कश्मीर की एक दुर्लभ मातृका ( श्रीशम्भूनाथ कौल जी के संग्रह में ) में महार्थेश्वर-महार्थेश्वरी का ध्यान वर्णित किया गया है। महार्थेश्वर भगवान् महाभैरव का ही मूर्त्यंतर है वहीं महार्थेश्वरी सत्रह अक्षरों की विद्या से उपासित श्री कालसंकर्षिणी है। विशिष्ट क्रमार्चा में महार्थयामल का अर्चन वामविधि से उत्तराम्नाय के साधक किया करते है। अस्तु…।
यह स्तोत्र श्रीब्रह्मानन्दगिरि कृत ‘श्रीतारारहस्यम्’ पर गौड़देश के शंकर नामक आचार्य की ‘ वृत्ति’ में उद्धृत किया गया है। इस स्तोत्र में श्रीश्रीतारा के स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया गया है। ताराकुल उपासकों में इस स्तोत्र का विशिष्ट महत्व है। श्रीश्रीतारा मां के सम्मुख इस स्तोत्र का एकाग्र चित्त होकर पाठ करने पर साधक त्रैलोक्य मोहन सिद्धी सहज ही प्राप्त कर लेता है। इस स्तोत्र का पाठ करने वाला ताराकुल साधक कभी दुर्गति प्राप्त नहीं करता। तारा मां के प्रसाद से धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय साधक को सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। कतिपय विद्वान गौडीय शंकर (गौडीय शङ्कराचार्य) को इसका रचयिता मानते हैं वहीं अन्य सुधी जन आद्य शङ्कराचार्य को इसका रचयिता मानते हैं। इस स्तोत्र का पाठ करने से तारकुल के साधकों पर तारा मां का अनुग्रह हो इसी कमाना से यह स्तोत्र यहां उद्धृत किया जा रहा है ।
এই স্তোত্রটি শ্রীব্রহ্মানন্দগিরির ‘শ্রীতাররহস্যম’-এ গৌদেশের শঙ্কর নামে আচার্যের ‘বৃত্তি’তে উদ্ধৃত হয়েছে। এই স্তোত্রে শ্রীশ্রিতার রূপ বিশদভাবে বর্ণিত হয়েছে। তারাকুল উপাসকদের মধ্যে এই স্তোত্রটির বিশেষ গুরুত্ব রয়েছে। একাগ্র চিত্তে শ্রী শ্রীতারা মায়ের সামনে এই স্তোত্র পাঠ করলে, সাধক সহজেই ত্রৈলোক্য মোহন সিদ্ধি লাভ করেন। যে তারাকুল সাধক এই স্তোত্র পাঠ করে সে কখনো দুঃখ পায় না। তারা মায়ের প্রসাদ থেকে ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষের রূপ পুরুষার্থ চতুষ্টয় সাধক সহজেই পান। কিছু পণ্ডিত গৌড়ীয় শঙ্করকে (গৌড়ীয় শঙ্করাচার্য) এর রচয়িতা হিসাবে বিবেচনা করেন, অন্যরা আদ্য শঙ্করাচার্যকে এর লেখক হিসাবে বিবেচনা করেন। এই স্তোত্রটি পাঠ করে তারাকুলের ভক্তরা মা তারার আশীর্বাদ পেতে পারেন, তাই এই স্তোত্রটি এখানে উদ্ধৃত করা হচ্ছে।
श्रीभगवद्गीताशास्त्र की ‘गीतार्थसंग्रह’ टीका महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त की आरम्भिक कृति हैं। भगवद्गीता की इस टीका में आचार्य भट्टेन्दुराज की परम्परा से प्राप्त रहस्यार्थ का उद्घाटन श्रीअभिनवगुप्त ने किया हैं। आचार्य ने गीता के श्लोकों में निहित महार्थतत्त्व का प्रकाशन इस कृति में किया हैं। इस ग्रंथ की रचना श्रीअभिनवगुप्त ने कालीकुलक्रमाचार्य श्रीभूतिराज के चरणकमलों में बैठकर अपने मित्र वा बान्धव लोटक के निमित्त की थीं । श्रीअभिनवगुप्त ने गीतार्थसङ्ग्रह के एकादश अध्याय में अपने देवीस्तोत्रविवरण का उल्लेख किया हैं ।
