिभ्राणस्मितभस्मराशितनुं पिङ्गोर्ध्वकेशावृतम् ।
त्र्यक्षं नीलगलं महोरगधरं हारादिभूषोज्वलं
ध्यायेऽहं लकुलीश्वरं सुरपतिं पद्मासनस्थं हृदि ॥

भगवती हंसतारा

जय मां तारा

कालीमंत्रक्रमान्तर्गत जिस प्रकार कालीकुलसाधक भगवती हंसकाली की उपासना करते है, उसी प्रकार ताराकुल साधकों के मध्य भगवती हंसतारा की उपासना का प्रचलन हैं ।

हंसतारा महाविद्या तव स्नेहात् प्रकाशिता ।
कविता सा वशेत् पुंसां धनार्थी धनमाप्नूयात् ।
मोक्षार्थी लभते मोक्षं नात्र कार्या विचारणा ॥

स्वच्छंदसंग्रह में भगवान शिव ने भगवती हंसतारा को आज्ञासिद्धि, त्रैलोक्यवशीकरण, चौदह प्रकार की विद्या , कवित्व, धनधान्य तथा मोक्ष प्रदान करने वाली महाविद्या कहा हैं ।

आज्ञासिद्धिमवाप्नोति त्रैलोक्यं वशमानयेत् । वशमायास्ति सततं तस्य विद्याश्चचतुर्दश ॥

ताराकुल में विशिष्ट सिद्धिप्रद होने के कारण, मात्र अधिकारी साधकों को यह महाविद्या गुरुप्रसाद तथा देवता के अनुग्रह से प्राप्त होती हैं । यह महाविद्या अत्यन्त गोपनीय है, इसलिए पद्धतिकार तथा निबन्धकार भी इनका विशेष उल्लेख करने से सकुचाते हैं। भगवती हंसतारा का ध्यान इस प्रकार हैं-

” सकलविद्यामय हंस की पृष्ट पर भगवान अक्षोभ्य विराजमान है, उन्हीं के अंक में चतुर्भुजा भगवती हंसतारा विराजमान हैं । इनकी कान्ति श्वेतस्फटिक के सामन हैं । भगवती की आभा शीतल चंद्रप्रकाश जैसी हैं। “

हंसमंत्र की अधिष्ठाता देवता होने के कारण तथा हंसारूढ होने के कारण भगवती तारिणी के इस स्वरूप को हंसतारा अभिधान किया गया । भगवती हंसतारा की उपासना त्र्याक्षरी , सप्ताक्षरी अष्टाक्षरी , नवाक्षरी तथा सार्द्धपञ्चाक्षरी विद्या से होती हैं । ये सभी मंत्र गुरुगम्य है, उन्हीं के श्रीमुख से इनका ज्ञान प्राप्त कर साधना करना श्रेयस्कर होता हैं । विशेष जिज्ञासुजनों को तारिणीमंत्रकल्प, रुद्रयामल ताराखण्ड, स्वच्छंदसंग्रह तथा श्रीरघुनंदन तर्कवागीश महाशय कृत आगमतत्वविलास के तारा प्रकरण का अवलोकन करना चाहिए । भगवती हंसतारा की आवरणपूजा तथा पूजापद्धति कुछ परिवर्तनों के साथ श्रीउग्रतारा के सामान हैं ।

बौद्ध हंसताराप्रतिमा

इनकी उपासना महाचीनक्रम की विधि से करना चाहिएं तभी साधक को सिद्धि प्राप्त होती हैं । तारामन्त्रक्रम में साधक को हंसषोढान्यास का अधिकार हंसतारा उपासना के पश्चात ही प्राप्त होता हैं । स्वतन्त्ररूप से उपासना करने पर भगवती हंसतारा का साधक भोग तथा मोक्ष दोनों सहज ही प्राप्त कर लेता हैं ।
ध्यायेत्कोटिदिवाकरद्युतिनिभान्बालेन्दुयुक्छेखरां
रक्ताङ्गीं रसनां सुरक्तवसनाम्पूर्णेन्दुबिम्बाननाम्।
पाशङ्कर्तृमहाङ्कुशादि दधतीन्दोर्भिश्रतुर्भिर्युतान्
नानाभूषणभूषिताम्भगवतीन्ताराञ्जगत्तारिणीम् ॥
वासन्तीय नवरात्रपर्व की अनेकों शुभकामनाओं सहित……🙏

