कश्मीर की एक दुर्लभ मातृका ( श्रीशम्भूनाथ कौल जी के संग्रह में ) में महार्थेश्वर-महार्थेश्वरी का ध्यान वर्णित किया गया है। महार्थेश्वर भगवान् महाभैरव का ही मूर्त्यंतर है वहीं महार्थेश्वरी सत्रह अक्षरों की विद्या से उपासित श्री कालसंकर्षिणी है। विशिष्ट क्रमार्चा में महार्थयामल का अर्चन वामविधि से उत्तराम्नाय के साधक किया करते है। अस्तु…।
श्रीभगवद्गीताशास्त्र की ‘गीतार्थसंग्रह’ टीका महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त की आरम्भिक कृति हैं। भगवद्गीता की इस टीका में आचार्य भट्टेन्दुराज की परम्परा से प्राप्त रहस्यार्थ का उद्घाटन श्रीअभिनवगुप्त ने किया हैं। आचार्य ने गीता के श्लोकों में निहित महार्थतत्त्व का प्रकाशन इस कृति में किया हैं। इस ग्रंथ की रचना श्रीअभिनवगुप्त ने कालीकुलक्रमाचार्य श्रीभूतिराज के चरणकमलों में बैठकर अपने मित्र वा बान्धव लोटक के निमित्त की थीं । श्रीअभिनवगुप्त ने गीतार्थसङ्ग्रह के एकादश अध्याय में अपने देवीस्तोत्रविवरण का उल्लेख किया हैं ।
उक्त देवीस्तोत्रविवरण को लेकर विद्वानों ने दो प्रकार के मत उद्धृत किये हैं। प्रथमपक्ष के अनुसार श्रीअभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धनाचार्य कृत देविस्तोत्र पर विवृति लिखी थी जिसका उल्लेख उन्होंने यहां पर किया हैं । यह स्तोत्र तो प्राप्त होता हैं परंतु विवृति उपलब्ध नहीं होती । काव्यमालागुच्छिका सीरीज के ९वें खंड में यह स्तोत्र आचार्य कय्यट की टीका के साथ प्रकाशित हैं। इस स्तोत्र का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह स्तोत्र काव्य की दृष्टि से तो अत्यन्त समृद्ध है परंतु इसकी विषयवस्तु में क्रमदर्शन के तत्त्व का नितान्त आभाव हैं। यह स्तोत्र दार्शनिक न होकर पौराणिक तथा काव्यप्रयोगात्मक अधिक प्रतीत होता हैं। शेष रहीं बात आचार्य कय्यट कृत व्याख्या की तो, उन्होंने अपनी व्याख्या में किसी भी स्थान पर इस स्तोत्र को क्रमनय से संबंधित नहीं बताया हैं। उनकी व्याख्या में भी क्रमतत्त्व का नितान्त आभाव दृष्टिगोचर होता हैं ।
अपरपक्ष के अनुसार सिद्धनाथ कृत क्रमस्तोत्र का ही अपरनाम देवीस्तोत्र हैं । क्रमनय को ‘देवीनय‘ वा ‘देविकाक्रम‘ के अभिधान से भी जाना जाता है अतः क्रमस्तोत्र का अपरनाम देवीस्तोत्र होना समीचीन ज्ञात होता हैं । गीतार्थसंग्रह में उल्लेखित ‘देवीस्तोत्रविवरण’ वस्तुतः ‘क्रमकेलि’ का ही द्वितीय अभिधान हैं । महार्थमंजरी की अंतिमगाथा की परिमल व्याख्या में भी इस ओर संकेत किया गया हैं। महेश्वरानंद ने क्रमकेलि में निहित गीता के क्रमार्थ को ३८ कारिकाओं में बद्धकर अपने व्याखान में समुचित स्थान दिया हैं। अतः द्वितीयपक्ष अधिक समुचित तथा समीचीन जान पड़ता हैं ।
क्रमनय के साधकों के मध्य श्रीसंकर्षिणी की विभिन्न मूर्तियों की उपासना का चलन हैं । देवी कालसंकर्षिणी के विभिन्न अमूर्त स्वरूपों में सप्तकोटीश्वरी प्रधान हैं। महाव्योमवागीश्वरी तथा घोरचण्डा इनके अपर नाम हैं । देवी सप्तकोटीश्वरी का कल्प जयद्रथयामल के तीसरे तथा चतुर्थ षट्क में प्राप्त होता हैं । काश्मीरपरम्परा की चार प्रत्यंगिराओ में देवी सप्तकोटीश्वरी संगणित हैं । देवी के अमूर्त ध्यान में इन्हें सप्तमुण्डों पर आसीन बताया गया हैं ।
