श्रीस्वच्छंदभैरव

भैरवागमों में वर्णित नाना भैरवमूर्तियों में ‘स्वच्छंदनाथ’ का प्राधान्य है। इनकी उपासना विशेष रुप से कश्मीर देश में होती थी। दक्षिणस्रोत के आगमों में ‘स्वच्छभैरवतन्त्र’ का प्राधान्य है। स्वच्छंदभैरवनाथ के आठ स्वरुप प्रधान है । इन आठ स्वरूपों का सम्बंध विविध स्रोत, आम्नाय तथा दीक्षा क्रमों से है। विभिन्न परंपराओं में इन आठ स्वरूपों की उपसाना की जाती है।
१. निष्कलस्वच्छन्दभैरव
२. सकलस्वच्छन्दभैरव
३. ललितस्वच्छन्दभैरव
४. कोटराक्षस्वच्छन्दभैरव
५. महास्वच्छन्दभैरव
६. व्याधिभक्षस्वच्छन्दभैरव
७. शिखास्वच्छन्दभैरव
८.वृद्धस्वच्छन्दभैरव

परवर्ती आम्नायक्रम के अनुसार निष्कल,सकल,कोटराक्ष,व्याधिभक्ष तथा महास्वच्छन्द
स्वरूपों की साधना दक्षिणाम्नाय से होती है। ललितस्वच्छन्द तथा शिखास्वच्छन्द पश्चिमाम्नाय में पूजित हैं। वृद्धस्वच्छन्दनाथ उत्तराम्नाय तथा दक्षिणाम्नाय उभय आम्नायों में उपासित होते हैं।

वर्तमान में भी साधक समाज अपनी- अपनी परम्परा के अनुरूप स्वच्छंदभैरवनाथ का यजन करते हैं। वर्तमान काशमीरक (काश्मीर देश के ब्राह्मण) पूर्वाचार्यों की परिपाटी के अनुरूप मृत्तिका के विशेष लिंग अथवा चललिंग में स्वच्छंददेव का अर्चन शिवरात्रि पर्व (हैरत) पर किया करते हैं।

वस्तुतः दीक्षा आदि के समय पंचवर्ण की रज से मण्डल बनाकर उसमें स्वच्छंददेव का यजन किया जाता था । स्वच्छतन्त्र ९.१२-१६ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। नवतत्त्व दीक्षा के उपलक्ष्य में नवनाभमण्डल अंकित किया जाता था। विकल्प से इनका अर्चन स्वयंभू लिंग में किया जा सकता है। विशेष ‘ श्रीमद् स्वच्छंद’ में देखना चाहिए।


( क्रमशः)

ब्रह्मादिकारणातीतं स्वशक्तयानन्दनिर्भरम् । नमामि परमेशानं स्वच्छन्दं वीरनायकम् ॥

कश्मीर का क्रमदर्शन – १

आगामी पुस्तक

‘ कश्मीर का क्रम दर्शन’ एक शोध परक ग्रन्थ है जिसके लेखन मैं दो वर्षों से अधिक समय लगा। भगवती श्रीसंकर्षिणी एवं पूर्वाचार्यों के अनुग्रह बल से इस पुस्तक को आकार देना सम्भव हुआ। लेखक के लिए यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि पुस्तक का प्राक्कथन शैवयोगिनी माता ‘प्रभादेवी’ जी द्वारा लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखन का उद्देश्य जनसामान्य को ‘ कालीनय’ का परिचय करवाना है।

भारतीय आचार्यों की परम्परा के अनुरुप प्रारम्भ में ‘अनुबंधचतुष्टय’ का लेखन किया गया है जो पुस्तक की विषयवस्तु, प्रयोजन, सम्बंध तथा अधिकार का वर्णन करता है। पुस्तक में क्रमनय के इतिवृत्त ताथा क्रम की विविध शाखाओं की चर्चा की गई है। महानयप्रकाश, द्वादशकालीपूजाविधि:, कालीकुलक्रमार्चापद्धति, जयद्रथयामल आदि ग्रंथों के अनुसार क्रमार्चा ( श्रीसंकर्षिणी तथा द्वादश कालियों का याग) का निरूपण किया गया है।१२/१३ अथवा १६/१७ कालियों को संख्या को लेकर पारंपरिक रुप से चलते आए हुए प्रश्न का क्रमागमों के आधार पर समन्वयात्मक उत्तर देने का प्रयास किया गया है।

आगामी अध्यायों में क्रमदर्शन में दीक्षा तथा सपर्या का सप्रमाण वर्णन किया गया है। अपर अध्याय में नेपाल एवं काश्मीर की शाक्त परम्परा पर क्रमनय के प्रभाव को उल्लिखित किया है। पाठकों के लाभार्थ परिशिष्ट में क्रमसद्भाव में वर्णित भैरवकृत ‘कालसंकर्षिणीस्तोत्र’ का भाषाभाष्य दिया गया है।
( क्रमश:)