ॐ हंसतारे वज्रपुष्पं प्रतिच्छ हूँ फट् स्वाहा ॥

श्रीहेरम्बगणपति

तंत्रयुग (5CE से 14CE) में तांत्रिक सम्प्रदायों के उदय के साथ ही गाणपत्यसंप्रदाय का भी उदय हुआ । इस संप्रदाय के अनुयायी गणपति को अपना इष्ट देवता मानते थें । इस आगमिक धारा में ६ प्रधानमत तथा ६ उपमत थे, जो आपस में संबद्ध थें । ये सभी शाखाएं गणपति के किसी विशिष्टस्वरूप को अपना इष्टदेवता स्वीकारती थी तथा उस स्वरूप से संबन्धित विशेष आचारों तथा व्रतों का पालन करती थीं। इनमे
३ प्रधानमत तथा ३ उपमत वैदिकधर्म का पालन करने वाले दक्षिणाचार के और अन्य ३ प्रधानमत तथा ३ उपमत तांत्रिकधर्म का पालन करने वाले वामाचार के थें । इन्ही वाममार्ग के उपमतों में एक उपमत श्रीहेरम्बगणपति उपासना का था। इसका प्रधानमत श्रीउच्छिष्टगणपति उपासना का था । हेरम्बगणपतिसंप्रदाय के उपासक भगवान हेरम्बगणपति की साधना वामविधि से किया करते थें। ये साधक ‘अक्ष’ को भुजाओं पर धारण किया करते थें। ललाट पर श्वेतचन्दन से गाणपत्यपुण्ड्र तथा कण्ठ में श्वेतार्क की माला धारण किया करते थे । इस मत के साधक अंकुश तथा परशु ये दोनो आयुध धारण करते थें । भृगुवार को विशेष व्रत करते थें। मास की दोनों चतुर्थीयां इस मत में पर्वकाल थीं । श्रीहेरम्बनाथ अथवा श्रीहेरम्बसिद्धाचार्य इस मत के प्रतिष्ठापक आचार्य थें । गाणपत्यदर्शन की पाण्डुलिपी में कई स्थानों पर श्रीहेरम्बनाथ का नामोल्लेख मिलता हैं। काल की प्रवाहमानधारा में धीरे धीरे इस गाणपत्यमत का लोप हो गया परन्तु शाक्तमत के साधकों के मध्य श्रीहेरम्बगणपति की उपासना का क्रम निरन्तर चलता रहा। श्रीहेरम्बगणपति शाक्तों के आम्नायक्रम में पश्चिमाम्नाय से संबंधित देवता हैं । श्रीहेरम्बगणपति की दो प्रकार की मूर्तियां अथवा स्वरूप हैं ।
१. एकवीरहेरम्बगणपति
२. यामलहेरम्बगणपति
एकवीरस्वरूप में हेरम्बगणपति प्रायः सिंहारूढ, पंचवक्त्र तथा दशभुजी होते हैं । अपने दस हाथों में वे क्रमश अभय, वर, पाश, दंत, अक्षमाला, अंकुश , परशु , मुद्गर, मोदक तथा फल धारण करते हैं। ये मौक्तिक के समान श्वेतवर्ण वाले हैं । पंचकृत्यकारी होने के कारण इनके पांच मातंगवक्त्र बनाये जाते हैं ।

यामलस्वरूप में विशेष यह है कि इनके साथ इनकी दोनों शक्तियों का तथा दो प्रकार के वाहनों का अंकन किया जाता हैं। सिंह तथा मुषक ये दोनों ही इनके वाहन हैं ।

कही कही केवल एक शक्ति के साथ भी इन्हें दर्शाया जाता हैं । श्रीहेरम्बगणपति का एक नव्यस्वरूप भी देखने को मिलता हैं जिसमें उन्हें पद्मासनस्थित , पञ्चवक्त्र तथा चतुर्भुज दिखाय गया हैं । हेरम्बदेव के इस प्रकार के स्वरूप का वर्णन शास्त्रों में नहीं मिलता है संभवत ये किसी शिल्पकर्मी के मानस की अभिव्यक्ति हैं। हेरम्बोपनिषद, विनायकतंत्र, हेरम्बकल्प तथा मंत्रमहार्णव में इनकी उपासना संबंधी विवरण प्राप्त होता हैं। उत्तरभारत तथा नेपाल में गणपति के इस स्वरूप की क्रम से साधना करने वाले साधक अभी भी हैं। दक्षिणभारत के विषय में अनभिज्ञता के कारण पाठको से क्षमा चाहता हूं । हेरम्बभट्टारक का ध्यान लिखकर लेख समाप्त किया जाता हैं ।
अभयवरदहस्तःपाशदंताक्षमाला सृणिपरशुदधानो मुद्गरंमोदकञ्च । फलमधिगतसिंहः पंचमातंगवक्त्रो गणपतिरतिगौरः पातु हेरम्ब नामा ॥