श्रीस्वच्छंदभैरव

भैरवागमों में वर्णित नाना भैरवमूर्तियों में ‘स्वच्छंदनाथ’ का प्राधान्य है। इनकी उपासना विशेष रुप से कश्मीर देश में होती थी। दक्षिणस्रोत के आगमों में ‘स्वच्छभैरवतन्त्र’ का प्राधान्य है। स्वच्छंदभैरवनाथ के आठ स्वरुप प्रधान है । इन आठ स्वरूपों का सम्बंध विविध स्रोत, आम्नाय तथा दीक्षा क्रमों से है। विभिन्न परंपराओं में इन आठ स्वरूपों की उपसाना की जाती है।
१. निष्कलस्वच्छन्दभैरव
२. सकलस्वच्छन्दभैरव
३. ललितस्वच्छन्दभैरव
४. कोटराक्षस्वच्छन्दभैरव
५. महास्वच्छन्दभैरव
६. व्याधिभक्षस्वच्छन्दभैरव
७. शिखास्वच्छन्दभैरव
८.वृद्धस्वच्छन्दभैरव

परवर्ती आम्नायक्रम के अनुसार निष्कल,सकल,कोटराक्ष,व्याधिभक्ष तथा महास्वच्छन्द
स्वरूपों की साधना दक्षिणाम्नाय से होती है। ललितस्वच्छन्द तथा शिखास्वच्छन्द पश्चिमाम्नाय में पूजित हैं। वृद्धस्वच्छन्दनाथ उत्तराम्नाय तथा दक्षिणाम्नाय उभय आम्नायों में उपासित होते हैं।

वर्तमान में भी साधक समाज अपनी- अपनी परम्परा के अनुरूप स्वच्छंदभैरवनाथ का यजन करते हैं। वर्तमान काशमीरक (काश्मीर देश के ब्राह्मण) पूर्वाचार्यों की परिपाटी के अनुरूप मृत्तिका के विशेष लिंग अथवा चललिंग में स्वच्छंददेव का अर्चन शिवरात्रि पर्व (हैरत) पर किया करते हैं।

वस्तुतः दीक्षा आदि के समय पंचवर्ण की रज से मण्डल बनाकर उसमें स्वच्छंददेव का यजन किया जाता था । स्वच्छतन्त्र ९.१२-१६ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। नवतत्त्व दीक्षा के उपलक्ष्य में नवनाभमण्डल अंकित किया जाता था। विकल्प से इनका अर्चन स्वयंभू लिंग में किया जा सकता है। विशेष ‘ श्रीमद् स्वच्छंद’ में देखना चाहिए।


( क्रमशः)

ब्रह्मादिकारणातीतं स्वशक्तयानन्दनिर्भरम् । नमामि परमेशानं स्वच्छन्दं वीरनायकम् ॥

कश्मीर का क्रमदर्शन – १

आगामी पुस्तक

‘ कश्मीर का क्रम दर्शन’ एक शोध परक ग्रन्थ है जिसके लेखन मैं दो वर्षों से अधिक समय लगा। भगवती श्रीसंकर्षिणी एवं पूर्वाचार्यों के अनुग्रह बल से इस पुस्तक को आकार देना सम्भव हुआ। लेखक के लिए यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि पुस्तक का प्राक्कथन शैवयोगिनी माता ‘प्रभादेवी’ जी द्वारा लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखन का उद्देश्य जनसामान्य को ‘ कालीनय’ का परिचय करवाना है।

भारतीय आचार्यों की परम्परा के अनुरुप प्रारम्भ में ‘अनुबंधचतुष्टय’ का लेखन किया गया है जो पुस्तक की विषयवस्तु, प्रयोजन, सम्बंध तथा अधिकार का वर्णन करता है। पुस्तक में क्रमनय के इतिवृत्त ताथा क्रम की विविध शाखाओं की चर्चा की गई है। महानयप्रकाश, द्वादशकालीपूजाविधि:, कालीकुलक्रमार्चापद्धति, जयद्रथयामल आदि ग्रंथों के अनुसार क्रमार्चा ( श्रीसंकर्षिणी तथा द्वादश कालियों का याग) का निरूपण किया गया है।१२/१३ अथवा १६/१७ कालियों को संख्या को लेकर पारंपरिक रुप से चलते आए हुए प्रश्न का क्रमागमों के आधार पर समन्वयात्मक उत्तर देने का प्रयास किया गया है।

आगामी अध्यायों में क्रमदर्शन में दीक्षा तथा सपर्या का सप्रमाण वर्णन किया गया है। अपर अध्याय में नेपाल एवं काश्मीर की शाक्त परम्परा पर क्रमनय के प्रभाव को उल्लिखित किया है। पाठकों के लाभार्थ परिशिष्ट में क्रमसद्भाव में वर्णित भैरवकृत ‘कालसंकर्षिणीस्तोत्र’ का भाषाभाष्य दिया गया है।
( क्रमश:)

नमो अमृतेश्वरभैरवाय

द्वारेशा नवरन्ध्रगा हृदयगो वास्तुर्गणेशो मनः
शब्दाद्या गुरवः समीरदशकं त्वाधारशक्त्यात्मकम् ।
चिद्देवोऽथ विमर्शशक्तिसहितः षाड्गुण्यमङ्गावलिर्
लोकेशः करणानि यस्य महिमा तं नेत्रनाथं स्तुमः॥

॥ अघोररुद्रचण्डीध्यानम् ॥

या देवी खडगहस्ता सकलजनपदव्यापिनी विश्वदुर्गा
श्यामाङ्गी शुक्लपाशा द्विजगणगणिता ब्रह्मदेहार्धवासा। ज्ञानानां साधयन्ति यतिगिरिगमनज्ञानदिव्यप्रबोधा
सा देवी दिव्यमूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्डमुण्डप्रचण्डा ॥

भैरवस्तोत्रम्

नमः तेजस्वरूपाय रश्मिचक्रधराय च ।
सृष्टिरूपाय देवाय तथास्थितिकराय च ॥
अवतारक्रमस्थाय कालिचक्रस्थिताय च ।
महासंहाररूपाय नमोमूर्तस्वरूपिणे ॥
नमश्चन्द्रार्कसद्ग्रास परितृप्ताय शासिने ।
चिद्रहस्यसमंदीप्त भैरवाय नमो नमः॥ (जयद्रथयामले)

Photo Credit – Sri S. Saha

सरलशिवपूजाविधिः

श्रावणमास भगवान शिव को अत्यंत्य प्रियकर हैं , अतः मुमुक्षु तथा भुभुक्षु दोनों प्रकार के साधकों को इस मास में अनिवार्य रूप से शिवपुजन करना चाहिए। वे साधक जो समयाभाव अथवा द्रव्याभाव से विस्तार पूर्वक शिवपूजा नहीं कर सकते तथा जनसामान्य जो निगमागमादि शास्त्रोक्तविधि से शिवपूजा करने में असमर्थ है , उन सभी के सहायतार्थ अत्यन्तस्वल्प शिवपूजा की विधि को लिखा जाता हैं।

