ताराकुलसाधकों का तुलसी तथा हरिनामसंकीर्तन निषेधनिर्णय

पूर्व में भगवती श्रीश्रीतारा के दीक्षाक्रम पर लिखे गए लेख में तुलसी तथा हरिनामसंकीर्तननिषेध की चर्चा की थीं । इस पर कई मित्रों ने प्रश्न किया तथा कुछ तथाकथित विद्वानों के द्वारा आपत्ति उठाई गई थी । इसलिए इस विषय पर शास्त्रप्रमाण सहित लेख लिख रहा हूं । ( तथाकथित विद्वान पूर्वपक्ष का शास्त्रप्रमाण सहित उत्तर देंगे इस प्रकार साशाय होकर लिख रहा हूं। )
तंत्रशिरोमणि रुद्रयामल में भगवती चण्डिका के लिए तुलसी का स्पष्ट निषेध किया गया हैं।
रुद्रयामले-
तुलसीघ्राणमात्रेण क्रुद्धा भवति चण्डिका ॥
तुलसी की गंधमात्र से देवी चण्डिका क्रुद्ध हो जाती हैं।
यहां चण्डिका पद देवीमात्र का उपलक्षण हैं। अर्थात् चण्डिका के विषय में कही बात तारादि स्वरूपों पर भी लागू होती हैं। आगे भी भगवान रुद्र तुलसी का सुंदरी विषयक निषेध करते हैं।
रुद्रयामले-
तुलस्या गन्धमाघ्राय क्रुद्धा भवति सुन्दरी ॥
रुद्रयामल में अन्यत्र गणपति के लिए भी तुलसी का निषेध किया गया हैं। 
रुद्रयामले-
तुलसी ब्रह्मरूपा च सर्वदेवमयी शुभा ।
सर्वदेवमयी सा तु गणेशस्य प्रिया नहि ॥
कालीतन्त्र के अष्टमपटल के श्लोक क्रमांक २२ में भी तुलसी के निषेध संबंधी प्रमाणवचन प्राप्त होते हैं।
कालीतंत्रे –
सुगन्धिश्वेतलोहित्यैःकुसुमैरर्चयेत् दलैः। बिल्वैर्मरुवकाद्यैश्च तुलसी वर्जितैः शुभैः॥(८.२२.)
कालीतंत्र के ही दशमपटल में कहा गया हैं –
यथातारा तथाकाली यथा नीलातथोन्मुखी ॥ (१०.१ब)
इस प्रकार भगवती काली तथा भगवती तारा में अभेद होने से कालीपरकनिषेध तारा पर भी लागू होता हैं। 
आगे दशम पटल के २०वें श्लोक में कहां गया हैं-
यत्र यत्र कालिकेति नाम संश्रुयते प्रिये ।
तत्र तारा विधानञ्च युते नात्र संशयः ॥(१०.२०)
जहां जहां कालिका पद होवे वहां मिलितभावेन तारा विधान का अनुष्ठान करना चाहिएं।  इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिएं।
यदि ये प्रमाण उन्हें अस्वीकार्य होवे तो भगवती तारा विषयक चीनाचारतंत्र के द्वितीय पटल के ३५वें श्लोक में भी इसी प्रकार का निषेध प्राप्त होता हैं ।
चीनाचारतंत्रे-
अपामार्गदलैर्भृंगैस्तुलसी वर्जितैः शुभैः॥(२.३५)
देवी भवतारिणी का बिल्व तथा मरुआ से अर्चन करे , परन्तु अपामार्ग, भृंगराज तथा तुलसी का वर्जन करें ।
मत्स्यसूक्त नामक आगमशास्त्र में भी इसी प्रकार का निषेध वचन प्राप्त होता हैं। 
मत्स्यसूक्ते –
सुगन्धिश्वेतलौहित्य कुसुमैरर्चयेत् कुलैः ।
बिल्वैर्मरुवकाद्यैश्च तुलसीवर्जितैः शुभैः॥
श्वेत तथा रक्तपुष्पों से शक्तिपूजा करें। बिल्व तथा मरूआ के पत्र से शक्तिपूजा करें परन्तु तुलसी का वर्जन करें ।
हरगौरीतंत्र में मालती तथा तुलसी का तारापूजा में निषेध किया गया हैं।
हरगौरीतंत्रे-
वर्जयेन् मालतीपुष्पं वर्जयेत् तुलसीदलम् ॥
त्रिशक्तिरत्न नामक आगम में कुछ इसी प्रकार का वचन प्राप्त होता हैं।
त्रिशक्तिरत्ने-
तुलसीमालतीवर्जं पुष्पं दद्यात् प्रसन्नधीः॥
कौलागम में भी कहा गया हैं।
भैरवीसुन्दरीकालीताराविघ्नविवस्वताम् ।
तुलसीवर्जिता पूजा सा पूजा सफला भवेत् ॥
भैरवी,सुन्दरी,काली,तारा, गणपति तथा सूर्य के पूजन मे तुलसी का वर्जन करें ।
रही बात हरिनामसंकीर्तननिषेध की तो तंत्रचूडामणि मे इस विषयक प्रमाण वाक्य मिलता हैं ।
वर्जयेद्विष्णुनामञ्च वर्जयेत्तुलसीदलम् ।
वर्जयेन्मालतीपुष्पं वर्जयेदन्यपूजनम् ॥
अर्थात् ताराकुल का साधक विष्णु का नाम, तुलसीपत्र, मालतीपुष्प तथा अन्य देवताओं के पूजन का वर्जन करें । तन्त्रांतर में भी  हरेर्नाम न गृह्णीयात् ॥ इस प्रकार का विधि वाक्य प्राप्त होता हैं । अंत में सुधिजनों तथा सामान्य पाठकों से इतना ही कहना चाहूंगा की ताराकुल के साधकों को तुलसी तथा हरिनामसंकीर्तननिषेध शास्त्रसम्मत हैं , मैंने द्वेषवश अथवा प्रमाद के कारण ऐसा नहीं लिखा हैं …… अस्तु ।
ॐ ताराम्बार्पणमस्तु ॥