मध्यकालीन उत्तर भारत के विशिष्ट शाक्तसाधकों के मध्य श्रीप्रत्यङ्गिरा देवी की उपासना का चलन था । इन साधकों ने श्रीप्रत्यङ्गिरा उपासना विषयक अनेकों ग्रंथों की रचनाएं प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में की । इन्हीं कल्पग्रंथो में से एक ‘श्रीप्रत्यङ्गिरामहाविद्याकल्पः’ की मातृका अवलोकन हेतु एक जैन मित्र से प्राप्त हुईं। यह मातृका श्रीजैन के परिवार की व्यक्तिगत निधि है जो उन्हे अपने पूर्वपुरुषों के द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त हुईं। यह मध्यकालीनकल्प भगवती प्रत्यङ्गिरा की उपासना की अत्यन्त गोपनीय क्षिप्रसिद्धिप्रदविधि का निरूपण करता हैं । इस कल्प में प्राकृतभाषा में 76 गाथाएं हैं जो दो भागों में विभाजित हैं। प्रथम भाग में देवी प्रत्यङ्गिरा के मंत्रोद्धार ,यंत्रोद्धार , आवरण तथा मंत्र प्रयोगों का वर्णन प्राप्त होता हैं । देवी के आवरण में भैरव, गणपति, , सिद्धिचामुण्डा , क्षेत्रपाल , प्रतिहार, अष्टमातृका तथा अष्ट कुलनाग हैं । देवी प्रत्यङ्गिरा रक्तवर्णा, पंचदशनेत्रा, पंचवक्त्रा एवं अष्टादशभुजा हैं । देवी अपनी भुजाओं में क्रमशः खड्ग, वर, शङ्ख, मुद्गर, कर्तृ, शक्ति, त्रिशूल, कुन्त, बाण, अभय, डमरू, घण्टा, दण्ड, कपाल, खट्वाङ्ग , पाश, धनुष तथा करवाल धारण करती हैं । देवी नागाभरण तथा मुंडमाला धारण करती हैं । देवी ने अपने श्रीचरणकमल ब्रह्ममुण्ड तथा विष्णुमुण्ड पर रखें हुए हैं । इस भाग में प्रत्यङ्गिरा मन्त्र के द्वारा षट्कर्म साधन का विधान दिया गया हैं । द्वितीयभाग में प्रत्यङ्गिराहोम की विधि का वर्णन किया गया हैं । प्रत्यङ्गिराहोम के द्वारा भीषण से भीषण शत्रु के संहार की गोपनीय विधि इस कल्प में प्राप्त होती हैं । 60 से 75 तक की गाथाओं में विविध औषधियों तथा होमद्रव्यों के द्वारा मनोकामनाओं की पूर्ति साधन का वर्णन प्राप्त होता हैं । अंतिम गाथा में कल्पकर्ता आचार्य भद्रदेवगणि ने अपना तथा अपने गुरु श्रीदेवेन्द्रसुरी का नामोल्लेख किया हैं ।

शारदीय नवरात्रि पर्व की शुभकामनाओं सहित ।