ताराकुलसाधकों का तुलसी तथा हरिनामसंकीर्तन निषेधनिर्णय

पूर्व में भगवती श्रीश्रीतारा के दीक्षाक्रम पर लिखे गए लेख में तुलसी तथा हरिनामसंकीर्तननिषेध की चर्चा की थीं । इस पर कई मित्रों ने प्रश्न किया तथा कुछ तथाकथित विद्वानों के द्वारा आपत्ति उठाई गई थी । इसलिए इस विषय पर शास्त्रप्रमाण सहित लेख लिख रहा हूं । ( तथाकथित विद्वान पूर्वपक्ष का शास्त्रप्रमाण सहित उत्तर देंगे इस प्रकार साशाय होकर लिख रहा हूं। )
तंत्रशिरोमणि रुद्रयामल में भगवती चण्डिका के लिए तुलसी का स्पष्ट निषेध किया गया हैं।
रुद्रयामले-
तुलसीघ्राणमात्रेण क्रुद्धा भवति चण्डिका ॥
तुलसी की गंधमात्र से देवी चण्डिका क्रुद्ध हो जाती हैं।
यहां चण्डिका पद देवीमात्र का उपलक्षण हैं। अर्थात् चण्डिका के विषय में कही बात तारादि स्वरूपों पर भी लागू होती हैं। आगे भी भगवान रुद्र तुलसी का सुंदरी विषयक निषेध करते हैं।
रुद्रयामले-
तुलस्या गन्धमाघ्राय क्रुद्धा भवति सुन्दरी ॥
रुद्रयामल में अन्यत्र गणपति के लिए भी तुलसी का निषेध किया गया हैं। 
रुद्रयामले-
तुलसी ब्रह्मरूपा च सर्वदेवमयी शुभा ।
सर्वदेवमयी सा तु गणेशस्य प्रिया नहि ॥
कालीतन्त्र के अष्टमपटल के श्लोक क्रमांक २२ में भी तुलसी के निषेध संबंधी प्रमाणवचन प्राप्त होते हैं।
कालीतंत्रे –
सुगन्धिश्वेतलोहित्यैःकुसुमैरर्चयेत् दलैः। बिल्वैर्मरुवकाद्यैश्च तुलसी वर्जितैः शुभैः॥(८.२२.)
कालीतंत्र के ही दशमपटल में कहा गया हैं –
यथातारा तथाकाली यथा नीलातथोन्मुखी ॥ (१०.१ब)
इस प्रकार भगवती काली तथा भगवती तारा में अभेद होने से कालीपरकनिषेध तारा पर भी लागू होता हैं। 
आगे दशम पटल के २०वें श्लोक में कहां गया हैं-
यत्र यत्र कालिकेति नाम संश्रुयते प्रिये ।
तत्र तारा विधानञ्च युते नात्र संशयः ॥(१०.२०)
जहां जहां कालिका पद होवे वहां मिलितभावेन तारा विधान का अनुष्ठान करना चाहिएं।  इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिएं।
यदि ये प्रमाण उन्हें अस्वीकार्य होवे तो भगवती तारा विषयक चीनाचारतंत्र के द्वितीय पटल के ३५वें श्लोक में भी इसी प्रकार का निषेध प्राप्त होता हैं ।
चीनाचारतंत्रे-
अपामार्गदलैर्भृंगैस्तुलसी वर्जितैः शुभैः॥(२.३५)
देवी भवतारिणी का बिल्व तथा मरुआ से अर्चन करे , परन्तु अपामार्ग, भृंगराज तथा तुलसी का वर्जन करें ।
