śrī Porkkali

In the mysterious land of Kerala goddess Bhadrakālī is invoked in a number of regional forms. Instead of typical temple rituals (Tantrapaddhati), these divinities are adored with the folk śākteya rituals.
śrī Porkkali is a regional form of Bhadrakālī venerated by warriors from a number of castes.It is believed that she is the incarnation of Bhadrakālī who came with great ferocity (kali) for killing in battle (por). Which is why she’s named Porkkali.

śrī Porkkali is usually invoked in aniconic form.Nandakam/ Bhadrātmaja sword depict her present during rituals.
Many temples have a theyyam for her. Porkkali theyyam is a great theyyam with a long crown and facial apex. She is portrayed holding sowrd and sheild.
She’s dressed in a large crown of snakes. Her dress is red.

A number of śākteya practitioners invoke her to subjugate the enemy. A typical śākteya blood sacrifice (gurūthi) is offered to delight her.Typically bhāṣā mantras are used in his rituals.She is invoked by chanting the malayāla mantra.

To receive her blessings, you must worship the goddess Porkkali on the evening of Tuesdays and Fridays.She should be invoked in a lamp or sword. She should be offered red flowers, red sandalwood paste and red fabrics.Lamp,incense and steamed red rice should be offered to her.Then with one pointedness, he should recite her mantra 108 times. The ritual must be pursued until the desired results are achieved.


॥ śrī Porkkali Mantram ॥

Brahmā ṛṣiḥ। anuṣṭup chandaḥ। śrīPorkkalidevatā ।

śrī mahālakṣmi svāhā ṭhaṃ ṭhaṃ caṇḍapracaṇḍayoginī sarvvaśatrukkaleyuṃ veṭṭi niṇattekkuṭīcca niṇamenti nilkka svāhā rudhiranadiyil ninnuṃ asuradahanamūrti mātṛharī asuravadanacaṇḍī duṣṭanigrahārī caṇḍī ripumadhukaiṭabhārī śulakapāladhārī vaṭukadaṃṣṭradhārīdhārī kalapulī carmadhārī vetālī karālī gaurī gaṅkārī gaṃ namāmi oṃ namo bhagavati kālī kālī rudhirakoḍuṅkālī kālī raktachāmuṇḍī kālī āyiraṃ kālīyamme śrīPorkkali duṣṭanigraha hūm phaṭ svāhā॥

श्रीस्वच्छंदभैरव

भैरवागमों में वर्णित नाना भैरवमूर्तियों में ‘स्वच्छंदनाथ’ का प्राधान्य है। इनकी उपासना विशेष रुप से कश्मीर देश में होती थी। दक्षिणस्रोत के आगमों में ‘स्वच्छभैरवतन्त्र’ का प्राधान्य है। स्वच्छंदभैरवनाथ के आठ स्वरुप प्रधान है । इन आठ स्वरूपों का सम्बंध विविध स्रोत, आम्नाय तथा दीक्षा क्रमों से है। विभिन्न परंपराओं में इन आठ स्वरूपों की उपसाना की जाती है।
१. निष्कलस्वच्छन्दभैरव
२. सकलस्वच्छन्दभैरव
३. ललितस्वच्छन्दभैरव
४. कोटराक्षस्वच्छन्दभैरव
५. महास्वच्छन्दभैरव
६. व्याधिभक्षस्वच्छन्दभैरव
७. शिखास्वच्छन्दभैरव
८.वृद्धस्वच्छन्दभैरव

परवर्ती आम्नायक्रम के अनुसार निष्कल,सकल,कोटराक्ष,व्याधिभक्ष तथा महास्वच्छन्द
स्वरूपों की साधना दक्षिणाम्नाय से होती है। ललितस्वच्छन्द तथा शिखास्वच्छन्द पश्चिमाम्नाय में पूजित हैं। वृद्धस्वच्छन्दनाथ उत्तराम्नाय तथा दक्षिणाम्नाय उभय आम्नायों में उपासित होते हैं।

