śrī Porkkali

In the mysterious land of Kerala goddess Bhadrakālī is invoked in a number of regional forms. Instead of typical temple rituals (Tantrapaddhati), these divinities are adored with the folk śākteya rituals.
śrī Porkkali is a regional form of Bhadrakālī venerated by warriors from a number of castes.It is believed that she is the incarnation of Bhadrakālī who came with great ferocity (kali) for killing in battle (por). Which is why she’s named Porkkali.

śrī Porkkali is usually invoked in aniconic form.Nandakam/ Bhadrātmaja sword depict her present during rituals.
Many temples have a theyyam for her. Porkkali theyyam is a great theyyam with a long crown and facial apex. She is portrayed holding sowrd and sheild.
She’s dressed in a large crown of snakes. Her dress is red.

A number of śākteya practitioners invoke her to subjugate the enemy. A typical śākteya blood sacrifice (gurūthi) is offered to delight her.Typically bhāṣā mantras are used in his rituals.She is invoked by chanting the malayāla mantra.

To receive her blessings, you must worship the goddess Porkkali on the evening of Tuesdays and Fridays.She should be invoked in a lamp or sword. She should be offered red flowers, red sandalwood paste and red fabrics.Lamp,incense and steamed red rice should be offered to her.Then with one pointedness, he should recite her mantra 108 times. The ritual must be pursued until the desired results are achieved.


॥ śrī Porkkali Mantram ॥

Brahmā ṛṣiḥ। anuṣṭup chandaḥ। śrīPorkkalidevatā ।

śrī mahālakṣmi svāhā ṭhaṃ ṭhaṃ caṇḍapracaṇḍayoginī sarvvaśatrukkaleyuṃ veṭṭi niṇattekkuṭīcca niṇamenti nilkka svāhā rudhiranadiyil ninnuṃ asuradahanamūrti mātṛharī asuravadanacaṇḍī duṣṭanigrahārī caṇḍī ripumadhukaiṭabhārī śulakapāladhārī vaṭukadaṃṣṭradhārīdhārī kalapulī carmadhārī vetālī karālī gaurī gaṅkārī gaṃ namāmi oṃ namo bhagavati kālī kālī rudhirakoḍuṅkālī kālī raktachāmuṇḍī kālī āyiraṃ kālīyamme śrīPorkkali duṣṭanigraha hūm phaṭ svāhā॥

श्रीस्वच्छंदभैरव

भैरवागमों में वर्णित नाना भैरवमूर्तियों में ‘स्वच्छंदनाथ’ का प्राधान्य है। इनकी उपासना विशेष रुप से कश्मीर देश में होती थी। दक्षिणस्रोत के आगमों में ‘स्वच्छभैरवतन्त्र’ का प्राधान्य है। स्वच्छंदभैरवनाथ के आठ स्वरुप प्रधान है । इन आठ स्वरूपों का सम्बंध विविध स्रोत, आम्नाय तथा दीक्षा क्रमों से है। विभिन्न परंपराओं में इन आठ स्वरूपों की उपसाना की जाती है।
१. निष्कलस्वच्छन्दभैरव
२. सकलस्वच्छन्दभैरव
३. ललितस्वच्छन्दभैरव
४. कोटराक्षस्वच्छन्दभैरव
५. महास्वच्छन्दभैरव
६. व्याधिभक्षस्वच्छन्दभैरव
७. शिखास्वच्छन्दभैरव
८.वृद्धस्वच्छन्दभैरव

परवर्ती आम्नायक्रम के अनुसार निष्कल,सकल,कोटराक्ष,व्याधिभक्ष तथा महास्वच्छन्द
स्वरूपों की साधना दक्षिणाम्नाय से होती है। ललितस्वच्छन्द तथा शिखास्वच्छन्द पश्चिमाम्नाय में पूजित हैं। वृद्धस्वच्छन्दनाथ उत्तराम्नाय तथा दक्षिणाम्नाय उभय आम्नायों में उपासित होते हैं।

वर्तमान में भी साधक समाज अपनी- अपनी परम्परा के अनुरूप स्वच्छंदभैरवनाथ का यजन करते हैं। वर्तमान काशमीरक (काश्मीर देश के ब्राह्मण) पूर्वाचार्यों की परिपाटी के अनुरूप मृत्तिका के विशेष लिंग अथवा चललिंग में स्वच्छंददेव का अर्चन शिवरात्रि पर्व (हैरत) पर किया करते हैं।