देवी महाकाली (सप्तकोटीश्वरी) के मुख से सप्तकोटिमंत्रों का उद्भव हुआ है। देवी सप्तकोटीश्वरी का साधक इन का ज्ञान सप्ताक्षरी विद्या के जप से प्राप्त कर सकता हैं। सप्ताक्षरीविद्या होने से ही सप्त मुद्राओं के बंधन का विधान महार्थसंप्रदाय में किया गया हैं।
सप्तकोटीश्वरी कल्पानुसार इनकी अतिरहस्य गायत्री का केवल 8 बार जप करने से साधक के ब्रह्महत्या, सुरापानादि पंचमहापातकों का नाश होता हैं। सप्तकोटीश्वरीगायत्री का एक बार पाठ करने मात्र से साधक के उपपतकों का नाश होता हैं । शतबार जप करने से साधक सोमपुत, अग्निपुत तथा मंत्रपुत होता हैं। वैदिकी गायत्री के साथ सम्मेलन कर जप करने से ब्रह्मदण्डादिप्रयोगों में क्षिप्रसिद्धि प्राप्त होती हैं ।
देवी सप्तकोटीश्वरी की उपासना करने से कुहुकों का नाश होता हैं । भगवती अपने साधको के समस्त दुःखों का नाश करती हैं । श्रीजयद्रथयामल में कहा भी गया है-
देवी सप्तकोटीश्वरी की सप्ताक्षरी विद्या का जप करने से साधक काव्य, ज्योतिष,व्याकरण तथा रहस्य शास्त्रों का ज्ञान स्वतः ही प्राप्त कर लेता हैं। श्रीजयद्रथयामल में कहा भी गया है-
काव्यं दैवज्ञतां चैव महाव्याकरणानि च । देवी पूजन मात्रेण लभते नात्र संशयः ॥
देवी सप्तकोटीश्वरी के साधन में वर्णन्यास, मुण्डभङ्गीन्यास, दण्डभङ्गीन्यास, धारान्यास तथा कुलक्रम न्यास को करना अत्यन्त आवश्यक है । इन न्यासों को करे बिना जो सप्तकोटीश्वरी का साधन करता है वह योगिनियों का पशु होता है। नेपालमण्डल से प्राप्त सप्तकोटीश्वरीपूजापद्धति की मातृका में इन न्यासों का विशद वर्णन प्राप्त होता है जो जयद्रथयामल के सप्तकोटीश्वरीकल्प में प्राप्त नहीं होता हैं। संभवतः पद्धतिकार के सम्मुख सप्तकोटीश्वरीकल्प का कोई अन्य पाठ था जो वर्तमान जयद्रथयामल में प्राप्त नहीं होता अथवा पद्धतिकार तंत्रान्तर से इनको उद्धृत करता हैं । भगवती सप्तकोटीश्वरी का साधन विजनवन, एकान्त स्थल अथवा देवीमंदिर में ही करना चाहिए , ऐसा करने से साधक सर्वसौभाग्य को प्राप्त करता हैं। भगवती की सप्ताक्षरी विद्या का साधन करने वाला साधक अन्त काल में परमपद को प्राप्त करता है तथा इहलोक में उत्तमस्त्री, धन , विद्या तथा रहस्यों को प्राप्त करता हैं । इस विद्या का साधन करने वाले साधक का कोई द्वेषी नहीं होता। इनका साधक जहां कहीं भी निवास करता है वहां अकाल, दुर्भिक्ष, व्याधि तथा अपमृत्यु नहीं होती । श्रीजयद्रथयामल में तो यहां तक कहा गया है कि सप्तकोटीश्वरी के साधक को संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं है, देवी के कृपा प्रसाद से उसकी समस्त कामनाएं सिद्ध होती हैं।
यत्किञ्चिद्भुवने वस्तु विद्यतेर्घ्यं सुरेश्वरि । तश्चेत्कामयते साक्षाल्लभते नात्र संशयः ॥
भगवती महाव्योमवागीश्वरी जगदम्बा सप्तकोटीश्वरी के चरणद्वन्द्व की वन्दना करते हुए लेख समाप्त किया जाता हैं । ॐ शिवमस्तु ॥