साधक अपने सम्मुख नर्मदेश्वर/बाणलिङ्ग /पार्थिव शिवलिङ्ग (तीर्थक्षेत्र की मिट्टीका बना लिंग)/पारदेश्वर (पारद का बना लिंग) अथवा भगवान शिव का चित्रपट भद्रपीठ/बाजौट अथवा पात्र में स्थापित करें । पञ्चाक्षरमन्त्र से भस्म का त्रिपुण्ड तथा रुद्राक्ष मालिका धारणे करें । कुश अथवा कम्बल के आसान को बिछाकर उसका पूजन करें , तत्पश्चात् आसान पर बैठकर तीन बार आचमन तथा प्राणायाम करें । पुनः हाथ में जलगंधपुष्प रखकर देशकालादि का संकीर्तन करते हुए संकल्प वाक्य का पाठ करें ।  तत्पश्चात् शिवासन (जिस भद्रपीठ/बाजौट अथवा पात्र में लिङ्ग स्थापित किया गया हैं।) की पूजा करें । हाथ मे जल, गन्ध, बिल्वपत्र, अर्कपुष्प (आंकडा) लेकर लिङ्ग में भगवान शिव की मूर्ति का पूजन करें। ध्यानश्लोक का पाठ कर भगवान शिव के चैतन्य का आवाहन लिङ्ग में करें।  तत्पश्चात जो भी उपचार उपलब्ध होवें उनसे लिङ्ग में भगवान शिव का पूजन पंचाक्षर मंत्र से करें । द्रव्यों का आभाव होने पर पुष्प, पत्र तथा जल से ही पूजन करें । अगले दो मंत्रो से संक्षेप में भगवान शिव के पांचमुखों तथा छः अंगो के एकावरण का पूजन करें । तत्पश्चात् लिङ्ग की पीठिका (योनि/आधार) में भगवती पार्वती का पूजन करें। तत्पश्चात पुष्पांजलि देकर भगवान का विसर्जन करें ।

त्रिपुण्डधारण । रुद्राक्षमालिकाधारण ।
आसानपूजा ॐ कुर्मासनाय नमः॥
आचमन । प्राणायाम । संकल्प
ॐ अद्य० श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं स्वल्पविधानेन शिवपूजामहं
करिष्ये ॥ 
ॐ शिवासनाय नमः॥
ॐ शिवमूर्तये नमः॥
शङ्खकुन्देन्दुधवलं त्रिनेत्रं रुद्ररूपिणम् ।
सदाशिवेन रूपेण वृषारूढं विचिन्तयेत् ॥
चतुर्भुजं महात्मानं शूलाभयसमन्वितम् ।
मातुलुङ्गधरं देवमक्षसूत्रधरं प्रभुम् ॥
ॐ नमः शिवाय आवाहयामी स्थापयामी ॥
ॐ नमः शिवाय ॥
ॐ पञ्चवक्त्रेभ्यो नमः॥
ॐ षडङ्गेभ्यो नमः॥
ॐ नमः शिवायै ॥
ॐ नमः शिवाय उद्वासयामि ॥ 

(𑆯𑆳𑆫𑆢𑆳𑆬𑆴𑆥𑆴 𑆩𑆼𑆁 )
𑆠𑇀𑆫𑆴𑆥𑆶𑆟𑇀𑆝𑆣𑆳𑆫𑆟 𑇅 𑆫𑆶𑆢𑇀𑆫𑆳𑆑𑇀𑆰𑆩𑆳𑆬𑆴𑆑𑆳𑆣𑆳𑆫𑆟 𑇅
𑆄𑆱𑆳𑆤𑆥𑆷𑆘𑆳 𑆏𑆀 𑆑𑆶𑆫𑇀𑆩𑆳𑆱𑆤𑆳𑆪 𑆤𑆩𑆂𑇆
𑆄𑆖𑆩𑆤 𑇅 𑆥𑇀𑆫𑆳𑆟𑆳𑆪𑆳𑆩 𑇅 𑆱𑆁𑆑𑆬𑇀𑆥
𑆏𑆀 𑆃𑆢𑇀𑆪𑇐 𑆯𑇀𑆫𑆵𑆥𑆫𑆩𑆼𑆯𑇀𑆮𑆫𑆥𑇀𑆫𑆵𑆠𑇀𑆪𑆫𑇀𑆡𑆁 𑆱𑇀𑆮𑆬𑇀𑆥𑆮𑆴𑆣𑆳𑆤𑆼𑆤 𑆯𑆴𑆮𑆥𑆷𑆘𑆳𑆩𑆲𑆁
𑆑𑆫𑆴𑆰𑇀𑆪𑆼 𑇆
𑆏𑆀 𑆯𑆴𑆮𑆳𑆱𑆤𑆳𑆪 𑆤𑆩𑆂𑇆
𑆏𑆀 𑆯𑆴𑆮𑆩𑆷𑆫𑇀𑆠𑆪𑆼 𑆤𑆩𑆂𑇆
𑆯𑆕𑇀𑆒𑆑𑆶𑆤𑇀𑆢𑆼𑆤𑇀𑆢𑆶𑆣𑆮𑆬𑆁 𑆠𑇀𑆫𑆴𑆤𑆼𑆠𑇀𑆫𑆁 𑆫𑆶𑆢𑇀𑆫𑆫𑆷𑆥𑆴𑆟𑆩𑇀 𑇅
𑆱𑆢𑆳𑆯𑆴𑆮𑆼𑆤 𑆫𑆷𑆥𑆼𑆟 𑆮𑆸𑆰𑆳𑆫𑆷𑆞𑆁 𑆮𑆴𑆖𑆴𑆤𑇀𑆠𑆪𑆼𑆠𑇀 𑇆
𑆖𑆠𑆶𑆫𑇀𑆨𑆶𑆘𑆁 𑆩𑆲𑆳𑆠𑇀𑆩𑆳𑆤𑆁 𑆯𑆷𑆬𑆳𑆨𑆪𑆱𑆩𑆤𑇀𑆮𑆴𑆠𑆩𑇀 𑇅
𑆩𑆳𑆠𑆶𑆬𑆶𑆕𑇀𑆓𑆣𑆫𑆁 𑆢𑆼𑆮𑆩𑆑𑇀𑆰𑆱𑆷𑆠𑇀𑆫𑆣𑆫𑆁 𑆥𑇀𑆫𑆨𑆶𑆩𑇀 𑇆
𑆏𑆀 𑆤𑆩𑆂 𑆯𑆴𑆮𑆳𑆪 𑆄𑆮𑆳𑆲𑆪𑆳𑆩𑆵 𑆱𑇀𑆡𑆳𑆥𑆪𑆳𑆩𑆵 𑇆
𑆏𑆀 𑆤𑆩𑆂 𑆯𑆴𑆮𑆳𑆪 𑇆
𑆏𑆀 𑆥𑆚𑇀𑆖𑆮𑆑𑇀𑆠𑇀𑆫𑆼𑆨𑇀𑆪𑆾 𑆤𑆩𑆂𑇆
𑆏𑆀 𑆰𑆝𑆕𑇀𑆓𑆼𑆨𑇀𑆪𑆾 𑆤𑆩𑆂𑇆
𑆏𑆀 𑆤𑆩𑆂 𑆯𑆴𑆮𑆳𑆪𑆽 𑇆
𑆏𑆀 𑆤𑆩𑆂 𑆯𑆴𑆮𑆳𑆪 𑆇𑆢𑇀𑆮𑆳𑆱𑆪𑆳𑆩𑆴 𑇆