वर्तमान में भी साधक समाज अपनी- अपनी परम्परा के अनुरूप स्वच्छंदभैरवनाथ का यजन करते हैं। वर्तमान काशमीरक (काश्मीर देश के ब्राह्मण) पूर्वाचार्यों की परिपाटी के अनुरूप मृत्तिका के विशेष लिंग अथवा चललिंग में स्वच्छंददेव का अर्चन शिवरात्रि पर्व (हैरत) पर किया करते हैं।

वस्तुतः दीक्षा आदि के समय पंचवर्ण की रज से मण्डल बनाकर उसमें स्वच्छंददेव का यजन किया जाता था । स्वच्छतन्त्र ९.१२-१६ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। नवतत्त्व दीक्षा के उपलक्ष्य में नवनाभमण्डल अंकित किया जाता था। विकल्प से इनका अर्चन स्वयंभू लिंग में किया जा सकता है। विशेष ‘ श्रीमद् स्वच्छंद’ में देखना चाहिए।


( क्रमशः)

ब्रह्मादिकारणातीतं स्वशक्तयानन्दनिर्भरम् । नमामि परमेशानं स्वच्छन्दं वीरनायकम् ॥

कश्मीर का क्रमदर्शन – १

आगामी पुस्तक

‘ कश्मीर का क्रम दर्शन’ एक शोध परक ग्रन्थ है जिसके लेखन मैं दो वर्षों से अधिक समय लगा। भगवती श्रीसंकर्षिणी एवं पूर्वाचार्यों के अनुग्रह बल से इस पुस्तक को आकार देना सम्भव हुआ। लेखक के लिए यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि पुस्तक का प्राक्कथन शैवयोगिनी माता ‘प्रभादेवी’ जी द्वारा लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखन का उद्देश्य जनसामान्य को ‘ कालीनय’ का परिचय करवाना है।

भारतीय आचार्यों की परम्परा के अनुरुप प्रारम्भ में ‘अनुबंधचतुष्टय’ का लेखन किया गया है जो पुस्तक की विषयवस्तु, प्रयोजन, सम्बंध तथा अधिकार का वर्णन करता है। पुस्तक में क्रमनय के इतिवृत्त ताथा क्रम की विविध शाखाओं की चर्चा की गई है। महानयप्रकाश, द्वादशकालीपूजाविधि:, कालीकुलक्रमार्चापद्धति, जयद्रथयामल आदि ग्रंथों के अनुसार क्रमार्चा ( श्रीसंकर्षिणी तथा द्वादश कालियों का याग) का निरूपण किया गया है।१२/१३ अथवा १६/१७ कालियों को संख्या को लेकर पारंपरिक रुप से चलते आए हुए प्रश्न का क्रमागमों के आधार पर समन्वयात्मक उत्तर देने का प्रयास किया गया है।

आगामी अध्यायों में क्रमदर्शन में दीक्षा तथा सपर्या का सप्रमाण वर्णन किया गया है। अपर अध्याय में नेपाल एवं काश्मीर की शाक्त परम्परा पर क्रमनय के प्रभाव को उल्लिखित किया है। पाठकों के लाभार्थ परिशिष्ट में क्रमसद्भाव में वर्णित भैरवकृत ‘कालसंकर्षिणीस्तोत्र’ का भाषाभाष्य दिया गया है।
( क्रमश:)

॥ महार्थेश्वर-महार्थेश्वरी ध्यानम्॥

महानयप्रभेदेन प्रेतपद्मोपरि स्थितम् ।
महामूर्तिधरं वीरं असितासहितं प्रियम् ॥
महासमयसंयुक्तं आरक्ताभं सुलोचनम् ।
महामूर्तिधरं रौद्रं मदिरानन्दविग्रहम् ॥
नृमांसोर्ध्वकरे दत्तं कपालाऽङ्कुशोभितम् ।
दशबाहुस्थितं क्रुद्धं मन्त्रमात्रविभूषितम् ॥
बीजपञ्चाशभिर्युक्तं रावाद्योक्ताधिपान्वितम् ।
दशसप्ताक्षरा विद्या असिता सा स्वयंस्थिता ॥
महाशक्तियुता सा तु बीजपञ्चाशभिर्युता ।
युग्मका सदृशा मूर्तिर्गुरुपंङ्क्तिसमन्विता ॥
प्रणवेनसुशोभाह्या चितिभस्मावगुण्ठिता ।
भैरव**कैर्युक्ता सिंहरूपे सुसंस्थिता ॥