वस्तुतः दीक्षा आदि के समय पंचवर्ण की रज से मण्डल बनाकर उसमें स्वच्छंददेव का यजन किया जाता था । स्वच्छतन्त्र ९.१२-१६ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। नवतत्त्व दीक्षा के उपलक्ष्य में नवनाभमण्डल अंकित किया जाता था। विकल्प से इनका अर्चन स्वयंभू लिंग में किया जा सकता है। विशेष ‘ श्रीमद् स्वच्छंद’ में देखना चाहिए।


( क्रमशः)

ब्रह्मादिकारणातीतं स्वशक्तयानन्दनिर्भरम् । नमामि परमेशानं स्वच्छन्दं वीरनायकम् ॥

कश्मीर का क्रमदर्शन – १

आगामी पुस्तक

‘ कश्मीर का क्रम दर्शन’ एक शोध परक ग्रन्थ है जिसके लेखन मैं दो वर्षों से अधिक समय लगा। भगवती श्रीसंकर्षिणी एवं पूर्वाचार्यों के अनुग्रह बल से इस पुस्तक को आकार देना सम्भव हुआ। लेखक के लिए यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि पुस्तक का प्राक्कथन शैवयोगिनी माता ‘प्रभादेवी’ जी द्वारा लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखन का उद्देश्य जनसामान्य को ‘ कालीनय’ का परिचय करवाना है।

भारतीय आचार्यों की परम्परा के अनुरुप प्रारम्भ में ‘अनुबंधचतुष्टय’ का लेखन किया गया है जो पुस्तक की विषयवस्तु, प्रयोजन, सम्बंध तथा अधिकार का वर्णन करता है। पुस्तक में क्रमनय के इतिवृत्त ताथा क्रम की विविध शाखाओं की चर्चा की गई है। महानयप्रकाश, द्वादशकालीपूजाविधि:, कालीकुलक्रमार्चापद्धति, जयद्रथयामल आदि ग्रंथों के अनुसार क्रमार्चा ( श्रीसंकर्षिणी तथा द्वादश कालियों का याग) का निरूपण किया गया है।१२/१३ अथवा १६/१७ कालियों को संख्या को लेकर पारंपरिक रुप से चलते आए हुए प्रश्न का क्रमागमों के आधार पर समन्वयात्मक उत्तर देने का प्रयास किया गया है।

आगामी अध्यायों में क्रमदर्शन में दीक्षा तथा सपर्या का सप्रमाण वर्णन किया गया है। अपर अध्याय में नेपाल एवं काश्मीर की शाक्त परम्परा पर क्रमनय के प्रभाव को उल्लिखित किया है। पाठकों के लाभार्थ परिशिष्ट में क्रमसद्भाव में वर्णित भैरवकृत ‘कालसंकर्षिणीस्तोत्र’ का भाषाभाष्य दिया गया है।
( क्रमश:)

॥ महार्थेश्वर-महार्थेश्वरी ध्यानम्॥

महानयप्रभेदेन प्रेतपद्मोपरि स्थितम् ।
महामूर्तिधरं वीरं असितासहितं प्रियम् ॥
महासमयसंयुक्तं आरक्ताभं सुलोचनम् ।
महामूर्तिधरं रौद्रं मदिरानन्दविग्रहम् ॥
नृमांसोर्ध्वकरे दत्तं कपालाऽङ्कुशोभितम् ।
दशबाहुस्थितं क्रुद्धं मन्त्रमात्रविभूषितम् ॥
बीजपञ्चाशभिर्युक्तं रावाद्योक्ताधिपान्वितम् ।
दशसप्ताक्षरा विद्या असिता सा स्वयंस्थिता ॥
महाशक्तियुता सा तु बीजपञ्चाशभिर्युता ।
युग्मका सदृशा मूर्तिर्गुरुपंङ्क्तिसमन्विता ॥
प्रणवेनसुशोभाह्या चितिभस्मावगुण्ठिता ।
भैरव**कैर्युक्ता सिंहरूपे सुसंस्थिता ॥

कश्मीर की एक दुर्लभ मातृका ( श्रीशम्भूनाथ कौल जी के संग्रह में ) में महार्थेश्वर-महार्थेश्वरी का ध्यान वर्णित किया गया है। महार्थेश्वर भगवान् महाभैरव का ही मूर्त्यंतर है वहीं महार्थेश्वरी सत्रह अक्षरों की विद्या से उपासित श्री कालसंकर्षिणी है। विशिष्ट क्रमार्चा में महार्थयामल का अर्चन वामविधि से उत्तराम्नाय के साधक किया करते है। अस्तु…।