( বাংলায়)
ত্রিপুণ্ডধারণ । রুদ্রাক্ষমালিকাধারণ ।
আসানপূজা ওঁ কুর্মাসনায় নমঃ॥
আচমন । প্রাণায়াম । সংকল্প
ওঁ অদ্য০ শ্রীপরমেশ্বরপ্রীত্যর্থং স্বল্পবিধানেন শিবপূজামহং
করিষ্যে ॥
ওঁ শিবাসনায় নমঃ॥
ওঁ শিবমূর্তয়ে নমঃ॥
শঙ্খকুন্দেন্দুধবলং ত্রিনেত্রং রুদ্ররূপিণম্ ।
সদাশিবেন রূপেণ বৃষারূঢং বিচিন্তয়েৎ ॥
চতুর্ভুজং মহাত্মানং শূলাভয়সমন্বিতম্ ।
মাতুলুঙ্গধরং দেবমক্ষসূত্রধরং প্রভুম্ ॥
ওঁ নমঃ শিবায় আবাহয়ামী স্থাপয়ামী ॥
ওঁ নমঃ শিবায় ॥
ওঁ পঞ্চবক্ত্রেভ্যো নমঃ॥
ওঁ ষডঙ্গেভ্যো নমঃ॥
ওঁ নমঃ শিবায়ৈ ॥
ওঁ নমঃ শিবায় উদ্বাসয়ামি ॥

( ગુજરાતી લિપિમાં )

ત્રિપુણ્ડધારણ । રુદ્રાક્ષમાલિકાધારણ ।
આસાનપૂજા ૐ કુર્માસનાય નમઃ॥
આચમન । પ્રાણાયામ । સંકલ્પ
ૐ અદ્ય૦ શ્રીપરમેશ્વરપ્રીત્યર્થં સ્વલ્પવિધાનેન શિવપૂજામહં કરિષ્યે ॥
ૐ શિવાસનાય નમઃ॥
ૐ શિવમૂર્તયે નમઃ॥
શઙ્ખકુન્દેન્દુધવલં ત્રિનેત્રં રુદ્રરૂપિણમ્ ।
સદાશિવેન રૂપેણ વૃષારૂઢં વિચિન્તયેત્ ॥
ચતુર્ભુજં મહાત્માનં શૂલાભયસમન્વિતમ્ ।
માતુલુઙ્ગધરં દેવમક્ષસૂત્રધરં પ્રભુમ્ ॥
ૐ નમઃ શિવાય આવાહયામી સ્થાપયામી ॥
ૐ નમઃ શિવાય ॥
ૐ પઞ્ચવક્ત્રેભ્યો નમઃ॥
ૐ ષડઙ્ગેભ્યો નમઃ ॥
ૐ નમઃ શિવાયૈ ॥
ૐ નમઃ શિવાય ઉદ્વાસયામિ ॥

चतुर्वेदीय-यज्ञोपवीत-धारणमन्त्राः

॥ पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥

चारों वेद की विभिन्न शाखाओं के द्विज गणो के हितार्थ यज्ञसूत्र धारण के मन्त्रों का संग्रह करता हूं ।
सर्वप्रथम अपनी शाखा के अनुसार आचमन कर प्राणायाम करें । तदनंतर स्वसंप्रदाय के अनुसार यज्ञोपवीत धारण का संकल्प करें । ( शाक्त, शैव , स्मार्त तथा वैष्णव संप्रदायों के संकल्पवाक्य में भेद हैं ।) तत्पश्चात् यज्ञोपवीत धारण मंत्र का विनियोग पढ़कर ३ बार जल छोड़े । ( # दाक्षिणात्य विनियोग पढ़कर ब्रह्मरंध , मुख तथा ह्रदय का स्पर्श करते हैं । उत्तर भारत में ३ बार जल छोड़ेने की परिपाटी हैं। )
अपने वेद की शाखा के अनुसार मंत्र पढ़कर यज्ञसुत्र धारण करें।
(१)अथर्ववेदीब्राह्मण
( मुख्यतः गुर्जरदेशीय नागरब्राह्मण , उत्कलदेशीयब्राह्मण, कश्मीरीब्राह्मण जिनकी शाखा पैप्पलाद हैं । ) निम्न मंत्र से यज्ञोपवीत धारण करें।
ॐ पिप्पलाद ऋषिः । यजुष्छन्दः। लिङ्गोक्तदेवता ।
यज्ञॊपवितधारणे विनियोगः ॥
ॐ तत्तेऽहं तन्तु बध्नाम्यायुषे वर्चसे ओजसे तेजसे यशसे ब्रह्मवर्चसाय च ॥

(२) ऋग्वेदीब्राह्मण
( शांखायन तथा अश्वालायन शाखा के )
निम्न मंत्र से यज्ञोपवीत धारण करें।
ॐ परमेष्ठीप्रजापति ऋषि: । यजुष्छन्दः। लिङ्गोक्तदेवता । यज्ञॊपवितधारणे विनियोगः ॥
ॐ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्यत्वोपवीतेनोपनह्यामि॥

(३) शुक्लयजुर्वेदी (उत्तर भारत के अधिकांश ब्राह्मण वाजसनेयी हैं। ) तथा कठयजुर्वेदी (कश्मीरीपण्डित ) निम्न मंत्र से यज्ञोपवीत धारण करें।
ॐ परमेष्ठीप्रजापति ऋषि: । त्रिष्टुप्छन्दः। लिङ्गोक्तदेवता । यज्ञॊपवितधारणे विनियोगः ॥
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतम् बलमस्तु तेज: ॥

(४) सामवेदी ब्राह्मण निम्न मंत्र से यज्ञोपवीत धारण करें।
ॐ परमेष्ठीप्रजापति ऋषि: । यजुष्छन्दः। लिङ्गोक्तदेवता । यज्ञॊपवितधारणे विनियोगः ॥
ॐ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि॥