उक्त देवीस्तोत्रविवरण को लेकर विद्वानों ने दो प्रकार के मत उद्धृत किये हैं। प्रथमपक्ष के अनुसार श्रीअभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धनाचार्य कृत देविस्तोत्र पर विवृति लिखी थी जिसका उल्लेख उन्होंने यहां पर किया हैं । यह स्तोत्र तो प्राप्त होता हैं परंतु विवृति उपलब्ध नहीं होती । काव्यमालागुच्छिका सीरीज के ९वें खंड में यह स्तोत्र आचार्य कय्यट की टीका के साथ प्रकाशित हैं। इस स्तोत्र का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह स्तोत्र काव्य की दृष्टि से तो अत्यन्त समृद्ध है परंतु इसकी विषयवस्तु में क्रमदर्शन के तत्त्व का नितान्त आभाव हैं। यह स्तोत्र दार्शनिक न होकर पौराणिक तथा काव्यप्रयोगात्मक अधिक प्रतीत होता हैं। शेष रहीं बात आचार्य कय्यट कृत व्याख्या की तो, उन्होंने अपनी व्याख्या में किसी भी स्थान पर इस स्तोत्र को क्रमनय से संबंधित नहीं बताया हैं। उनकी व्याख्या में भी क्रमतत्त्व का नितान्त आभाव दृष्टिगोचर होता हैं ।
अपरपक्ष के अनुसार सिद्धनाथ कृत क्रमस्तोत्र का ही अपरनाम देवीस्तोत्र हैं । क्रमनय को ‘देवीनय‘ वा ‘देविकाक्रम‘ के अभिधान से भी जाना जाता है अतः क्रमस्तोत्र का अपरनाम देवीस्तोत्र होना समीचीन ज्ञात होता हैं । गीतार्थसंग्रह में उल्लेखित ‘देवीस्तोत्रविवरण’ वस्तुतः ‘क्रमकेलि’ का ही द्वितीय अभिधान हैं । महार्थमंजरी की अंतिमगाथा की परिमल व्याख्या में भी इस ओर संकेत किया गया हैं। महेश्वरानंद ने क्रमकेलि में निहित गीता के क्रमार्थ को ३८ कारिकाओं में बद्धकर अपने व्याखान में समुचित स्थान दिया हैं। अतः द्वितीयपक्ष अधिक समुचित तथा समीचीन जान पड़ता हैं ।
उपरोक्त स्तोत्र श्रीशिवपुराण के लकुलीशमाहात्म्य के तृतीयाऽध्याय से उद्धृत किया गया हैं । इस स्तोत्र में ऋषिगणों द्वारा भगवान शिव के २८ वें अवतार लकुलीश कि स्तुति की गई हैं । इस स्तोत्र का जो भी जन लकुलीशशिव के सम्मुख पाठ करेंगे वे समस्त पापों से मुक्त होकर शिवलोक की प्राप्ति करेंगे। इस स्तोत्र के नित्य पाठ से भोगार्थी को भोग तथा योगार्थी को योग की प्राप्ति होती हैं। जो भी जन इस स्तोत्र का पाठ करेगा उसके अभीष्ट की सिद्धि होगी तथा अंतकाल में शिवपद की प्राप्ति होगी । इतिशिवम् ॥
क्रमनय के साधकों के मध्य श्रीसंकर्षिणी की विभिन्न मूर्तियों की उपासना का चलन हैं । देवी कालसंकर्षिणी के विभिन्न अमूर्त स्वरूपों में सप्तकोटीश्वरी प्रधान हैं। महाव्योमवागीश्वरी तथा घोरचण्डा इनके अपर नाम हैं । देवी सप्तकोटीश्वरी का कल्प जयद्रथयामल के तीसरे तथा चतुर्थ षट्क में प्राप्त होता हैं । काश्मीरपरम्परा की चार प्रत्यंगिराओ में देवी सप्तकोटीश्वरी संगणित हैं । देवी के अमूर्त ध्यान में इन्हें सप्तमुण्डों पर आसीन बताया गया हैं ।
देवी महाकाली (सप्तकोटीश्वरी) के मुख से सप्तकोटिमंत्रों का उद्भव हुआ है। देवी सप्तकोटीश्वरी का साधक इन का ज्ञान सप्ताक्षरी विद्या के जप से प्राप्त कर सकता हैं। सप्ताक्षरीविद्या होने से ही सप्त मुद्राओं के बंधन का विधान महार्थसंप्रदाय में किया गया हैं।
सप्तकोटीश्वरी कल्पानुसार इनकी अतिरहस्य गायत्री का केवल 8 बार जप करने से साधक के ब्रह्महत्या, सुरापानादि पंचमहापातकों का नाश होता हैं। सप्तकोटीश्वरीगायत्री का एक बार पाठ करने मात्र से साधक के उपपतकों का नाश होता हैं । शतबार जप करने से साधक सोमपुत, अग्निपुत तथा मंत्रपुत होता हैं। वैदिकी गायत्री के साथ सम्मेलन कर जप करने से ब्रह्मदण्डादिप्रयोगों में क्षिप्रसिद्धि प्राप्त होती हैं ।
