श्रीभगवद्गीताशास्त्र की ‘गीतार्थसंग्रह’ टीका महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त की आरम्भिक कृति हैं। भगवद्गीता की इस टीका में आचार्य भट्टेन्दुराज की परम्परा से प्राप्त रहस्यार्थ का उद्घाटन श्रीअभिनवगुप्त ने किया हैं। आचार्य ने गीता के श्लोकों में निहित महार्थतत्त्व का प्रकाशन इस कृति में किया हैं। इस ग्रंथ की रचना श्रीअभिनवगुप्त ने कालीकुलक्रमाचार्य श्रीभूतिराज के चरणकमलों में बैठकर अपने मित्र वा बान्धव लोटक के निमित्त की थीं । श्रीअभिनवगुप्त ने गीतार्थसङ्ग्रह के एकादश अध्याय में अपने देवीस्तोत्रविवरण का उल्लेख किया हैं ।
उक्त देवीस्तोत्रविवरण को लेकर विद्वानों ने दो प्रकार के मत उद्धृत किये हैं। प्रथमपक्ष के अनुसार श्रीअभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धनाचार्य कृत देविस्तोत्र पर विवृति लिखी थी जिसका उल्लेख उन्होंने यहां पर किया हैं । यह स्तोत्र तो प्राप्त होता हैं परंतु विवृति उपलब्ध नहीं होती । काव्यमालागुच्छिका सीरीज के ९वें खंड में यह स्तोत्र आचार्य कय्यट की टीका के साथ प्रकाशित हैं। इस स्तोत्र का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह स्तोत्र काव्य की दृष्टि से तो अत्यन्त समृद्ध है परंतु इसकी विषयवस्तु में क्रमदर्शन के तत्त्व का नितान्त आभाव हैं। यह स्तोत्र दार्शनिक न होकर पौराणिक तथा काव्यप्रयोगात्मक अधिक प्रतीत होता हैं। शेष रहीं बात आचार्य कय्यट कृत व्याख्या की तो, उन्होंने अपनी व्याख्या में किसी भी स्थान पर इस स्तोत्र को क्रमनय से संबंधित नहीं बताया हैं। उनकी व्याख्या में भी क्रमतत्त्व का नितान्त आभाव दृष्टिगोचर होता हैं ।
अपरपक्ष के अनुसार सिद्धनाथ कृत क्रमस्तोत्र का ही अपरनाम देवीस्तोत्र हैं । क्रमनय को ‘देवीनय‘ वा ‘देविकाक्रम‘ के अभिधान से भी जाना जाता है अतः क्रमस्तोत्र का अपरनाम देवीस्तोत्र होना समीचीन ज्ञात होता हैं । गीतार्थसंग्रह में उल्लेखित ‘देवीस्तोत्रविवरण’ वस्तुतः ‘क्रमकेलि’ का ही द्वितीय अभिधान हैं । महार्थमंजरी की अंतिमगाथा की परिमल व्याख्या में भी इस ओर संकेत किया गया हैं। महेश्वरानंद ने क्रमकेलि में निहित गीता के क्रमार्थ को ३८ कारिकाओं में बद्धकर अपने व्याखान में समुचित स्थान दिया हैं। अतः द्वितीयपक्ष अधिक समुचित तथा समीचीन जान पड़ता हैं ।
विभिन्न आम्नायों के उपसकों के मध्य प्रसन्नपूजा के समय कर्पूरस्तोत्र का पाठ कर पुष्पाञ्जलि देने का प्रचलन हैं । इसी क्रम में उत्तराम्नाय के साधकगण अत्यन्त दुर्लभ व गोपनीय सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र का पारायण किया करते हैं। स्रगधारा छन्द में निबद्ध यह स्तोत्र १९ मंत्रो वाला हैं। यह स्तोत्र अपने भीतर उत्तराम्नाय के गूढ़ रहस्यों को गर्भित किए हुए हैं । सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र की पुष्पिका के अनुसार यह स्तोत्र रुद्र्यामलतंत्र के उत्तरखंड में उपलब्ध होता हैं । इस स्तोत्र में प्रत्यक्षरूप से भगवती गुह्यकाली तथा भगवती सिद्धिलक्ष्मी की स्तुति की गईं हैं वहीं परोक्षरूप से भगवती कालसंकर्षिणी भट्टारिका की ।अथर्वणश्रुति में कहा भी गया है –
परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः॥
गोपथब्राह्मण १,१.१
यह स्तोत्र इन तीनों देवीस्वरूपों में अद्वैतभावना का प्रतिपादन करता हैं। इस स्तोत्र के प्रथम तीनमंत्रो में भगवती गुह्यकाली की षोडशाक्षरीविद्या का उद्धार तथा इस विद्या के जप की फलश्रुति का वर्णन किया गया हैं । वहीं पर कहा भी गया है-
अर्थात् भगवती गुह्यकाली की षोडशाक्षरीविद्या जप मात्र से मोक्ष को देने वाली हैं एवं श्रवणमात्र से आयु तथा आरोग्य को प्रदान करती हैं । अगले मंत्र “कालीं जंबूफलाभां ………………” में भगवती कालसंकर्षिणी भट्टारिका का अमूर्त ध्यान दिया गया हैं ।
अगले दो मंत्रो में भगवती गुह्यकाली की भरतोपासिताविद्या का उद्धार किया गया हैं । सातवें मंत्र में भगवती गुह्यकाली के दशवक्त्रा दशभुजा स्वरूप का वर्णन दिया गया हैं । आठवें मंत्र में देवदुर्लभ भगवती सिद्धिलक्ष्मी के नवाक्षरीमंत्र का उद्धार बताया गया हैं। नवें मंत्र में भगवती सिद्धिलक्ष्मी के पंचवक्त्रा दशभुजा स्वरूप का ध्यान बताया गया हैं। वहीं भगवती सिद्धिलक्ष्मी के ध्यान की फलश्रुति का भी वर्णन दिया गया हैं –
अगले मंत्रो में उपरोक्त विद्याओं के यंत्रोद्धार दिए गए हैं जो कि गुरुगम्य हैं। तेरहवें तथा चौदहवें मंत्रो में दूतीयाग का अत्यन्त सांकेतिक भाषा में वर्णन किया हैं। अगले मंत्र में उपरोक्त विद्याओं के पुरूश्चरण का विधान प्रकाशित किया गया हैं। सोलहवें मंत्र में बलिपशु तथा खड्गसिद्धि का विधान बताया गया हैं। अगले दोनों मंत्र इन विद्याओं की क्षिप्रसिद्धि प्रदान करने वाले कुलप्रयोग का वर्णन करते हैं। अंतिम मंत्र में सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र के पाठ की फलश्रुति का वर्णन किया गया हैं , वहीं कहा भी गया हैं जो साधक पूजा के अन्त में प्रसन्नचित्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं वह शीघ्र ही जगदम्बा के अमृतमय चरणकमलरूप मधुको प्राप्त कर देवी का प्रियतर हो जाता हैं।
पठेद् यः पूजांते प्रमुदित मनो साधकवरः । स ते पादाम्भोजामृत मधुलिहस्यात प्रियतरः॥
१९. ब
भगवती सिद्धिलक्ष्मी की वन्दना कर लेखनी को विराम दिया जाता हैं ।
भगवती सिद्धिलक्ष्मी कालीकुलक्रम की देवता विशेष है, जिनकी उपासना का प्रारम्भ विस्तृत कश्मीर के उड्डीयाणपीठ के करवीर महाश्मशान से हुआ । उड्डीयाणपीठ से सिद्धिलक्ष्मी उपासना की धारा उत्तरभारत के कुछ भागों में तथा नेपाल तक जा पहुंची । नेवारसमुदाय के मल्लराजाओं ने सिद्धलक्ष्मी उपासना को अपने राज्य में प्राश्रय दिया। स्वयं मल्लराजपुरुषों ने आचार्यों से दीक्षाभिषेक प्राप्त कर भगवति सिद्धलक्ष्मी की उपासना की । मल्लराजवंश में जब तक सिद्धिलक्ष्मी की उपासना चलती रही, तब तक उनका राज्य अक्षुण्ण रहा । कालानलतंत्र में कहा भी गया हैं – पुत्रपौत्रान्वितो भूत्वा चिरजीवीभवेन्नरः । विवादे विजयो नित्यं संग्रामे विजयस्तथा ॥ राजकन्या भवेत् पत्नी राजा च वशगो भवेत् । सर्वदा ज्ञातिश्रेष्टोऽपि बन्धुभर्त्ता सदाभवेत् ॥ रिपूणां वीर्यविध्वंसी भवत्येव न संशयः । अन्तकाले गतिस्तस्य निशामय मम द्विज ॥ सिद्धिलक्ष्मी प्रसादेन साधकस्य फलं शृणु ॥ भगवती सिद्धिलक्ष्मी के प्रसाद से साधक पुत्रपौत्रादि से युक्त होकर चिरायु को प्राप्त करता हैं । राजवंश की कन्या प्राप्त करता है तथा अपनी जाति में श्रेष्ठ होता हैं। शत्रुओं का नाश कर इनका साधक अंत में मोक्ष को प्राप्त करता हैं। कालानलतंत्र के अनुसार श्रीकामकलाकाली,श्रीगुह्यकाली,श्रीछिन्नमस्ता,श्रीतार,श्रीकालसंकर्षिणी तथा श्रीसिद्धिलक्ष्मी अभेद हैं । इनमे कोई भेद नहीं है, मात्र मूर्त्यान्तर हैं । यथा कामकलाकाली गुह्यकाली तथा द्विज । यथा छिन्ना यथा तारा वज्रकापालिनी यथा ॥ सिद्धिलक्ष्मीः तथा देवी विशेषोनास्ति कश्चन ॥
ह्रीँ श्रीँ श्रीसिद्धिरमाम्बापादुकां पूजयामि ॥
भगवान सिद्धेश्वर इनके भैरव हैं। ये उत्तराम्नाय से संबंधित देवी हैं। उड्डीयाणपीठ में भैरव तथा योगिनियों के मेलापोत्सवरूपी डामरयाग के मध्य भगवती सिद्धिलक्ष्मी का प्राकट्य हुआ । महाभैरव ने इनकी उपासन का उपदेश दिव्ययोगिनियों को दिया । दिव्ययोगिनियों से सिद्धों को यह उपासना प्राप्त हुईं । सिद्धों ने अधिकारी व लक्षणसंपन्न वीरों तथा योगिनियों को इस उपासना का उपदेश दिया। इनकी उपासना करने वाले कापालिक डामरक कहलाते थें। श्रीत्रिदशडामरमहातन्त्र के अनुसार इस शक्तिविशेष को जयद्रथयामल में सिद्धिलक्ष्मीप्रत्यङ्गिरा,झंकारभैरवतन्त्र में चण्डकापालिनि तथा कुलडामर में शिवा कहा गया हैं। प्रत्यङ्गिरात्वियं देवि सिद्धिलक्ष्मी जयद्रथे । झंकारभैरवे चण्डा शिवान्तु कुलडामरे ॥ २४,००० श्लोकों वाले जयद्रथयामल के द्वितीयषट्क में भगवती सिद्धिलक्ष्मी की उपासना का विशद वर्णन मिलता हैं। द्वितीयषट्क के २१वें पटल में भगवती सिद्धिलक्ष्मी के मूलमालामन्त्र का उद्धार दिया गया हैं। इस पटल की पुष्पिका का पाठ इस प्रकार है- …..श्रीजयद्रथयामलेविद्यापीठेभैरवस्रोतसिशिरश्च्छेदे चतुर्विंशतिसाहस्रेद्वितीयषट्केश्रीसिद्धलक्ष्मीविधाने मूलमालामन्त्रप्रकाशएकविंशतितमःपटलः….. इस पटल पर वशिष्ठकुलोत्पन्न किसी आचार्य की लघुटीका भी हैं, जिसकी पुष्पिका का पाठ निम्न हैं । इतिवाशिष्ठायमतेजयद्रथेमालामन्त्रटीका॥ जयद्रथयामल में भगवती सिद्धिलक्ष्मी को कालसंकर्षिणी का ही एक स्वरूप माना गया हैं। इनका अभेद पूर्व में कह आए है सो आगे चर्चा नहीं करते । जयद्रथयामल में भगवती सिद्धिलक्ष्मी की सत्रह अक्षरों वाली विद्या तथा समयमालामंत्र की प्रधानता हैं। इन्हीं दोनों मंत्रों की साधनविधि तथा प्रयोगविधि का वर्णन विशेष रूप से इस ग्रंथ में प्राप्त होता हैं। २१वें पटल के प्रारम्भ में कहा भी गया हैं – उद्धृत्ता परमाविद्या सुखसौभाग्यमोक्षदा । शतद्वयं च वर्णानां नवत्यधिकमुद्धृतम् ॥ एषा विद्या महाविद्या नाम्नात्रैलोक्यमोहिनी। लक्ष्मीश्वरीति विख्याता बुहुभोगभरावहा । महालक्ष्मी महाकान्ता सर्वसौभाग्यदा स्मृता । अस्मिन्स्रोतसि देवेशि नानया सदृशी परा ॥ अन्य आगमों में भगवती सिद्धिलक्ष्मी की नवाक्षरी, सप्त दशाक्षरी, सहस्राक्षरी तथा आयुताक्षरी विद्याओं की प्रधानता हैं। द्वितीयषट्क के अंतिम १० पटलों में सिद्धिलक्ष्मीकल्प के नाना प्रयोगों का वर्णन मिलता हैं जिनके नाम निम्न हैं (१) प्रथमप्रतिहारविधिः (२) द्वितीयप्रतिहारविधिः (३) तृतीयप्रतिहारविधिः (४) प्रतिहारसाधनविधिः (५) शिरसाधनविधिः (६) शिखासाधनविधिः (७) केशसाधनविधिः (८) अस्त्रसाधनविधिः (९) यक्षिणीचक्रम् (१०) यक्षिणीचक्रप्रयोगविधिः इनमे प्रथम तीनपटल कृत्यादिप्रयोग के प्रतिहार की विधि को निर्देशित करते हैं। चतुर्थपटल रक्षापुरुष को प्रकट करने के प्रयोग का वर्णन करता हैं । आगे के चार पटलों में सिद्धिलक्ष्मी के अंगमंत्रो का साधन कहा गया हैं। अंतिम दो पटल यक्षिणीचक्र तथा यक्षिणीप्रयोगों की विधि का उल्लेख करते हैं। इन पटलों के अंत में निम्न पुष्पिका प्राप्त होती हैं । ….श्रीजयद्रथयामलेविद्यापीठेभैरवस्रोतसिशिरश्च्छेदे चतुर्विंशतिसाहस्रेद्वितीयषट्केश्रीसिद्धलक्ष्मीविधाननानाकल्पम् …. जयद्रथयामल के अनुसार सिद्धिलक्ष्मी की उपासना सभी उप्लवों का नाश करनेवाली,सर्वश्रेष्ठ,अत्यन्तउग्र सर्वसम्पत्प्रदायिनी हैं। इस विद्या के सामन १४ भुवनों में कोई और उग्रताम विद्या नहीं हैं। जयद्रथयामल में भगवती भैरवी ने कहा भी हैं – सर्वसाधारणी घोरा सर्वोपप्लवनाशिनी । सर्वसम्पत्प्रदाश्रेष्ठा सर्वसम्पत्प्रदायिका ॥ अस्यां विज्ञातमात्रायां विभूति संप्रवर्तते । अस्याः घोरतरानान्या विद्यते भुवनोदरे ॥ भगवान भैरव ने भी इस विद्या की भूरी भूरी प्रशंसा की हैं । अलक्ष्मीशमनी ज्ञेया दुष्टदारिद्र्यमर्दिनी । कलिदुस्स्वप्नशमनी जात्योपद्रवनाशिनी ॥ राजोपसर्गशमनी दुष्टदस्यु विनाशिनी । सदारण्यभये घोरे सिंहव्याघ्रसङ्कटे ॥ यह विद्या अलक्ष्मी, दुष्टजनों तथा दारिद्रय का नाश करने वाली हैं। कलि के प्रभाव , दुस्स्वप्न, जात्योपद्रव, राजोपसर्ग तथा दुष्टदस्युओं का नाश करने करने वाली हैं। अरण्य,सिंह,व्याघ्र, सङ्कट तथा भय से रक्षा करने वाली हैं। जयद्रथयामल के अतिरिक्त झंकारभैरवतन्त्र, कुलडामर,श्रीकालिकुलसद्भावमहातन्त्र,श्रीसिद्धिलक्ष्मीमत,श्रीउमायामल,श्रीमहाकुलक्रमडामर,श्रीगुह्यकुलक्रम,श्रीकालसंकर्षणिमत, श्रीकालानलतंत्र तथा श्रीमेरुतंत्र मे भी सिद्धिलक्ष्मी की उपासना का वर्णन मिलाता हैं । सिद्धिलक्ष्मी गायत्री से लेख का समापन करते हैं। ॐ सिद्धिरमायै विद्महे दशभुजायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥ ॐ शिवमस्तु……….।