तत्पश्चात् निम्न मंत्र से जीर्ण सूत्र का त्याग करें।
ॐ एतावद् दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया । जीर्णात्वात् त्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथासुखं ॥
पुनः आचमन कर यथाशक्ति गायत्रीमंत्र का जप करें । स्वेष्टदेवता को कर्म समर्पित करें।

laugAkShIshikShA

laugAkShI shikShA is sermon by laugAkShI maharShi
on varNAshramadharma & AchAra for kaThashAkhinuyAyi vipravarga (brAhmaNas who are followers of kRRiShNayajurveda kaThashAkhA = kashmIrIpaNDita ).This seems to be part of larger corpus ” laugAkShI dharmasUtram “which is no longer available .laugAkShI shikShA have 3 parts .
1. shaucha shikShA– This part deals with cleaness and daily rituals like sandhyA , tarpaNa & bhojanavidhi .
2. vrata shikShA– This portion of laugAkShIshikShA
deals with rules & regulations to be followed by young initiate (brahmachArI) with discription of avakirNIprAyashchitta . This is atonment rite one need to perform when one fails to observe celebacy .
3. Achara shikShA– This part deals with the moral chode of conduct an young initiate need to observe .

॥श्रीधूमावतीनामाष्टकस्तोत्र॥

भद्रकाली महाकाली डमरूवाद्यकारिणी । स्फारितनयना चैव टङ्कटङ्कितहासिनी ॥ धूमावती जगत्कर्त्री शुर्पहस्ता तथैव च । अष्टनामात्मकं स्तोत्रं यः पठेद्भक्ति सँयुक्त:। तस्य सर्वार्थसिद्धि:स्यात् सत्यं सत्यं हि पार्वति ॥

इन्द्राक्षीस्तोत्रम्

भगवति इन्द्राक्षी का अत्यंतप्रभावशाली स्तोत्र इन्द्र कृत है । इस स्तोत्र की देवता के अनुग्रह से समस्त कष्ट , सङ्कट, कुदृष्टि, अभिचार , रोग आदि का शमन होता है और साधक की अभीष्ट कामना की सिद्धि होती है । इन्द्राक्षी देवी का यह स्तोत्र गर्भरक्षार्थ एवं बालरक्षार्थ विशेष रूप से प्रयुक्त होता है । भगवति इन्द्राक्षी की उपासना कश्मीराचारे से सम्बंधित है । कश्मीर के ही साथ किरातदेश नेपाल में भी इन्द्राक्षी की उपासना का प्रचलन है । कश्मीर के उन पूज्य महामाहेश्वरो , उन महाशाक्तो के सांस्कृतिक उत्तराधिकारी कश्मीरी पंडितो में आज भी श्रीइन्द्राक्षीस्तोत्र के पाठ का प्रचलन है।

॥ पूर्वन्यासः॥

अस्य श्री इन्द्राक्षीस्तोत्रमहामन्त्रस्य।

श्रीपुरन्दर ऋषिः। अनुष्टुप् छन्दः। इन्द्राक्षी दुर्गा देवता। लक्ष्मीर्बीजं। भुवनेश्वरीति शक्तिः। भवानीति कीलकम् । इन्द्राक्षीप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

करन्यासः

ॐ इन्द्राक्षीत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ महालक्ष्मीति तर्जनीभ्यां नमः । ॐ।

माहेश्वरीति मध्यमाभ्यां नमः । ॐ

अम्बुजाक्षीत्यनामिकाभ्यां नमः । ॐ कात्यायनीति कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ कौमारीति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । ॥ अङ्गन्यासः॥ ॐ इन्द्राक्षीति हृदयाय नमः । ॐ महालक्ष्मीति शिरसे स्वाहा । ॐ माहेश्वरीति शिखायै वषट् । ॐ अम्बुजाक्षीति कवचाय हुम् । ॐ कात्यायनीति नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ कौमारीति अस्त्राय फट् । ॐ भूर्भुवः स्वरोम् इति दिग्बन्धः ॥

ध्यानम्

नेत्राणां दशभिश्शतैः परिवृतामत्युग्रचर्माम्बरां हेमाभां महतीं विलम्बितशिखामामुक्तकेशान्विताम् । घण्टामण्डितपादपद्मयुगलां नागेन्द्रकुम्भस्तनीमिन्द्राक्षीं परिचिन्तयामि मनसा कल्पोक्तसिद्धिप्रदाम् ॥ इन्द्राक्षीं द्विभुजां देवीं पीतवस्त्रद्वयान्विताम् । वामहस्ते वज्रधरां दक्षिणेन वरप्रदाम् ॥ इन्द्राक्षीं सहस्रयुवतीं नानालङ्कारभूषिताम् । प्रसन्नवदनाम्भोजां अप्सरोगणसेविताम् ॥ द्विभुजां सौम्यवदनां पाशाङ्कुशधरां परा । त्रैलोक्यमोहिनीं देवीमिन्द्राक्षीनामकीर्तिताम् ॥ पीताम्बरां वज्रधरैकहस्तां नानाविधालङ्करणां प्रसन्नाम् । त्वामप्सरस्सेवितपादपद्माम् इन्द्राक्षि वन्दे शिवधर्मपत्नीम् ॥ इन्द्रादिभिः सुरैर्वन्द्यां वन्दे शङ्करवल्लभाम् । एवं ध्यात्वा महादेवीं जपेत् सर्वार्थसिद्धये ॥ लं पृथिव्यात्मने गन्धं समर्पयामि । हं आकाशात्मने पुष्पैः पूजयामि । यं वाय्वात्मने धूपमाघ्रापयामि । रं अग्न्यात्मने दीपं दर्शयामि । वं अमृतात्मने अमृतं महानैवेद्यं निवेदयामि । सं सर्वात्मने सर्वोपचारपूजां समर्पयामि