देवी सप्तकोटीश्वरी की उपासना करने से कुहुकों का नाश होता हैं । भगवती अपने साधको के समस्त दुःखों का नाश करती हैं । श्रीजयद्रथयामल में कहा भी गया है-
देवी सप्तकोटीश्वरी की सप्ताक्षरी विद्या का जप करने से साधक काव्य, ज्योतिष,व्याकरण तथा रहस्य शास्त्रों का ज्ञान स्वतः ही प्राप्त कर लेता हैं। श्रीजयद्रथयामल में कहा भी गया है-
काव्यं दैवज्ञतां चैव महाव्याकरणानि च । देवी पूजन मात्रेण लभते नात्र संशयः ॥
देवी सप्तकोटीश्वरी के साधन में वर्णन्यास, मुण्डभङ्गीन्यास, दण्डभङ्गीन्यास, धारान्यास तथा कुलक्रम न्यास को करना अत्यन्त आवश्यक है । इन न्यासों को करे बिना जो सप्तकोटीश्वरी का साधन करता है वह योगिनियों का पशु होता है। नेपालमण्डल से प्राप्त सप्तकोटीश्वरीपूजापद्धति की मातृका में इन न्यासों का विशद वर्णन प्राप्त होता है जो जयद्रथयामल के सप्तकोटीश्वरीकल्प में प्राप्त नहीं होता हैं। संभवतः पद्धतिकार के सम्मुख सप्तकोटीश्वरीकल्प का कोई अन्य पाठ था जो वर्तमान जयद्रथयामल में प्राप्त नहीं होता अथवा पद्धतिकार तंत्रान्तर से इनको उद्धृत करता हैं । भगवती सप्तकोटीश्वरी का साधन विजनवन, एकान्त स्थल अथवा देवीमंदिर में ही करना चाहिए , ऐसा करने से साधक सर्वसौभाग्य को प्राप्त करता हैं। भगवती की सप्ताक्षरी विद्या का साधन करने वाला साधक अन्त काल में परमपद को प्राप्त करता है तथा इहलोक में उत्तमस्त्री, धन , विद्या तथा रहस्यों को प्राप्त करता हैं । इस विद्या का साधन करने वाले साधक का कोई द्वेषी नहीं होता। इनका साधक जहां कहीं भी निवास करता है वहां अकाल, दुर्भिक्ष, व्याधि तथा अपमृत्यु नहीं होती । श्रीजयद्रथयामल में तो यहां तक कहा गया है कि सप्तकोटीश्वरी के साधक को संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं है, देवी के कृपा प्रसाद से उसकी समस्त कामनाएं सिद्ध होती हैं।
यत्किञ्चिद्भुवने वस्तु विद्यतेर्घ्यं सुरेश्वरि । तश्चेत्कामयते साक्षाल्लभते नात्र संशयः ॥
भगवती महाव्योमवागीश्वरी जगदम्बा सप्तकोटीश्वरी के चरणद्वन्द्व की वन्दना करते हुए लेख समाप्त किया जाता हैं । ॐ शिवमस्तु ॥
मध्यकालीन उत्तर भारत के विशिष्ट शाक्तसाधकों के मध्य श्रीप्रत्यङ्गिरा देवी की उपासना का चलन था । इन साधकों ने श्रीप्रत्यङ्गिरा उपासना विषयक अनेकों ग्रंथों की रचनाएं प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में की । इन्हीं कल्पग्रंथो में से एक ‘श्रीप्रत्यङ्गिरामहाविद्याकल्पः’ की मातृका अवलोकन हेतु एक जैन मित्र से प्राप्त हुईं। यह मातृका श्रीजैन के परिवार की व्यक्तिगत निधि है जो उन्हे अपने पूर्वपुरुषों के द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त हुईं। यह मध्यकालीनकल्प भगवती प्रत्यङ्गिरा की उपासना की अत्यन्त गोपनीय क्षिप्रसिद्धिप्रदविधि का निरूपण करता हैं । इस कल्प में प्राकृतभाषा में 76 गाथाएं हैं जो दो भागों में विभाजित हैं। प्रथम भाग में देवी प्रत्यङ्गिरा के मंत्रोद्धार ,यंत्रोद्धार , आवरण तथा