कश्मीर की एक दुर्लभ मातृका ( श्रीशम्भूनाथ कौल जी के संग्रह में ) में महार्थेश्वर-महार्थेश्वरी का ध्यान वर्णित किया गया है। महार्थेश्वर भगवान् महाभैरव का ही मूर्त्यंतर है वहीं महार्थेश्वरी सत्रह अक्षरों की विद्या से उपासित श्री कालसंकर्षिणी है। विशिष्ट क्रमार्चा में महार्थयामल का अर्चन वामविधि से उत्तराम्नाय के साधक किया करते है। अस्तु…।

ह्रीं श्रीं महार्थेश्वरीमहार्थेश्वर अम्बा नाथ पादुकां पूजयामि॥

महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्तकृत देवीस्तोत्रविवरण

श्रीभगवद्गीताशास्त्र की ‘गीतार्थसंग्रह’ टीका महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त की आरम्भिक कृति हैं। भगवद्गीता की इस टीका में आचार्य भट्टेन्दुराज की परम्परा से प्राप्त रहस्यार्थ का उद्घाटन श्रीअभिनवगुप्त ने किया हैं। आचार्य ने गीता के श्लोकों में निहित महार्थतत्त्व का प्रकाशन इस कृति में किया हैं। इस ग्रंथ की रचना श्रीअभिनवगुप्त ने कालीकुलक्रमाचार्य श्रीभूतिराज के चरणकमलों में बैठकर अपने मित्र वा बान्धव लोटक के निमित्त की थीं । श्रीअभिनवगुप्त ने गीतार्थसङ्ग्रह के एकादश अध्याय में अपने देवीस्तोत्रविवरण का उल्लेख किया हैं ।

एतदेवात्राध्याये रहस्यं प्रायशो देवीस्तोत्रविवृतौ मया प्रकाशितम् ॥

11.18 की टीका

उक्त देवीस्तोत्रविवरण को लेकर विद्वानों ने दो प्रकार के मत उद्धृत किये हैं। प्रथमपक्ष के अनुसार श्रीअभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धनाचार्य कृत देविस्तोत्र पर विवृति लिखी थी जिसका उल्लेख उन्होंने यहां पर किया हैं । यह स्तोत्र तो प्राप्त होता हैं परंतु विवृति उपलब्ध नहीं होती । काव्यमालागुच्छिका सीरीज के ९वें  खंड में यह स्तोत्र आचार्य कय्यट की टीका के साथ प्रकाशित हैं। इस स्तोत्र का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह स्तोत्र काव्य की दृष्टि से तो अत्यन्त समृद्ध है परंतु इसकी विषयवस्तु में क्रमदर्शन के तत्त्व का नितान्त आभाव हैं। यह स्तोत्र दार्शनिक न होकर पौराणिक तथा काव्यप्रयोगात्मक अधिक प्रतीत होता हैं। शेष रहीं बात आचार्य कय्यट कृत व्याख्या की तो, उन्होंने अपनी व्याख्या में किसी भी स्थान पर इस स्तोत्र को क्रमनय से संबंधित नहीं बताया हैं। उनकी व्याख्या में भी क्रमतत्त्व  का नितान्त आभाव दृष्टिगोचर होता हैं ।

अपरपक्ष के अनुसार सिद्धनाथ कृत क्रमस्तोत्र का ही अपरनाम देवीस्तोत्र हैं । क्रमनय को ‘देवीनय‘ वा ‘देविकाक्रम‘ के अभिधान से भी जाना जाता है अतः क्रमस्तोत्र का अपरनाम देवीस्तोत्र होना समीचीन ज्ञात होता हैं । गीतार्थसंग्रह में उल्लेखित ‘देवीस्तोत्रविवरण’ वस्तुतः ‘क्रमकेलि’ का ही द्वितीय अभिधान हैं । महार्थमंजरी की अंतिमगाथा की परिमल व्याख्या में भी इस ओर संकेत किया गया हैं। महेश्वरानंद ने क्रमकेलि में निहित गीता के क्रमार्थ को ३८ कारिकाओं में बद्धकर अपने व्याखान में समुचित स्थान दिया हैं। अतः द्वितीयपक्ष अधिक समुचित तथा  समीचीन जान पड़ता हैं ।