। वज्रिणी पूर्वतः पातु चाग्नेय्यां परमेश्वरी । दण्डिनी दक्षिणे पातु नैरॄत्यां पातु खड्गिनी ॥१॥ पश्चिमे पाशधारी च ध्वजस्था वायुदिङ्मुखे । कौमोदकी तथोदीच्यां पात्वैशान्यां महेश्वरी ॥२॥ उर्ध्वदेशे पद्मिनी मामधस्तात् पातु वैष्णवी । एवं दशदिशो रक्षेत् सर्वदा भुवनेश्वरी ॥३॥ इन्द्र उवाच ॥ इन्द्राक्षी नाम सा देवी दैवतैः समुदाहृता । गौरी शाकम्भरी देवी दुर्गा नाम्नीति विश्रुता ॥४॥ नित्यानन्दा निराहारा निष्कलायै नमोऽस्तु ते । कात्यायनी महादेवी चन्द्रघण्टा महातपाः ॥५॥ सावित्री सा च गायत्री ब्रह्माणी ब्रह्मवादिनी । नारायणी भद्रकाली रुद्राणी कृष्णपिङ्गला ॥६॥ अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी । मेघस्वना सहस्राक्षी विकराङ्गी जडोदरी ॥७॥ महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला । अजिता भद्रदाऽनन्ता रोगहर्त्री शिवप्रदा ॥८॥ शिवदूती कराली च प्रत्यक्षपरमेश्वरी । इन्द्राणी इन्द्ररूपा च इन्द्रशक्तिः परायणा ॥९॥ सदा संमोहिनी देवी सुन्दरी भुवनेश्वरी । एकाक्षरी परब्रह्मस्थूलसूक्ष्मप्रवर्धिनी ॥१०॥ रक्षाकरी रक्तदन्ता रक्तमाल्याम्बरा परा । महिषासुरहन्त्री च चामुण्डा खड्गधारिणी ॥११॥ वाराही नारसिंही च भीमा भैरवनादिनी । श्रुतिः स्मृतिर्धृतिर्मेधा विद्या लक्ष्मीः सरस्वती ॥१२॥ अनन्ता विजयाऽपर्णा मानस्तोकाऽपराजिता । भवानी पार्वती दुर्गा हैमवत्यम्बिका शिवा ॥१३॥ शिवा भवानी रुद्राणी शङ्करार्धशरीरिणी । ऐरावतगजारूढा वज्रहस्ता वरप्रदा ॥१४॥ नित्या सकलकल्याणी सर्वैश्वर्यप्रदायिनी । दाक्षायणी पद्महस्ता भारती सर्वमङ्गला ॥१५॥ कल्याणी जननी दुर्गा सर्वदुर्गविनाशिनी । इन्द्राक्षी सर्वभूतेशी सर्वरूपा मनोन्मनी ॥१६॥ महिषमस्तकनृत्यविनोदनस्फुतरणन्मणिनूपुरपादुका । जननरक्षणमोक्षविधायिनी जयतु शुम्भनिशुम्भ निषूदिनी ॥१७॥ सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तुते ॥१८॥ ॐ ह्रीं श्रीं इन्द्राक्ष्यै नमः। ॐ नमो भगवति। इन्द्राक्षि। सर्वजनसंमोहिनि। कालरात्रि। नारसिंहि। सर्वशत्रुसंहारिणि । अनले। अभये। अजिते। अपराजिते। महासिंहवाहिनि। महिषासुरमर्दिनि । हन हन। मर्दय मर्दय। मारय मारय। शोषय शोषय। दाहय दाहय। महाग्रहान् संहर संहर ॥१९॥ यक्षग्रहराक्षसग्रहस्कन्धग्रहविनायकग्रहबालग्रहकुमारग्रह भूतग्रहप्रेतग्रहपिशाचग्रहाअदीन् मर्दय मर्दय ॥२०॥ भूतज्वरप्रेतज्वरपिशाचज्वरान् संहर संहर । धूमभूतान् सन्द्रावय सन्द्रावय । शिरश्शूलकटिशूलाङ्गशूलपार्श्वशूल पाण्डुरोगादीन् संहर संहर ॥२१॥ यरलवशषसह। सर्वग्रहान् तापय तापय। संहर संहर। छेदय छेदय ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् स्वाहा ॥२२॥ गुह्यात्गुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्मयि स्थिरा ॥२३॥ फलश्रुतिः नारायण उवाच ॥ एवं नामवरैर्देवी स्तुता शक्रेण धीमता । आयुरारोग्यमैश्वर्यमपमृत्युभयापहम् ॥१॥ वरं प्रादान्महेन्द्राय देवराज्यं च शाश्वतम् । इन्द्रस्तोत्रमिदं पुण्यं महदैश्वर्यकारणम् ॥२॥ क्षयापस्मारकुष्ठादितापज्वरनिवारणम् । चोरव्याघ्रभयारिष्ठवैष्णवज्वरवारणम् ॥३॥ माहेश्वरमहामारीसर्वज्वरनिवारणम् । शीतपैत्तकवातादिसर्वरोगनिवारणम् ॥४॥ शतमावर्तयेद्दस्तु मुच्यते व्याधिबन्धनात् । आवर्तनसहस्रात्तु लभते वाञ्छितं फलम् ॥५॥ राजानं च समाप्नोति इन्द्राक्षीं नात्र संशय । नाभिमात्रे जले स्थित्वा सहस्रपरिसंख्यया ॥६॥ जपेत्स्तोत्रमिदं मन्त्रं वाचासिद्धिर्भवेद्ध्रुवम् । सायंप्रातः पठेन्नित्यं षण्मासैः सिद्धिरुच्यते ॥७॥ संवत्सरमुपाश्रित्य सर्वकामार्थसिद्धये । अनेन विधिना भक्त्या मन्त्रसिद्धिः प्रजायते ॥८॥ सन्तुष्टा च भवेद्देवी प्रत्यक्षा सम्प्रजायते । अष्टम्यां च चतुर्दश्यामिदं स्तोत्रं पठेन्नरः ॥९॥ धावतस्तस्य नश्यन्ति विघ्नसंख्या न संशयः । कारागृहे यदा बद्धो मध्यरात्रे तदा जपेत् ॥१०॥ दिवसत्रयमात्रेण मुच्यते नात्र संशयः । सकामो जपते स्तोत्रं मन्त्रपूजाविचारतः ॥११॥ पञ्चाधिकैर्दशादित्यैरियं सिद्धिस्तु जायते । रक्तपुष्पै रक्तवस्त्रै रक्तचन्दनचर्चितैः ॥१२॥ धूपदीपैश्च नैवेद्यैः प्रसन्ना भगवती भवेत् । एवं सम्पूज्य इन्द्राक्षीमिन्द्रेण परमात्मना ॥१३॥ वरं लब्धं दितेः पुत्रा भगवत्याः प्रसादतः । एतत् स्त्रोत्रं महापुण्यं जप्यमायुष्यवर्धनम् ॥१४॥ ज्वरातिसाररोगाणामपमृत्योर्हराय च । द्विजैर्नित्यमिदं जप्यं भाग्यारोग्यमभीप्सुभिः ॥१५॥ ॥ इति इन्द्राक्षीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

|| परात्रिम्शिका|| 


श्रीदेव्य् उवाच 

अनुत्तरं कथं देव स्वतः कौलिकसिद्धिदम् |
येन विज्ञातमात्रेण खेचरीसमतां व्रजेत् || १ ||

एतद् गुह्यं महागुह्यं कथयस्व मम प्रभो |
हृदयस्था तु या शक्तिः कौलिनी कुलनायिका || २ ||