मंत्र प्रयोगों का वर्णन प्राप्त होता हैं । देवी के आवरण में भैरव, गणपति, , सिद्धिचामुण्डा , क्षेत्रपाल , प्रतिहार, अष्टमातृका तथा अष्ट कुलनाग हैं । देवी प्रत्यङ्गिरा रक्तवर्णा, पंचदशनेत्रा, पंचवक्त्रा एवं अष्टादशभुजा हैं । देवी अपनी भुजाओं में क्रमशः खड्ग, वर, शङ्ख, मुद्गर, कर्तृ, शक्ति, त्रिशूल, कुन्त, बाण, अभय, डमरू, घण्टा, दण्ड, कपाल, खट्वाङ्ग , पाश, धनुष तथा करवाल धारण करती हैं । देवी नागाभरण तथा मुंडमाला धारण करती हैं । देवी ने अपने श्रीचरणकमल ब्रह्ममुण्ड तथा विष्णुमुण्ड पर रखें हुए हैं । इस भाग में प्रत्यङ्गिरा मन्त्र के द्वारा षट्कर्म साधन का विधान दिया गया हैं । द्वितीयभाग में प्रत्यङ्गिराहोम की विधि का वर्णन किया गया हैं । प्रत्यङ्गिराहोम के द्वारा भीषण से भीषण शत्रु के संहार की गोपनीय विधि इस कल्प में प्राप्त होती हैं । 60 से 75 तक की गाथाओं में विविध औषधियों तथा होमद्रव्यों के द्वारा मनोकामनाओं की पूर्ति साधन का वर्णन प्राप्त होता हैं । अंतिम गाथा में कल्पकर्ता आचार्य भद्रदेवगणि ने अपना तथा अपने गुरु श्रीदेवेन्द्रसुरी का नामोल्लेख किया हैं ।
जनसाधारण से लेकर सिद्धसाधकों के मध्य कुंजिका स्तोत्र के पाठ की परम्परा रही हैं । विभिन्न आम्नायॊं के उपासकगण अपनी-अपनी आम्नाय नायिका के प्रीत्यर्थ सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र का पाठ चण्डीपाठाङ्गभूत तथा स्वतंत्ररूप से किया करतें हैं । साथ ही महाविद्या उपासकों के मध्य अपनी इष्ट महाविद्या के कुञ्जिकास्तोत्र के पाठ की पुरातन परम्परा हैं । ऊर्ध्वाम्नाय तथा पूर्वाम्नाय के उपासक ‘रुद्रयामलोक्तसिद्धकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं । वहीं दक्षिणाम्नाय के उपासक ‘कालीतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं ।पश्चिमाम्नायोपासकों के मध्य ‘गौरीतन्त्रोक्तकुब्जिकाकुञ्जिकास्तोत्र‘ के पाठ का चलन हैं । उत्तराम्नाय के साधकवर ‘डामरतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ उत्तराम्नयेशी के प्रीत्यर्थ करते हैं । महाविद्याक्रम में आद्या के उपासक ‘कालीतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं। नक्षत्रविद्या के उपासक ‘महाचीनतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का परायण किया करता हैं। श्रीबगलामुखी के उपासक ‘बगलातन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं । धूमावती साधकों का अपना कुञ्जिकास्तोत्र हैं । श्रीविद्या की एक परम्परा में ‘बृहदमहासिद्धकुञ्जिकास्तोत्र’के पाठ का प्रचलन हैं ।विभिन्न परम्पराओं तथा आम्नायों में प्रचलित कुञ्जिकास्तोत्र उन परंपराओं में प्रचलित विशिष्ट चण्डीपाठ की ओर भी संकेत करता हैं । भगवती के पाद युगलों की वन्दना कर लेख समाप्त किया जाता हैं।