ह्रीँ श्रीँ श्रीसंकर्षणि अम्बा पादुकां पूजयामि ॥

तत्त्वतस्तु न नानार्थरूपा नाप्येकविग्रहा ।
यानिकेतानिरातङ्का खस्वभावा नमामिताम् ॥ ॐ……. शिवमस्तु ।

॥ श्रीचण्डकापालिनीध्यानम् ॥

चण्डी शूलकपालखड्गच्छुरिका खट्वाङ्गमुण्डाङ्किता रावैर्भूषितवामदक्षिणकरा वर्णैर्नवैर्भास्वरा । कल्पान्ताग्निसमप्रभैकवदना प्रेतोपरिस्थायिनी
देवीदूतिभिरावृता भगवती कुर्यात्स्वधाम्नि स्थितिम् ॥

॥ अघोररुद्रचण्डीध्यानम् ॥

या देवी खडगहस्ता सकलजनपदव्यापिनी विश्वदुर्गा
श्यामाङ्गी शुक्लपाशा द्विजगणगणिता ब्रह्मदेहार्धवासा। ज्ञानानां साधयन्ति यतिगिरिगमनज्ञानदिव्यप्रबोधा
सा देवी दिव्यमूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डप्रचण्डा ॥

भैरवस्तोत्रम्

नमः तेजस्वरूपाय रश्मिचक्रधराय च ।
सृष्टिरूपाय देवाय तथास्थितिकराय च ॥
अवतारक्रमस्थाय कालिचक्रस्थिताय च ।
महासंहाररूपाय नमोमूर्तस्वरूपिणे ॥
नमश्चन्द्रार्कसद्ग्रास परितृप्ताय शासिने ।
चिद्रहस्यसमंदीप्त भैरवाय नमो नमः॥ (जयद्रथयामले)

Photo Credit – Sri S. Saha

भगवती सप्तकोटीश्वरी

क्रमनय के साधकों के मध्य श्रीसंकर्षिणी की विभिन्न मूर्तियों की उपासना का चलन हैं । देवी कालसंकर्षिणी के विभिन्न अमूर्त स्वरूपों में सप्तकोटीश्वरी प्रधान हैं। महाव्योमवागीश्वरी तथा घोरचण्डा इनके अपर नाम हैं ।
देवी सप्तकोटीश्वरी का कल्प जयद्रथयामल के तीसरे तथा चतुर्थ षट्क में प्राप्त होता हैं । काश्मीरपरम्परा की चार प्रत्यंगिराओ में देवी सप्तकोटीश्वरी संगणित हैं ।
देवी के अमूर्त ध्यान में इन्हें सप्तमुण्डों पर आसीन बताया गया हैं ।

……. कवलननिरता सप्तमुण्डासनस्था प्रोद्भोताधार चक्रात्प्रलयशिखि शिखा……….

श्रीजयद्रथयामल में कहा गया भी है-

……………………………………………..।
सप्तमुण्डासनरतां तत्सङ्ख्या भुवनाध्वगाम् ॥

महार्थमंजरीपरिमल में महेश्वरानन्द सप्तकोटीश्वरी के विषय में लिखते हैं –

तत् श्रीमत्सप्तकोटीश्वरीविद्यानुसन्धानवासनानुस्यूतेः –
सप्तकोटिर्महामन्त्रा महाकालीमुखोद्गताः॥
इत्याम्नायन्यायादेकैककोटिक्रोडीकारसूचनार्थमेकैकदशकस्वीकार इति तस्याः सिद्धयोगिन्याः सप्तसंख्यात्मकमुद्रानिबन्धतात्पर्यात् सप्ततिसंख्यानिर्बन्ध इति तात्पर्यार्थः।

देवी महाकाली (सप्तकोटीश्वरी) के मुख से सप्तकोटिमंत्रों का उद्भव हुआ है। देवी सप्तकोटीश्वरी
का साधक इन का ज्ञान सप्ताक्षरी विद्या के जप से प्राप्त कर सकता हैं। सप्ताक्षरीविद्या होने से ही सप्त मुद्राओं के बंधन का विधान महार्थसंप्रदाय में किया गया हैं।