मत्स्यसूक्त नामक आगमशास्त्र में भी इसी प्रकार का निषेध वचन प्राप्त होता हैं। 
मत्स्यसूक्ते –
सुगन्धिश्वेतलौहित्य कुसुमैरर्चयेत् कुलैः ।
बिल्वैर्मरुवकाद्यैश्च तुलसीवर्जितैः शुभैः॥
श्वेत तथा रक्तपुष्पों से शक्तिपूजा करें। बिल्व तथा मरूआ के पत्र से शक्तिपूजा करें परन्तु तुलसी का वर्जन करें ।
हरगौरीतंत्र में मालती तथा तुलसी का तारापूजा में निषेध किया गया हैं।
हरगौरीतंत्रे-
वर्जयेन् मालतीपुष्पं वर्जयेत् तुलसीदलम् ॥
त्रिशक्तिरत्न नामक आगम में कुछ इसी प्रकार का वचन प्राप्त होता हैं।
त्रिशक्तिरत्ने-
तुलसीमालतीवर्जं पुष्पं दद्यात् प्रसन्नधीः॥
कौलागम में भी कहा गया हैं।
भैरवीसुन्दरीकालीताराविघ्नविवस्वताम् ।
तुलसीवर्जिता पूजा सा पूजा सफला भवेत् ॥
भैरवी,सुन्दरी,काली,तारा, गणपति तथा सूर्य के पूजन मे तुलसी का वर्जन करें ।
रही बात हरिनामसंकीर्तननिषेध की तो तंत्रचूडामणि मे इस विषयक प्रमाण वाक्य मिलता हैं ।
वर्जयेद्विष्णुनामञ्च वर्जयेत्तुलसीदलम् ।
वर्जयेन्मालतीपुष्पं वर्जयेदन्यपूजनम् ॥
अर्थात् ताराकुल का साधक विष्णु का नाम, तुलसीपत्र, मालतीपुष्प तथा अन्य देवताओं के पूजन का वर्जन करें । तन्त्रांतर में भी  हरेर्नाम न गृह्णीयात् ॥ इस प्रकार का विधि वाक्य प्राप्त होता हैं । अंत में सुधिजनों तथा सामान्य पाठकों से इतना ही कहना चाहूंगा की ताराकुल के साधकों को तुलसी तथा हरिनामसंकीर्तननिषेध शास्त्रसम्मत हैं , मैंने द्वेषवश अथवा प्रमाद के कारण ऐसा नहीं लिखा हैं …… अस्तु ।
ॐ ताराम्बार्पणमस्तु ॥

जयद्रथयामल के परिप्रेक्ष्य में भगवती सिद्धिलक्ष्मी

भगवती सिद्धिलक्ष्मी कालीकुलक्रम की देवता विशेष है, जिनकी उपासना का प्रारम्भ विस्तृत कश्मीर के उड्डीयाणपीठ के करवीर महाश्मशान से हुआ । उड्डीयाणपीठ से सिद्धिलक्ष्मी उपासना की धारा उत्तरभारत के कुछ भागों में तथा नेपाल तक जा पहुंची । नेवारसमुदाय के मल्लराजाओं ने सिद्धलक्ष्मी उपासना को अपने राज्य में प्राश्रय दिया। स्वयं मल्लराजपुरुषों ने आचार्यों से दीक्षाभिषेक प्राप्त कर भगवति सिद्धलक्ष्मी की उपासना की । मल्लराजवंश में जब तक सिद्धिलक्ष्मी की उपासना चलती रही, तब तक उनका राज्य अक्षुण्ण रहा । कालानलतंत्र में कहा भी गया हैं –