विभिन्न आम्नायों के उपसकों के मध्य प्रसन्नपूजा के समय कर्पूरस्तोत्र का पाठ कर पुष्पाञ्जलि देने का प्रचलन हैं । इसी क्रम में उत्तराम्नाय के साधकगण अत्यन्त दुर्लभ व गोपनीय सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र का पारायण किया करते हैं। स्रगधारा छन्द में निबद्ध यह स्तोत्र १९ मंत्रो वाला हैं। यह स्तोत्र अपने भीतर उत्तराम्नाय के गूढ़ रहस्यों को गर्भित किए हुए हैं । सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र की पुष्पिका के अनुसार यह स्तोत्र रुद्र्यामलतंत्र के उत्तरखंड में उपलब्ध होता हैं । इस स्तोत्र में प्रत्यक्षरूप से भगवती गुह्यकाली तथा भगवती सिद्धिलक्ष्मी की स्तुति की गईं हैं वहीं परोक्षरूप से भगवती कालसंकर्षिणी भट्टारिका की ।अथर्वणश्रुति में कहा भी गया है –
परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः॥
गोपथब्राह्मण १,१.१
यह स्तोत्र इन तीनों देवीस्वरूपों में अद्वैतभावना का प्रतिपादन करता हैं। इस स्तोत्र के प्रथम तीनमंत्रो में भगवती गुह्यकाली की षोडशाक्षरीविद्या का उद्धार तथा इस विद्या के जप की फलश्रुति का वर्णन किया गया हैं । वहीं पर कहा भी गया है-
अर्थात् भगवती गुह्यकाली की षोडशाक्षरीविद्या जप मात्र से मोक्ष को देने वाली हैं एवं श्रवणमात्र से आयु तथा आरोग्य को प्रदान करती हैं । अगले मंत्र “कालीं जंबूफलाभां ………………” में भगवती कालसंकर्षिणी भट्टारिका का अमूर्त ध्यान दिया गया हैं ।
अगले दो मंत्रो में भगवती गुह्यकाली की भरतोपासिताविद्या का उद्धार किया गया हैं । सातवें मंत्र में भगवती गुह्यकाली के दशवक्त्रा दशभुजा स्वरूप का वर्णन दिया गया हैं । आठवें मंत्र में देवदुर्लभ भगवती सिद्धिलक्ष्मी के नवाक्षरीमंत्र का उद्धार बताया गया हैं। नवें मंत्र में भगवती सिद्धिलक्ष्मी के पंचवक्त्रा दशभुजा स्वरूप का ध्यान बताया गया हैं। वहीं भगवती सिद्धिलक्ष्मी के ध्यान की फलश्रुति का भी वर्णन दिया गया हैं –
अगले मंत्रो में उपरोक्त विद्याओं के यंत्रोद्धार दिए गए हैं जो कि गुरुगम्य हैं। तेरहवें तथा चौदहवें मंत्रो में दूतीयाग का अत्यन्त सांकेतिक भाषा में वर्णन किया हैं। अगले मंत्र में उपरोक्त विद्याओं के पुरूश्चरण का विधान प्रकाशित किया गया हैं। सोलहवें मंत्र में बलिपशु तथा खड्गसिद्धि का विधान बताया गया हैं। अगले दोनों मंत्र इन विद्याओं की क्षिप्रसिद्धि प्रदान करने वाले कुलप्रयोग का वर्णन करते हैं। अंतिम मंत्र में सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र के पाठ की फलश्रुति का वर्णन किया गया हैं , वहीं कहा भी गया हैं जो साधक पूजा के अन्त में प्रसन्नचित्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं वह शीघ्र ही जगदम्बा के अमृतमय चरणकमलरूप मधुको प्राप्त कर देवी का प्रियतर हो जाता हैं।
पठेद् यः पूजांते प्रमुदित मनो साधकवरः । स ते पादाम्भोजामृत मधुलिहस्यात प्रियतरः॥
१९. ब
भगवती सिद्धिलक्ष्मी की वन्दना कर लेखनी को विराम दिया जाता हैं ।
karpUrastotra have its special place among various kind of tAntrika stotras. sAdhakas of different amnAyas recite karpUrastotra of their amnAyanAyikA . sAdhakas of dakShiNAmnAya recite kAlIkarpUrastotra while siddhilakShmIkarpUrastotra is recited by sAdhakas of uttarAmnAya . UrdhvAmnAya upAsakas declaims sundarIkarpUrastotra and sAdhakas of adharamAmnAya recite tArAkarpUrastotra. kubjikAkarpUrastotra is declaimed by sAdhakas of the pashchimAmnAya.