सप्तकोटीश्वरी कल्पानुसार इनकी अतिरहस्य गायत्री का केवल 8 बार जप करने से साधक के ब्रह्महत्या, सुरापानादि पंचमहापातकों का नाश होता हैं। सप्तकोटीश्वरीगायत्री का एक बार पाठ करने मात्र से साधक के उपपतकों का नाश होता हैं । शतबार जप करने से साधक सोमपुत, अग्निपुत तथा मंत्रपुत होता हैं। वैदिकी गायत्री के साथ सम्मेलन कर जप करने से ब्रह्मदण्डादिप्रयोगों में क्षिप्रसिद्धि प्राप्त होती हैं ।

देवी सप्तकोटीश्वरी की उपासना करने से कुहुकों का नाश होता हैं । भगवती अपने साधको के समस्त दुःखों का नाश करती हैं ।
श्रीजयद्रथयामल में कहा भी गया है-

अथातः संप्रवक्ष्यामि कुहकानां विनाशिनीम् ।
यस्याः पूजनमात्रेण सर्वदुःखाद्विमुच्यते ॥

देवी सप्तकोटीश्वरी की सप्ताक्षरी विद्या का जप करने से
साधक काव्य, ज्योतिष,व्याकरण तथा रहस्य शास्त्रों का ज्ञान स्वतः ही प्राप्त कर लेता हैं। श्रीजयद्रथयामल में कहा भी गया है-

काव्यं दैवज्ञतां चैव महाव्याकरणानि च ।
देवी पूजन मात्रेण लभते नात्र संशयः ॥

देवी सप्तकोटीश्वरी के साधन में वर्णन्यास, मुण्डभङ्गीन्यास, दण्डभङ्गीन्यास, धारान्यास तथा कुलक्रम न्यास को करना अत्यन्त आवश्यक है । इन न्यासों को करे बिना जो सप्तकोटीश्वरी का साधन करता है वह योगिनियों का पशु होता है। नेपालमण्डल से प्राप्त सप्तकोटीश्वरीपूजापद्धति की मातृका में इन न्यासों का विशद वर्णन प्राप्त होता है जो जयद्रथयामल के सप्तकोटीश्वरीकल्प में प्राप्त नहीं होता हैं। संभवतः पद्धतिकार के सम्मुख सप्तकोटीश्वरीकल्प का कोई अन्य पाठ था जो वर्तमान जयद्रथयामल में प्राप्त नहीं होता अथवा पद्धतिकार तंत्रान्तर से इनको उद्धृत करता हैं ।
भगवती सप्तकोटीश्वरी का साधन विजनवन, एकान्त स्थल अथवा देवीमंदिर में ही करना चाहिए , ऐसा करने से साधक सर्वसौभाग्य को प्राप्त करता हैं। भगवती की सप्ताक्षरी विद्या का साधन करने वाला साधक अन्त काल में परमपद को प्राप्त करता है तथा इहलोक में उत्तमस्त्री, धन , विद्या तथा रहस्यों को प्राप्त करता हैं । इस विद्या का साधन करने वाले साधक का कोई द्वेषी नहीं होता। इनका साधक जहां कहीं भी निवास करता है वहां अकाल, दुर्भिक्ष, व्याधि तथा अपमृत्यु नहीं होती ।
श्रीजयद्रथयामल में तो यहां तक कहा गया है कि सप्तकोटीश्वरी के साधक को संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं है, देवी के कृपा प्रसाद से उसकी समस्त कामनाएं सिद्ध होती हैं।

यत्किञ्चिद्भुवने वस्तु विद्यतेर्घ्यं सुरेश्वरि ।
तश्चेत्कामयते साक्षाल्लभते नात्र संशयः ॥

भगवती महाव्योमवागीश्वरी जगदम्बा सप्तकोटीश्वरी के चरणद्वन्द्व की वन्दना करते हुए लेख समाप्त किया जाता हैं । ॐ शिवमस्तु ॥

ह्रीँ श्रीँ महाव्योमवागीश्वरी अम्बा पादुकां पूजयामि ॥