पुत्रपौत्रान्वितो भूत्वा चिरजीवीभवेन्नरः ।
विवादे विजयो नित्यं संग्रामे विजयस्तथा ॥
राजकन्या भवेत् पत्नी राजा च वशगो भवेत् ।
सर्वदा ज्ञातिश्रेष्टोऽपि बन्धुभर्त्ता सदाभवेत् ॥
रिपूणां वीर्यविध्वंसी भवत्येव न संशयः ।
अन्तकाले गतिस्तस्य निशामय मम द्विज ॥
सिद्धिलक्ष्मी प्रसादेन साधकस्य फलं शृणु ॥
भगवती सिद्धिलक्ष्मी के प्रसाद से साधक पुत्रपौत्रादि से युक्त होकर चिरायु को प्राप्त करता हैं । राजवंश की कन्या प्राप्त करता है तथा अपनी जाति में श्रेष्ठ होता हैं। शत्रुओं का नाश कर इनका साधक अंत में मोक्ष को प्राप्त करता हैं। कालानलतंत्र के अनुसार श्रीकामकलाकाली,श्रीगुह्यकाली,श्रीछिन्नमस्ता,श्रीतार,श्रीकालसंकर्षिणी तथा श्रीसिद्धिलक्ष्मी अभेद हैं । इनमे कोई भेद नहीं है, मात्र मूर्त्यान्तर हैं ।
यथा कामकलाकाली गुह्यकाली तथा द्विज ।
यथा छिन्ना यथा तारा वज्रकापालिनी यथा ॥
सिद्धिलक्ष्मीः तथा देवी विशेषोनास्ति कश्चन ॥

ह्रीँ श्रीँ श्रीसिद्धिरमाम्बापादुकां पूजयामि ॥

भगवान सिद्धेश्वर इनके भैरव हैं। ये उत्तराम्नाय से संबंधित देवी हैं। उड्डीयाणपीठ में भैरव तथा योगिनियों के मेलापोत्सवरूपी डामरयाग के मध्य भगवती सिद्धिलक्ष्मी का प्राकट्य हुआ । महाभैरव ने इनकी उपासन का उपदेश दिव्ययोगिनियों को दिया । दिव्ययोगिनियों से सिद्धों को यह उपासना प्राप्त हुईं । सिद्धों ने अधिकारी व लक्षणसंपन्न वीरों तथा योगिनियों को इस उपासना का उपदेश दिया। इनकी उपासना करने वाले कापालिक डामरक कहलाते थें। श्रीत्रिदशडामरमहातन्त्र के अनुसार
इस शक्तिविशेष को जयद्रथयामल में सिद्धिलक्ष्मीप्रत्यङ्गिरा,झंकारभैरवतन्त्र में चण्डकापालिनि तथा कुलडामर में शिवा कहा गया हैं।
प्रत्यङ्गिरात्वियं देवि सिद्धिलक्ष्मी जयद्रथे ।
झंकारभैरवे चण्डा शिवान्तु कुलडामरे ॥
२४,००० श्लोकों वाले जयद्रथयामल के द्वितीयषट्क में भगवती सिद्धिलक्ष्मी की उपासना का विशद वर्णन मिलता हैं। द्वितीयषट्क के २१वें पटल में भगवती सिद्धिलक्ष्मी के मूलमालामन्त्र का उद्धार दिया गया हैं।
इस पटल की पुष्पिका का पाठ इस प्रकार है-
…..श्रीजयद्रथयामलेविद्यापीठेभैरवस्रोतसिशिरश्च्छेदे
चतुर्विंशतिसाहस्रेद्वितीयषट्केश्रीसिद्धलक्ष्मीविधाने
मूलमालामन्त्रप्रकाशएकविंशतितमःपटलः…..