ह्रीं श्रीं महार्थेश्वरीमहार्थेश्वर अम्बा नाथ पादुकां पूजयामि॥

॥ श्रीश्रीतारास्वरूपध्यानस्तवः ‍॥

यह स्तोत्र श्रीब्रह्मानन्दगिरि कृत ‘श्रीतारारहस्यम्’ पर गौड़देश के शंकर नामक आचार्य की ‘ वृत्ति’ में उद्धृत किया गया है। इस स्तोत्र में श्रीश्रीतारा के स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया गया है। ताराकुल उपासकों में इस स्तोत्र का विशिष्ट महत्व है। श्रीश्रीतारा मां के सम्मुख इस स्तोत्र का एकाग्र चित्त होकर पाठ करने पर साधक त्रैलोक्य मोहन सिद्धी सहज ही प्राप्त कर लेता है। इस स्तोत्र का पाठ करने वाला ताराकुल साधक कभी दुर्गति प्राप्त नहीं करता। तारा मां के प्रसाद से धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय साधक को सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। कतिपय विद्वान गौडीय शंकर (गौडीय शङ्कराचार्य) को इसका रचयिता मानते हैं वहीं अन्य सुधी जन आद्य शङ्कराचार्य को इसका रचयिता मानते हैं। इस स्तोत्र का पाठ करने से तारकुल के साधकों पर तारा मां का अनुग्रह हो इसी कमाना से यह स्तोत्र यहां उद्धृत किया जा रहा है ।

এই স্তোত্রটি শ্রীব্রহ্মানন্দগিরির ‘শ্রীতাররহস্যম’-এ গৌদেশের শঙ্কর নামে আচার্যের ‘বৃত্তি’তে উদ্ধৃত হয়েছে। এই স্তোত্রে শ্রীশ্রিতার রূপ বিশদভাবে বর্ণিত হয়েছে। তারাকুল উপাসকদের মধ্যে এই স্তোত্রটির বিশেষ গুরুত্ব রয়েছে। একাগ্র চিত্তে শ্রী শ্রীতারা মায়ের সামনে এই স্তোত্র পাঠ করলে, সাধক সহজেই ত্রৈলোক্য মোহন সিদ্ধি লাভ করেন। যে তারাকুল সাধক এই স্তোত্র পাঠ করে সে কখনো দুঃখ পায় না। তারা মায়ের প্রসাদ থেকে ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষের রূপ পুরুষার্থ চতুষ্টয় সাধক সহজেই পান। কিছু পণ্ডিত গৌড়ীয় শঙ্করকে (গৌড়ীয় শঙ্করাচার্য) এর রচয়িতা হিসাবে বিবেচনা করেন, অন্যরা আদ্য শঙ্করাচার্যকে এর লেখক হিসাবে বিবেচনা করেন। এই স্তোত্রটি পাঠ করে তারাকুলের ভক্তরা মা তারার আশীর্বাদ পেতে পারেন, তাই এই স্তোত্রটি এখানে উদ্ধৃত করা হচ্ছে।

