यह स्तोत्र श्रीब्रह्मानन्दगिरि कृत ‘श्रीतारारहस्यम्’ पर गौड़देश के शंकर नामक आचार्य की ‘ वृत्ति’ में उद्धृत किया गया है। इस स्तोत्र में श्रीश्रीतारा के स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया गया है। ताराकुल उपासकों में इस स्तोत्र का विशिष्ट महत्व है। श्रीश्रीतारा मां के सम्मुख इस स्तोत्र का एकाग्र चित्त होकर पाठ करने पर साधक त्रैलोक्य मोहन सिद्धी सहज ही प्राप्त कर लेता है। इस स्तोत्र का पाठ करने वाला ताराकुल साधक कभी दुर्गति प्राप्त नहीं करता। तारा मां के प्रसाद से धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय साधक को सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। कतिपय विद्वान गौडीय शंकर (गौडीय शङ्कराचार्य) को इसका रचयिता मानते हैं वहीं अन्य सुधी जन आद्य शङ्कराचार्य को इसका रचयिता मानते हैं। इस स्तोत्र का पाठ करने से तारकुल के साधकों पर तारा मां का अनुग्रह हो इसी कमाना से यह स्तोत्र यहां उद्धृत किया जा रहा है ।
এই স্তোত্রটি শ্রীব্রহ্মানন্দগিরির ‘শ্রীতাররহস্যম’-এ গৌদেশের শঙ্কর নামে আচার্যের ‘বৃত্তি’তে উদ্ধৃত হয়েছে। এই স্তোত্রে শ্রীশ্রিতার রূপ বিশদভাবে বর্ণিত হয়েছে। তারাকুল উপাসকদের মধ্যে এই স্তোত্রটির বিশেষ গুরুত্ব রয়েছে। একাগ্র চিত্তে শ্রী শ্রীতারা মায়ের সামনে এই স্তোত্র পাঠ করলে, সাধক সহজেই ত্রৈলোক্য মোহন সিদ্ধি লাভ করেন। যে তারাকুল সাধক এই স্তোত্র পাঠ করে সে কখনো দুঃখ পায় না। তারা মায়ের প্রসাদ থেকে ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষের রূপ পুরুষার্থ চতুষ্টয় সাধক সহজেই পান। কিছু পণ্ডিত গৌড়ীয় শঙ্করকে (গৌড়ীয় শঙ্করাচার্য) এর রচয়িতা হিসাবে বিবেচনা করেন, অন্যরা আদ্য শঙ্করাচার্যকে এর লেখক হিসাবে বিবেচনা করেন। এই স্তোত্রটি পাঠ করে তারাকুলের ভক্তরা মা তারার আশীর্বাদ পেতে পারেন, তাই এই স্তোত্রটি এখানে উদ্ধৃত করা হচ্ছে।

॥ श्रीश्रीतारास्वरूपध्यानस्तवः ॥
ज्वलत्पावकज्वालजालातिभास्वत्
चितामध्यसंस्थां सुपुष्टां मुखर्वाम् ।
शवं वामपादेन कण्ठे निपीड्य
स्थितां दक्षिणेनाङ्घ्रिणाङ्घ्री निपीड्य ॥१॥
बृहत्तुङ्गलम्बोदरीं मेघवर्णाम्
समुत्तुङ्गपीनस्तनाभोगरम्याम् ।
जवारागरज्यत्सुवृत्तत्रिणेत्राम्
ललज्जिह्वया दंष्ट्रया भीषणास्याम् ॥२॥
लसद्द्दीपिचर्मावृताङ्गीं स्मितास्याम्
जटाजूटमध्यस्थितेन्दीवरालीम् ।
शिरोदेशभास्वत्पिषङ्गाभसर्पाम्
जटाजूटमध्यस्थिताक्षोभ्यमूर्तिम् ॥३॥
मिथः केशबद्धां शिरश्छिन्नसम्यग्
गलान्दोलितां मानवीं मुण्डमालाम् ।
दधानाञ्च पञ्चाशदाख्यानसंख्याम्
शिरश्चिन्नमुण्डावली निर्मिताङ्गीम् ॥४॥
समाच्छिन्न मांसोत् कराघार्य सम्यक्
स्फुरत्पाणिना धारयन्तीं महासिम् ।
करे वाम ईषत्स्फुरद्रक्तनाल
स्फुरन्नीलपङ्केरूहं धारयन्तीम् ॥५॥
करे सव्य उच्चैरधस्ताद्दधानां
सितां कर्तृकां वामपाणौ कपालम् ।
जगद्वर्तिसंजात जाड्याभिपूर्णं
लसत्कर्तृकाधारया खण्डयन्तीम् ॥६॥
घनाभाहिवद्धं जटाजूटमुच्चैः
जवारागनागैर्लसत्कुण्डलाढ्याम् ।
लसद्धूम्ररोचिर्महानागकाय
स्फुरच्चरुकेयूरशोभाभिरामाम् ॥७॥
सुवर्णाभनागोल्लसत्कङ्कणेन
स्फुरन्तीं लसच्छेतनागाभिरामाम् ।
शरीरेण दूर्वादलश्यामलाहि
कृतं चारु यज्ञोपवीतं दधानाम् ॥८॥
दधानाञ्च कुन्दाभ नागेन सम्यक्
कृतं शुभ्रकाटेय पावित्रसूत्रम् ।
महापाटलाभेन नागेन वृत्ताम्
विभूषाञ्च पादद्वये धारयन्तीम् ॥९॥
विचित्रास्थिमालं कपालं करालं
ललाटे च पञ्चान्वितं धारयन्तीम् ।
चिरं चिन्तयामीदृशीं चारुरूपा
ममेयामदोषामनाद्यामपाराम् ॥१०॥
सुरश्रेणिमौलिप्रभारञ्जिताङ्घ्रिम्
नताशेषयोषिद्गणेष्टार्थदात्रीम् |
यदीयप्रसादादिदं विश्वजातम्
जनः प्राप्नुयान्मोदते शश्वदेव ॥११॥
यदेमं स्तवं यः पठेदेकचित्तो
वशस्तस्य लोको भवेत्तत्र ननम् ।
न दारिद्र्यपापे न वा दुर्गतिः स्यात्
लभेतापि मोक्षन्तथा धर्मकामी ॥१२॥
॥ श्रीशङ्कराचार्य कृतं स्तवरूपध्यानं समाप्तम् ॥
श्रीश्रीतारातारिण्यार्पणमस्तु॥