इस पटल पर वशिष्ठकुलोत्पन्न किसी आचार्य की लघुटीका भी हैं, जिसकी पुष्पिका का पाठ निम्न हैं ।
इतिवाशिष्ठायमतेजयद्रथेमालामन्त्रटीका॥
जयद्रथयामल में भगवती सिद्धिलक्ष्मी को कालसंकर्षिणी का ही एक स्वरूप माना गया हैं। इनका अभेद पूर्व में कह आए है सो आगे चर्चा नहीं करते । जयद्रथयामल में भगवती सिद्धिलक्ष्मी की सत्रह अक्षरों वाली विद्या तथा समयमालामंत्र की प्रधानता हैं। इन्हीं दोनों मंत्रों की साधनविधि तथा प्रयोगविधि का वर्णन विशेष रूप से इस ग्रंथ में प्राप्त होता हैं। २१वें पटल के प्रारम्भ में कहा भी गया हैं –
उद्धृत्ता परमाविद्या सुखसौभाग्यमोक्षदा
शतद्वयं च वर्णानां नवत्यधिकमुद्धृतम् ॥
एषा विद्या महाविद्या नाम्नात्रैलोक्यमोहिनी।
लक्ष्मीश्वरीति विख्याता बुहुभोगभरावहा ।
महालक्ष्मी महाकान्ता सर्वसौभाग्यदा स्मृता ।
अस्मिन्स्रोतसि देवेशि नानया सदृशी परा ॥
अन्य आगमों में भगवती सिद्धिलक्ष्मी की नवाक्षरी, सप्त दशाक्षरी, सहस्राक्षरी तथा आयुताक्षरी विद्याओं की प्रधानता हैं। द्वितीयषट्क के अंतिम १० पटलों में  सिद्धिलक्ष्मीकल्प के नाना प्रयोगों का वर्णन मिलता हैं जिनके नाम निम्न हैं
(१) प्रथमप्रतिहारविधिः
(२) द्वितीयप्रतिहारविधिः
(३) तृतीयप्रतिहारविधिः
(४) प्रतिहारसाधनविधिः
(५) शिरसाधनविधिः
(६) शिखासाधनविधिः
(७) केशसाधनविधिः
(८) अस्त्रसाधनविधिः
(९) यक्षिणीचक्रम्
(१०) यक्षिणीचक्रप्रयोगविधिः
इनमे प्रथम तीनपटल कृत्यादिप्रयोग के प्रतिहार की विधि को निर्देशित करते हैं। चतुर्थपटल रक्षापुरुष को प्रकट करने के प्रयोग का वर्णन करता हैं । आगे के चार पटलों में सिद्धिलक्ष्मी के अंगमंत्रो का साधन कहा गया हैं। अंतिम दो पटल यक्षिणीचक्र तथा यक्षिणीप्रयोगों की विधि का उल्लेख करते हैं। इन पटलों के अंत में निम्न पुष्पिका प्राप्त होती हैं । 
….श्रीजयद्रथयामलेविद्यापीठेभैरवस्रोतसिशिरश्च्छेदे
चतुर्विंशतिसाहस्रेद्वितीयषट्केश्रीसिद्धलक्ष्मीविधाननानाकल्पम् ….
जयद्रथयामल के अनुसार सिद्धिलक्ष्मी की उपासना
सभी उप्लवों का नाश करनेवाली,सर्वश्रेष्ठ,अत्यन्तउग्र सर्वसम्पत्प्रदायिनी हैं। इस विद्या के सामन १४ भुवनों में कोई और उग्रताम विद्या नहीं हैं। 
जयद्रथयामल में भगवती भैरवी ने कहा भी हैं –
सर्वसाधारणी घोरा सर्वोपप्लवनाशिनी । सर्वसम्पत्प्रदाश्रेष्ठा सर्वसम्पत्प्रदायिका ॥
अस्यां विज्ञातमात्रायां विभूति संप्रवर्तते ।
अस्याः घोरतरानान्या विद्यते भुवनोदरे ॥