ताम् मे कथय देवेश येन तृप्तिं व्रजाम्य् अहम् |

श्रीभैरव उवाच 

शृणु देवि महाभगे उत्तरस्याप्य् अनुत्तरम् || ३ ||

कथयामि न संदेहः सद्यः कौलिकसिद्धिदम् |
कौलिको ऽयं विधिर् देवि मम हृद्व्योम्न्य् अवस्थितः || ४ ||

अथाद्यास् तिथयः सर्वे स्वरा बिन्द्ववसानकाः |
तदन्तः कालयोगेन सोमसूर्यौ प्रकीर्तितौ || ५ ||

पृथिव्यादीनि तत्त्वानि पुरुषान्तानि पञ्चसु |
क्रमात् कादिषु वर्गेषु मकारान्तेषु सुव्रते || ६ ||

वाय्वग्निसलिलेन्द्राणां धारणानां चतुष्टयम् |
तदूर्ध्वे शादिविख्यातम् पुरस्ताद् ब्रह्मपञ्चकम् || ७ ||

अमूला तत्क्रमा ज्ञेया क्षान्ता सृष्टिर् उदाहृता |
सर्वेषां चैव मन्त्राणां विद्यानां च यशस्विनि || ८ ||

इयं योनिः समाख्याता सर्वतन्त्रेषु सर्वदा |
चतुर्दशयुतं भद्रे तिथीशान्तसमन्वितम् |
तृतीयम् ब्रह्म सुश्रोणि हृदयम् भैरवात्मनः || ९ ||

एतन् ना योगिनीजातो ना रुद्रो लभते स्फुटम् |
हृदयं देवदेवस्य सद्यो योगविमोक्षदम् || १० ||

अस्योच्चारे कृते सम्यङ् मन्त्रमुद्रागणो महान् |
सद्यः सन्मुखताम् एति स्वदेहावेशलक्षणम् || ११ ||

मुहूर्तं स्मरते यस् तु चुम्बके नाभिमुद्रितः |
स बध्नाति तदा देहं मन्त्रमुद्रागणं नरः || १२ ||

अतीतानागतानर्थान् पृष्टो ऽसौ कथयत्य् अपि |
प्रहराद् यद् अभिप्रेतं देवतारूपम् उच्चरन् || १३ ||

सक्षात् पश्यत्य् असंदिग्धम् आकृष्टं रुद्रसक्तिभिः |
प्रहरद्वयमात्रेण व्योमस्थो जायते स्मरन् || १४ ||

त्रयेण मातरः सर्वा योगेस्वर्यो महाबलाः |
वीरा वीरेस्वराः सिद्धा बलवान् शाकिनीगणः || १५ ||

आगत्य समयं दत्त्वा भैरवेण प्रचोदिताः |
यच्छन्ति परमां सिद्धिं फलं यद् वा समीहितम् || १६ ||

अनेन सिद्धाः सेत्स्यन्ति साधयन्ति च मन्त्रिणः || १७ ||

यत्किंचिद् भैरवे तन्त्रे सर्वम् अस्मात् प्रसिध्यति |
मन्त्रवीर्यसमावेशप्रभावान् न नियन्त्रिणा || १८ ||

अदृष्टम.ङ्दलो ऽप्य् एवम् यः कश्चिद् वेत्ति तत्त्वतः |
स सिद्धिभाग् भवेन् नित्यं स योगी स च दीक्षीतः || १९ ||

अनेन ज्ञातमात्रेण ज्ञायते सर्वशक्तिभिः |
शाकिनीकुलसामान्यो भवेद् योगं विनापि हि || २० ||

अविधिज्ञो विधानज्ञो जायते यजनं प्रति |
कालाग्निम् आदितः कृत्वा मायान्तम् ब्रह्मदेहगम् || २१ ||

शिवो विश्वद्यनन्तान्तः परं शक्तित्रयं मतम् |
तदन्तर् वर्ति यत्किंचिच् छुद्धमार्गे व्यवस्थितम् || २२ ||

अणुर् विशुद्धम् अचिराद् ऐस्वरं ज्ञानम् अश्नुते |
तच्चोदकः शिवो ज्ञेयः सर्वज्ञः परमेश्वरः || २३ ||

सर्वगो निर्मलः स्वच्छस् तृप्तः स्वायतनः शुचिः |
यथा न्यग्रोधबीजस्थः शक्तिरूपो महाद्रुमः || २४ ||

तथा हृदयबीजस्थं जगद् एतच् चराचरम् |
एवं यो वेत्ति तत्त्वेन तस्य निर्वाणगामिनी || २५ ||

दीक्षा भवत्य् असंदिग्धा तिलाज्याहुतिवर्जिता |
मूर्ध्नि वक्त्रे च हृदये गुह्ये मुर्तौ तथैव च || २६ ||

न्यासं क्र्त्वा शिखां बद्ध्वा सप्तविंसतिमन्त्रिताम् |
एकैकेन दिशां बन्धं दशानाम् अपि कारयेत् || २७ ||

तालत्रयम् पुरा दत्त्वा सशब्दं विघ्नशान्तये |
शिखासंख्याभिजप्तेन तोयेनाभ्युक्षयेत् ततः || २८ ||

पुष्पादिकं क्रमात् सर्वं लिङ्गं वा स्थ.ङ्दिलं च वा |
चतुर्दशाभिजप्तेन पुष्पेणासनकल्पना || २९ ||

तत्र सृष्टिं यजेद् वीरः पुनर् एवासनं ततः |
सृष्टिं तु सम्पुटीकृत्य पश्चाद् यजनम् आरभेत् || ३० ||

सर्वतत्त्वसुसम्पूर्णाम् सर्वावयवशोभिताम् |
यजेद् देवीं महाभागा सप्तविंशतिमन्त्रिताम् || ३१ ||

ततः सुगन्धिपुष्पैश् च यथाशक्त्या समर्चयेत् |
पूजयेत् परया भक्त्या स्वात्मनं च निवेदयेत् || ३२ ||

एवं यजनम् आख्यातम् अग्निकार्ये ऽप्य् अयं विधिः |
कृतपूजाविधिः सम्यक् स्मरन् बीजम् प्रसिद्ध्यति || ३३ ||

आद्यन्तरहितम् बीजं विकसत् तिथिमध्यगम् |
हृत्पद्मान्तर्गतं ध्यायेत् सोमांशुं नित्यम् अभ्यस्येत् || ३४ ||

यान् यान् कामयते कामांस् तान् ताञ् च्छीघ्रम् अवाप्नुयात् |
अज्ञः प्रत्यक्षताम् एति सर्वज्ञत्वं न संशयः || ३५ ||