This stotra is heighly esoteric in nature with various secrets in every single verse. It is passed down by master to qualified deciples who undergoes practice of western currents ( pashchimAmnAya ) of goddess kubjikeshvarI. As per colophon of kubjikAkarpUrastotra , this stotra belongs to siddhikhaNDa of rudrayAmala . It is composed in sRRigdhArA meter with a total of twenty one verses . First six verses of stotra encapsulates uddhAra of kulapraNava ( five bIjas of pashchimAmnAya ) which are prefixed to every mantra of pashchimAmnAya. Next three verse describes six limbs of mistress of pashchimAmnAya. Ninth verse embodies yantroddhAra of goddess kubjikA . Next three verse describes the elements of kubjikA yantra and explains meaning of different names of goddess kubjikA. Fifteenth verse elobrates pUjAvidhi and kulayAga of pashchimAmnAya. Sixteenth verse describes animals for sacrifice in kubjikAkula. Deer,Chicken,Sheep,Cat, Rabbit,Got and Camel are main balipashus recommended in stotra .
Next three verse describes purushcharaNavidhi for supreme vidyA of kubjikA along with the mUrtiyAga and dUtIyAga. Final two verses describes phalashruti of pashchimAmnAyopAsanA and recital of the kubjikAkarpUrastotra.
कश्यपमहर्षि की मानसपुत्री कश्मीर ने शताब्दियों तक आतातायियों के नृशंस कृत्यों को झेला है और आज भी झेल रहीं हैं । महामद दैत्य के अनुयाई सनातनधर्म को कश्मीर की धारा से मिटाने के प्रयास करते रहें । कश्मीर के ब्राह्मणों (कश्मीरी पंडित समुदाय) की हत्याएं की गई, उन्हें यातनाएं दी है , उनकी स्त्रियों का शील भंग किया गया और जब फिर भी बात नही बनी तो कई मंदिरों को तोड़ा गया और उनकी जगह मस्जिदों का निर्माण किया गया । मंदिरों में मुर्दों को गाड़ कर उन्हे कब्र पूजने की जियारत बना दिया गया । इस पर भी बात नही बनी तो कश्मीर की धरा को ब्राह्मण तथा सनातनधर्म विहीन करने के लिए वहां से भगाया जाने लगा । कश्मीर के वीर ब्राह्मणों ने स्वधर्म के परित्याग के स्थान पर मृत्यु या मृत्युतुल्य पलायन को स्वीकार किया । इन्हीं सभी घटनाक्रमों का साक्षी है झेलम में तट पर बना श्रीनगर का एक काली मन्दिर ।
वह काली मंदिर जहां कभी भगवती भद्रकाली की कालसंकर्षिणी के रूप में पूजा होती थीं , इसे ‘कालेश्वरीतीर्थ’ के नाम से जाना जाता था । यहां पर एक झरना हैं जिसे प्राचीन काल में ‘कालीनाग’ अभिधान प्राप्त था । यह झरना आज भी हैं, जिससे पानी निकलकर झेलम में मिलता हैं । मस्जिद परिसर के पीछे की रेलिंग के ठीक नीचे पत्थर पर सिन्दूरलेप लगा हैं जो मंदिर का जगतीभाग अथवा नीव का हिस्सा थीं ।
देवी कालेश्वरी का प्रतीक चिन्ह
आज यही स्थान कश्मीरी सनातन धर्मावलम्बियों का आराधना स्थल हैं , जहां यदा कदा कश्मीरी पंडित जाया करते हैं। इस मंदिर का उल्लेख भृंगिश संहिता के अप्रकाशित अंश में मिलता हैं ।
( देवीपूजा करते हुए काश्मीरक )
सन् 1395 में सिकंदर ‘बुतशिकन'( मूर्तिभंजक) ने इस मंदिर को और ईरान के एक मलेच्छ की स्मृति मे मस्जिद में परिवर्तित कर दिया । जिसे अब ‘खानकाह-ए-मौला’ के नाम से जाना जाता है ओर तब से कालेश्वरी मंदिर मलेच्छों के कब्जे में हैं। यदि स्थापत्यकला के अनुसार भी के अवलोकन किया जाएं तो यह मस्जिद कम और वेश्मशैली का मंदिर ज्यादा लगता हैं ।
‘Eminent Personalities of Kashmir’ नामक पुस्तक में किशनलालकल्ला इस मंदिर का उल्लेख करते हुए लिखते है ” हिंदू मान्यता के अनुसार यहां कभी काली मंदिर था , जिसे तोड़ कर उसी सामग्री से यहां मस्जिद का निर्माण किया गया ” भविष्य की ओर आशान्वित होकर लिखता हुं , देवी कालेश्वरी के मंदिर की पुनर्प्रतिष्ठा होगी , यह स्थान एक बार पुनः सनातन धर्मावलम्बियों के अधिपत्य में होगा ।