भगवान भैरव ने भी इस विद्या की भूरी भूरी प्रशंसा की हैं ।
अलक्ष्मीशमनी ज्ञेया दुष्टदारिद्र्यमर्दिनी ।
कलिदुस्स्वप्नशमनी जात्योपद्रवनाशिनी ॥
राजोपसर्गशमनी दुष्टदस्यु विनाशिनी ।
सदारण्यभये घोरे सिंहव्याघ्रसङ्कटे ॥
यह विद्या अलक्ष्मी, दुष्टजनों तथा दारिद्रय का नाश करने वाली हैं। कलि के प्रभाव , दुस्स्वप्न, जात्योपद्रव, राजोपसर्ग तथा दुष्टदस्युओं का नाश करने करने वाली हैं। अरण्य,सिंह,व्याघ्र, सङ्कट तथा भय से रक्षा करने वाली हैं। जयद्रथयामल के अतिरिक्त झंकारभैरवतन्त्र, कुलडामर,श्रीकालिकुलसद्भावमहातन्त्र,श्रीसिद्धिलक्ष्मीमत,श्रीउमायामल,श्रीमहाकुलक्रमडामर,श्रीगुह्यकुलक्रम,श्रीकालसंकर्षणिमत, श्रीकालानलतंत्र तथा श्रीमेरुतंत्र मे भी सिद्धिलक्ष्मी की उपासना का वर्णन मिलाता हैं ‌।
सिद्धिलक्ष्मी गायत्री से लेख का समापन करते हैं।
ॐ सिद्धिरमायै विद्महे दशभुजायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
ॐ शिवमस्तु……….।

जय मां सिद्धलक्ष्मी

श्रीश्रीतारा के दीक्षाक्रम तथा अङ्गविद्याओं का निरूपण

भगवती श्रीश्रीतारातारिणी के दीक्षाक्रम तथा अंगविद्याओं का निरूपण ‘तारिणीमन्त्रकल्प’ के अनुसार किया जाता हैं। भगवती तारा के दीक्षाक्रम में श्रीगुरु साधक को निम्न मंत्रों की क्रम से देते हैं। 
(१) स्पर्शतारा
(२) चिंतामणितारा
(३) सिद्धिजटा
(४) उग्रतारा (सार्द्धपंचाक्षरीमंत्र)
(५) हंसतारा 
(६) निर्वाणतारा (पूर्णाभिषेक)
(७) महानीलतारा
(८) नीलशाम्भवरश्मिक्रम
(९) महानीलोत्तररश्मिक्रम
(१०) सम्राटाभिषेक (महापूर्णाभिषेक)
इस प्रकार का अत्यन्त रहस्यमय महागोपनीय श्रीताराक्रम प्राप्त कर अधिकारी साधक कृतकृत्य हो, साक्षात् अक्षोभ्यशिव की तरह भूमि पर विचरण करता हैं। ‘तारिणीमन्त्रकल्प’ में इस दीक्षाक्रम को ‘महानीलताराक्रम‘ अभिधान दिया गया हैं ।
इन प्रधान मंत्रों के साथ साथ भगवती के ४२ अंगमंत्रों की भी साधक दीक्षा प्राप्त करता हैं। तारिणीमंत्रकल्प के अनुसार भगवती तारा के ४२अंगदेवता निम्न हैं ।
(१) वटुक
(२) क्षेत्रपाल
(३) योगिनी
(४) गणपति
(५) अक्षोभ्यभैरव
(६) विजयाविद्या
(७) अग्नि
(८) चण्डघण्टा
(९) षोढापञ्चक (लघुषोढा, महाषोढा, गुह्यषोढा, हंसषोढा तथा क्रमषोढा)
(१०) कामदेव
(११) सोम
(१२) कुल्लुकापञ्चक (१३) आर्द्रपटिका
(१४) शिवपञ्चाक्षर
(१५) अघोर
(१६) पाशुपत
(१७) सुदर्शन
(१८) जयदुर्गा
(१९) अमोघफलदा
(२०) यक्षि
(२१) पद्मावती
(२२) उद्भटाम्बा
(२३) वौद्धनाथ 
(२४) पार्श्वनाथ