एवं मन्त्रफलावप्तिर् इत्य् एतद् रुद्रयामलम् |
एतद् अभ्यासतः सिद्धिः सर्वज्ञत्वम् अवाप्यते || ३६||

|| महामहामाहेश्वर अभिनवगुप्ताचार्य कृत  क्रम स्तोत्रं ||


अयं दुःखव्रातव्रतपरिगमे पारणविधिर् महासौख्यासारप्रसरणरसे दुर्दिनम् इदम् |

यद् अन्यन्यक्कृत्या विषमविशिखप्लोषणगुरोर् विभोः स्तोत्रे
शश्वत् प्रतिफलति चेतो गतभयम् || १ ||

विमृश्य स्वात्मानं विमृशति पुनः स्तुत्यचरितं तथा
स्तोता स्तोत्रे प्रकटयति भेदैकविषये |
विमृष्टश् च स्वात्मा निखिलविषयज्ञानसमये तदित्थं
त्वत्स्तोत्रे ऽहम् इह सततं यत्नरहितः || २ ||

अनामृष्टः स्वात्मा न हि भवति भावप्रमितिभाज् अनामृष्टः
स्वात्मेत्य् अपि हि न विना ऽमर्शनविधेः |
शिवश् चासौ स्वात्मा स्फुरद् अखिलभावैकसरसस् ततो ऽहम्
त्वत्स्तोत्रे प्रवणहृदयो नित्यसुखितः || ३ ||

विचित्रैर् जात्यादिभ्रमणपरिपाटीपरिकरैर् अवाप्तम्
सार्वज्ञं हृदय यद् अयत्नेन भवता |
तद् अन्तस् त्वद्बोधप्रसरसरणीभूतमहसि स्फुटम् वाचि
प्राप्य प्रकटय विभोः स्तोत्रम् अधुना || ४ ||

विधुन्वानो बन्धाभिमतभवमार्गस्थितिम् इमां
रसीकृत्यानन्तस्तुतिहुतवहप्लोषितभेदाम् |
विचित्रस्वस्फारस्फुरितमहिमारम्भरभसात् पिबन् भावान्
एतान् वरद मदमत्तो ऽस्मि सुखितः || ५ ||

भव प्राज्यैश्वर्यप्रथितबहुशक्तेर् भगवतो विचित्रं
चारित्रं हृदयम् अधिशेते यदि ततः |
कथं स्तोत्रं कुर्याद् अथ च कुरुते तेन सहसा
शिवैकात्म्यप्राप्तौ शिवनतिर् उपायः प्रथमकः || ६ ||

ज्वलद्रूपं भास्वत्पचनम् अथ दाहं प्रकटनम्
विमुच्यान्यद् वह्नेः किम् अपि घटते नैव हि वपुः |
स्तुवे संविद्रश्मीन् यदि निजनिजांस् तेन स नुतो भवेन्
नान्यः कश्चिद् भवति परमेशस्य विभवः || ७ ||

विचित्रारम्भत्वे गलितनियमे यः किल रसः
परिच्छेदाभावात् परमपरिपूर्णत्वम् असमम् |
स्वयं भासां योगः सकलभवभावैकमयताविरुद्धैर्
धर्मौघैः परचितिर् अनर्घोचितगुणा || ८ ||

इतीदृक्षैर् रूपैर् वरद विविधं ते किल वपुर् विभाति
स्वांशे ऽस्मिन् जगति गतभेदं भगवतः |
तद् एवैतत्स्तोतुं हृदयम् अथ गीर्बाह्यकरणप्रबन्धाश् च
स्युर् मे सततम् अपरित्यक्तरभसः || ९ ||

तवैवैकस्यान्तः स्फुरितमहसो बोधजलधेर्
विचित्रोर्मिव्रातप्रसरणरसो यः स्वरसतः |
त एवामी सृष्टिस्थितिलयमयस्फूर्जितरुचां
शशाङ्कार्काग्नीनां युगपद् उदयापायविभवाः || १० ||

अतश् चित्राचित्रक्रमतदितरादिस्थितिजुषो विभोः शक्तिः
शश्वद् व्रजति न विभेदं कथम् अपि |
तद् एतस्यां भूमाव् अकुलम् इति ते यत् किल पदं
तदेकाग्रीभूयान् मम हृदयभूर् भैरव विभो || ११ ||

अमुष्मात् संपूर्नात् वत रसमहोल्लाससरसान् निजां शक्तिं
भेदं गमयसि निजेच्छाप्रसरतः |
अनर्घं स्वातन्त्र्यं तव तदिदम् अत्यद्भुतमयीं
भवच्छक्तिं स्तुन्वन् विगलितभयो ऽहं शिवमयः || १२ ||

इदन्तावद् रूपं तव भगवतः शक्तिसरसं
क्रमाभावाद् एव प्रसभविगलत् कालकलनम् |
मनःशक्त्या वाचाप्य् अथ करणचक्रैर् बहिर् अथो घटाद्यैस्
तद्रूपं युगपद् अधितिष्ठेयम् अनिशम् || १३ ||

क्रमोल्लासं तस्यां भुवि विरचयन् भेदकलनां
स्वशक्तीनां देव प्रथयसि सदा स्वात्मनि ततः |
क्रियाज्ञानेच्छाख्यां स्थितिलयमहासृष्टिविभवां त्रिरूपं
भूयासं समधिशयितुं व्यग्रहृदयः || १४ ||

पुरा सृष्टिर् लीना हुतवहमयी यात्र विलसेत्
परोल्लासौन्मुख्यं व्रजति शशिसंस्पर्शसुभगा |
हुताशेन्दुस्फारोभयविभवभाग् भैरवविभो तवेयं
सृष्ट्याख्या मम मनसि नित्यं विलसताम् || १५ ||

विसृष्टे भावांशे बहिर् अतिशयास्वादविरसे यदा
तत्रैव त्वं भजसि रभसाद् रक्तिमयताम् |
तदा रक्ता देवी तव सकलभावेषु ननु मां क्रियाद्
रक्तापानक्रमघटितगोष्ठीगतघृणम् || १६ ||

बहिर् वृत्तिं हातुं चितिभुवम् उदारां निवसितुं यदा
भावाभेदं प्रथयसि विनष्टोर्मिचपलः |
स्थितेर् नाशं देवी कलयति तदा सा तव विभो स्थितेः
सांसारिक्याः कलयतु विनाशं मम सदा || १७ ||

जगत्संहारेण प्रशमयितुकामः स्वरभसात्
स्वशङ्कातङ्काख्यं विधिम् अथ निषेधं प्रथयसि |
यमं सृष्ट्वेत्थं त्वं पुनर् अपि च शङ्कां विदलयन्
महादेवी सेयं मम भवभयं संदलयताम् || १८ ||

विलीने शङ्कौघे सपदि परिपूर्णे च विभवे गते
लोकाचारे गलितविभवे शास्त्रनियमे |
अनन्तं भोग्यौघं ग्रसितुम् अभितो लंपटरसा विभो
संहाराख्या मम हृदि भिदांशं प्रहरतु || १९ ||