(२५) तारिणी
(२६) यक्षिणी
(२७) मञ्जुघोष
(२८) महेश्वर
(२९) प्रत्यङ्गिरा 
(३०) नारसिंही 
(३१) अष्टभैरव
(३२) पञ्चकल्पलता
(३३) सर्वकामप्रदाविद्या
(३४) रक्तचामुण्डा
(३५) नित्यक्लिन्ना
(३६) राजवश्यकरा
(३७) खड्गरावण
(३८) लुलायखरशार्दूलकपिवश्यविद्या
(३९) धनुर्विद्या
(४०) अस्त्रविद्या
(४१) जलाग्निस्तम्भिनीविद्या
(४२) भयद्वादशहारिणीविद्या
इस क्रम से इतर ‘चीनाचारक्रम‘ भी है, जिसमे अन्य प्रकार से श्रीश्रीतारा की क्रमदीक्षा होती हैं। चीनक्रम पुनः पाँच प्रकार का है ।
(१) ब्रह्मचीनक्रम
(२) वीरचीनक्रम
(३) दिव्यचीनक्रम
(४) महाचीनक्रम
(५) निष्कलचीनक्रम
महाचीनक्रम पुनः दो प्रकार का है ।
(१) सकलमहाचीनक्रम – सुगतकुलसाधकों के लिए।
(२) निष्कलमहाचीनक्रम -ताराकुलसाधकों के लिए। 
ताराकुल का निष्कलमहाचीनक्रम श्रीकुल के समयाचार के साथ साम्य रखता हैं।
निष्कलमहाचीनक्रम का उपदेश महारुद्रनाथ ने शङ्करनाथ को किया।  शङ्करनाथ से महाचीननाथ ने कैलाश में उपदेश प्राप्त किया । महाचीननाथ से वशिष्ठमुनि ने निष्कलचीनाचार का उपदेश ग्रहण कर मानवों में इसका प्रचार किया। महाचीनक्रम की यह गुरुपरंपरा है । महाचीननाथ से बोद्धिसत्वों ने सकलमहाचीनक्रम का उपदेश प्राप्त कर बौद्धसिद्धों को इसका उपदेश किया । इन्ही सिद्धों से यह परम्परा लामाओं तक पहुंचीं । ताराकुल के साधकों के हितार्थ संक्षेप में महाचीनाचारतंत्र में उपदिष्ट निष्कलमहाचीनक्रम का वर्णन किया जाता हैं। निष्कलमहाचीनक्रम में बाह्यशौच वर्जित हैं ,मानसिक शौच का विधान हैं । निष्कलमहाचीनक्रम में मानसिकजप तथा मानस पूजन ही श्रेष्ठ है । मानसिक तर्पण ही स्वीकार हैं । आराधना के लिए कोई काल अशुभ नहीं है । दिन रात निशा महानिशा में कोई भेद नहीं होता । वस्त्र, आसन तथा स्थानशुद्धि का कोई नियम नहीं हैं । निष्कलमहाचीनक्रम के साधक का मन को निर्विकल्प और वासनहीन होना चाहिए । साधक चिंता तथा निन्दा का सर्वथा त्याग करे। मूलमंत्र के अतिरिक्त अन्य मंत्रो का जाप न करे ।  रात्रि में भोजनोपरान्त साधना करने का विधान है । मूल मंत्र से महानिशाकाल में बलि दे । जपस्थान में  महाशंख रखकर वा उसके ऊपर बैठकर जप करे। स्त्रीदर्शन करके साधना करे । ताम्बूल , दधि, मधु तथा यथा रूचि भोजन करे । तत्पश्चात् जप करे ।  सर्वदासंतुष्ट रहे । अपने आप को कृत कृत्य माने।
निष्कलमहाचीनसाधनाक्रम के द्वादशाङ्ग निम्न हैं ।
(१) प्रातकृत्य
(२) ऋष्यादिन्यास:
(३) करन्यासः
(४) अङ्गन्यास:
(५) वर्णन्यास
(६) व्यापकन्यास
(७) पीठन्यास:
(८) अन्तर्याग
(९) ध्यान
(१०) सोऽहंधारणा 
(११) जप
(१२) जपसर्मपण
ताराकुलसाधकों को तुलसी तथा हरिनामसंकीर्तन निषिद्ध है। इन दोनो प्रकार के क्रमों से अलग श्रीश्रीताराविद्या का काश्मीरक्रम भी हैं। इस दीक्षाक्रम में श्रीश्रीतारा के भैरव सद्योजात हैं ‌। परादेवीरहस्यतंत्र के ५३ वें पटल में कहा भी गया है-
सद्योजातस्तु तारायाः शिव इत्येवमीश्वरि ॥९.अ
काश्मीरक्रम में पञ्चताराओं की उपासना की जाती हैं।
(१) श्रीताराभट्टारिका
(२) श्रीतारिणीभट्टारिका
(३) श्रीउग्रताराभट्टारिका
(४) श्रीएकजटाभट्टारिका
(५) श्रीनीलसरस्वतीभट्टारिका
मंत्रकोश में भी कहा गया हैं-
तारापि तारिणी चैव एकजटापि तथैव च ।
नीलसरस्वती चैवमुग्रतारा प्रकीर्तिताः ॥
तारा भेदास्तु पञ्चैवमक्षोभ्येण प्रकाशिताः॥
काश्मीरक्रम के तन्त्रग्रंथ ‘भैरवसर्वस्व‘ के अनुसार भगवती तारा का मंत्र निम्न हैं ।
तारं व्योषं तथा कान्ता माया वाग्भवम् एव च ।
कूर्चं चैव महेशानि ह्यन्ते फट् ठद्वयं तथा ॥
काश्मीरक्रम के तन्त्रग्रंथ भैरवतन्त्र के अनुसार भगवती श्रीश्रीतारा का ध्यान निम्न हैं ।
अथ वक्ष्यामि ताराया ध्यानं भैरवतन्त्रके ।
देव्या भेदविहीनाया मुनिसाधक पूजिते ॥

देवीं पन्नगभूषितां हिमरुचिं शीतांशुशङ्खप्रभाम् ।
मुक्तारत्नपरीतकण्ठवलयां रक्ताम्बरां विभ्रतीम् ॥
शूलाब्जासिगदाधरां सुरगणैर्वैकुण्ठमुख्यैःस्तुताम् ।
नित्यं लोकत्रयैकरक्षणपरां तारां त्रिनेत्रां भजे ॥

काश्मीरक्रम के अनुसार तारायन्त्र का वर्णन निम्न हैं ।
परादेवीरहस्यतंत्रे-
अथ वक्ष्यामि ताराया यन्त्रोद्धारमनुत्तमम् ।
भोगमोक्षप्रदं देवि गोप्यं कुरु महेश्वरि ॥
बिन्दुस्त्रिकोणं च षडस्रयुक्तं
वृत्तं तथाष्टारमलं त्रिवृत्तम् ।
सभूपुरं चैकजटाविलासगेहं
मया यन्त्रमिदं प्रदिष्टम् ॥
एक बात विशेष उल्लेखनीय है कि तिब्बत तथा भोट देश में इक्कीस ताराओं की उपासना का प्रचार करने वाले बौद्धाचार्य सूर्यगुप्त (रविगुप्त) कश्मीर के निवासी थें। केरलदेश में भी क्षेत्रीयदेवी के साथ संयुक्तरूप से (syncretic form ) भगवती तारा की उपासना ‘नीलकेशी’ के स्वरूप में की जाती हैं । मलयालमन्त्रवादग्रन्थों मे ‘नीलकेशी’ उपासना का वर्णन मिलता हैं । मलयालक्षेत्रीयलोग देवी को ‘करिनीली’ के अभिधान से पुकारते हैं। भगवती तारा के महानीलक्रम, महाचीनक्रम तथा कश्मीरक्रम का वर्णन कर,मां भवतारिणी की वन्दना के साथ लेख का समापन किया जाता हैं ।