तदित्थं देवीभिः सपदि दलिते भेदविभवे
विकल्पप्राणासौ प्रविलसति मातृस्थितिर् अलम् |
अतः संहारांशम् निजहृदि विमृश्य स्थितिमयी
प्रसन्ना स्यान् मृत्युप्रलयकरणी मे भगवती || २० ||

तदित्थं ते तिस्रो निजविभवविस्फारणवशाद् अवाप्ताः
षट्चक्रक्रमकृतपदं शक्तय इमाः |
क्रमाद् उन्मेषेण प्रविदधति चित्रां भवदशाम् इमाभ्यो
देवीभ्यः प्रवणहृदयः स्यां गतभयः || २१ ||

इमां रुन्धे भूमिं भवभयभिदातङ्ककरणीम् इमां
बोधैकान्तद्रुतिरसमयीम् चापि विदधे |
तदित्थं संरोधं द्रुतिम् अथ विलुप्याशुभततीर्
यथेष्टं चाचारं भजति लसतां सा मम हृदि || २२ ||

क्रियाबुद्ध्यक्षादेः परिमितपदे मानपदवीम् अवाप्तस्य
स्फारं निजनिजरुचा संहरति या |
इयं मार्त.ङ्दस्य स्थितिपदयुजः सारम् अखिलम् हठाद्
आकर्षन्ती कृशतु मम भेदं भवभयात् || २३ ||

समग्राम् अक्षालीं क्रमविरहिता सात्मनि मुहुर्
निवेश्यानन्तान्तर्बहलितमहारश्मिनिवहा |
परा दिव्यानन्दं कलयितुम् उदारादरवती प्रसन्ना मे
भूयात् हृदयपदवीं भूषयतु च || २४ ||

प्रमाणे संलीने शिवपदलसद्वैभववशात्
शरीरप्राणादिर् मितकृतकमातृस्थितिमयः |
यदा कालोपाधिः प्रलयपदम् आसादयति ते तदा देवी यासौ
लसति मम सा स्याच् छिवमयी || २५ ||

प्रकाशाख्या संवित् क्रमविरहिता शून्यपदतो
बहिर्लीनात्यन्तम् प्रसरति समाच्छादकतया |
ततो ऽप्य् अन्तःसारे गलितरभसाद् अक्रमतया महाकाली
सेयं मम कलयतां कालम् अखिलम् || २६ ||

ततो देव्यां यस्यां परमपरिपूर्णस्थितिजुषि क्रमं
विच्छिद्याशु स्थितिमतिरसात् संविदधति |
प्रमाणं मातारं मितिम् अथ समग्रं जगद् इदं स्थितां
क्रोडीकृत्य श्रयतु मम चित्तं चितिम् इमाम् || २७ ||

अनर्गलस्वात्ममये महेशे तिष्ठन्ति
यस्मिन् विभुशक्तयस् ताः |
तं शक्तिमन्तं प्रणमामि देवं
मन्थानसंज्ञं जगदेकसारम् || २८ ||

इत्थं स्वशक्तिकिरणौघनुतिप्रबन्धान् आकर्ण्य देव
यदि मे व्रजसि प्रसादम् |
तेनाशु सर्वजनतां
निजशासनांशुसंशान्तिताखिलतमःपटलां विधेयाः || २९ ||

षट्षष्टिनाम् एके वर्षे नवम्याम् असिते ऽहनि |
मया ऽभिनवगुप्तेन मार्गशीर्षे स्तुतः शिवः ||

|| श्रीअभिनवगुप्तपादाचार्यकृतं क्रमस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||

|| महामहामाहेश्वर अभिनवगुप्ताचार्य कृत भैरव स्तोत्रं ||

व्याप्तचराचरभावविशेषं चिन्मयम् एकम् अनन्तम् अनादिम् |
भैरवनाथम् अनाथशरण्यं त्वन्मयचित्ततया हृदि वन्दे || १ ||

त्वन्मयम् एतद् अशेषम् इदानीं भाति मम त्वदनुग्रहशक्त्या |
त्वं च महेश सदैव ममात्मा स्वात्ममयं मम तेन समस्तम् || २ ||

स्वात्मनि विश्वगये त्वयि नाथे तेन न संसृतिभीतिकथास्ति |
सत्स्व् अपि दुर्धरदुःखविमोहत्रासविधायिषु कर्मगणेषु || ३ ||

अन्तक मां प्रति मा दृशम् एनां क्रोधकरालतमां विनिधेहि |
शङ्करसेवनचिन्तनधीरो भीषणभैरवशक्तिमयो ऽस्मि || ४ ||

इत्थं उपोढभवन्मयसंविद्दीधितिदारितभूरितमिस्रः |
मृत्युयमान्तककर्मपिशाचैर् नाथ नमो ऽस्तु न जातु बिभेमि || ५ ||

प्रोदितसत्यविबोधमरीचिप्रेक्षितविश्वपदार्थसतत्त्वः |
भावपरामृतनिर्भरपूर्णे त्वय्य् अहम् आत्मनि निर्वृतिम् एमि || ६ ||

मानसगोचरम् एति यदैव क्लेशदशा ऽतनुतापविधात्री |
नाथ तदैव मम त्वदभेदस्तोत्रपरामृतवृष्टिर् उदेति || ७ ||

शङ्कर सत्यम् इदं व्रतदानस्नानतपो भवतापविदारि |
तावकशास्त्रपरामृतचिन्ता स्यन्दति चेतसि निर्वृतिधाराम् || ८ ||

नृत्यति गायति हृष्यति गाढं संविद् इयं मम भैरवनाथ |
त्वां प्रियम् आप्य सुदर्शनम् एकं दुर्लभम् अन्यजनैः समयज्ञम् || ९ ||

वसुरसपौषे कृष्णदशम्याम् अभिनवगुप्तः स्तवम् इमम् अकरोत् |
येन विभुर् भवमरुसन्तापं शमयति जनस्य झटिति दयालुः ||१०|| 

समाप्तम् स्तवम् इदम् अभिनवाख्यम् पद्यनवकम् ||

RAjNI stotra 

Wikipedia mentions :”rAjNI devi Maharagya was pleased with the devotion of Ravana and appeared before him and Ravana got an image of the Goddess installed in Sri Lanka. However, the Goddess became displeased with the vicious and licentious life of Ravana and so didn’t want to stay in Sri Lanka. Therefore, she is believed to have instructed Lord Hanuman to get the image from Sri Lanka and install it at the holy spot of Tul Mull. 


Though Ragniya is a Rupa of Durga, this one is a Vaishnav Rupa in Kashmir Ragniya is also known as Tripura, while in (Sri) Lanka, the Mother Goddess was called Shayama. Sita too, is believed to have been an incarnation of Ragniya. Ragniya Mahatmya has it that those who meditate on Panch Dashi Mantra during Nav-reh, Mother Ragniya grants their wish.”