॥ श्रीश्रीतारास्वरूपध्यानस्तवः ‍॥

ज्वलत्पावकज्वालजालातिभास्वत्
चितामध्यसंस्थां सुपुष्टां मुखर्वाम् ।
शवं वामपादेन कण्ठे निपीड्य
स्थितां दक्षिणेनाङ्घ्रिणाङ्घ्री निपीड्य ॥१॥
बृहत्तुङ्गलम्बोदरीं मेघवर्णाम्
समुत्तुङ्गपीनस्तनाभोगरम्याम् ।
जवारागरज्यत्सुवृत्तत्रिणेत्राम्
ललज्जिह्वया दंष्ट्रया भीषणास्याम् ॥२॥
लसद्द्दीपिचर्मावृताङ्गीं स्मितास्याम्
जटाजूटमध्यस्थितेन्दीवरालीम् ।
शिरोदेशभास्वत्पिषङ्गाभसर्पाम्
जटाजूटमध्यस्थिताक्षोभ्यमूर्तिम् ॥३॥
मिथः केशबद्धां शिरश्छिन्नसम्यग्
गलान्दोलितां मानवीं मुण्डमालाम् ।
दधानाञ्च पञ्चाशदाख्यानसंख्याम्
शिरश्चिन्नमुण्डावली निर्मिताङ्गीम् ॥४॥
समाच्छिन्न मांसोत् कराघार्य सम्यक्
स्फुरत्पाणिना धारयन्तीं महासिम् ।
करे वाम ईषत्स्फुरद्रक्तनाल
स्फुरन्नीलपङ्केरूहं धारयन्तीम् ॥५॥
करे सव्य उच्चैरधस्ताद्दधानां
सितां कर्तृकां वामपाणौ कपालम् ।
जगद्वर्तिसंजात जाड्याभिपूर्णं
लसत्कर्तृकाधारया खण्डयन्तीम् ॥६॥
घनाभाहिवद्धं जटाजूटमुच्चैः
जवारागनागैर्लसत्कुण्डलाढ्याम् ।
लसद्धूम्ररोचिर्महानागकाय
स्फुरच्चरुकेयूरशोभाभिरामाम् ॥७॥
सुवर्णाभनागोल्लसत्कङ्कणेन
स्फुरन्तीं लसच्छेतनागाभिरामाम् ।
शरीरेण दूर्वादलश्यामलाहि
कृतं चारु यज्ञोपवीतं दधानाम् ॥८॥
दधानाञ्च कुन्दाभ नागेन सम्यक्
कृतं शुभ्रकाटेय पावित्रसूत्रम् ।
महापाटलाभेन नागेन वृत्ताम्
विभूषाञ्च पादद्वये धारयन्तीम् ॥९॥
विचित्रास्थिमालं कपालं करालं
ललाटे च पञ्चान्वितं धारयन्तीम् ।
चिरं चिन्तयामीदृशीं चारुरूपा
ममेयामदोषामनाद्यामपाराम् ॥१०॥
सुरश्रेणिमौलिप्रभारञ्जिताङ्घ्रिम्
नताशेषयोषिद्गणेष्टार्थदात्रीम् |
यदीयप्रसादादिदं विश्वजातम्
जनः प्राप्नुयान्मोदते शश्वदेव ॥११॥
यदेमं स्तवं यः पठेदेकचित्तो
वशस्तस्य लोको भवेत्तत्र ननम् ।
न दारिद्र्यपापे न वा दुर्गतिः स्यात्
लभेतापि मोक्षन्तथा धर्मकामी ॥१२॥
॥ श्रीशङ्कराचार्य कृतं स्तवरूपध्यानं समाप्तम् ॥

श्रीश्रीतारातारिण्यार्पणमस्तु॥

नमो अमृतेश्वरभैरवाय

द्वारेशा नवरन्ध्रगा हृदयगो वास्तुर्गणेशो मनः
शब्दाद्या गुरवः समीरदशकं त्वाधारशक्त्यात्मकम् ।
चिद्देवोऽथ विमर्शशक्तिसहितः षाड्गुण्यमङ्गावलिर्
लोकेशः करणानि यस्य महिमा तं नेत्रनाथं स्तुमः॥

महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्तकृत देवीस्तोत्रविवरण

श्रीभगवद्गीताशास्त्र की ‘गीतार्थसंग्रह’ टीका महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त की आरम्भिक कृति हैं। भगवद्गीता की इस टीका में आचार्य भट्टेन्दुराज की परम्परा से प्राप्त रहस्यार्थ का उद्घाटन श्रीअभिनवगुप्त ने किया हैं। आचार्य ने गीता के श्लोकों में निहित महार्थतत्त्व का प्रकाशन इस कृति में किया हैं। इस ग्रंथ की रचना श्रीअभिनवगुप्त ने कालीकुलक्रमाचार्य श्रीभूतिराज के चरणकमलों में बैठकर अपने मित्र वा बान्धव लोटक के निमित्त की थीं । श्रीअभिनवगुप्त ने गीतार्थसङ्ग्रह के एकादश अध्याय में अपने देवीस्तोत्रविवरण का उल्लेख किया हैं ।

एतदेवात्राध्याये रहस्यं प्रायशो देवीस्तोत्रविवृतौ मया प्रकाशितम् ॥

11.18 की टीका

उक्त देवीस्तोत्रविवरण को लेकर विद्वानों ने दो प्रकार के मत उद्धृत किये हैं। प्रथमपक्ष के अनुसार श्रीअभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धनाचार्य कृत देविस्तोत्र पर विवृति लिखी थी जिसका उल्लेख उन्होंने यहां पर किया हैं । यह स्तोत्र तो प्राप्त होता हैं परंतु विवृति उपलब्ध नहीं होती । काव्यमालागुच्छिका सीरीज के ९वें  खंड में यह स्तोत्र आचार्य कय्यट की टीका के साथ प्रकाशित हैं। इस स्तोत्र का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह स्तोत्र काव्य की दृष्टि से तो अत्यन्त समृद्ध है परंतु इसकी विषयवस्तु में क्रमदर्शन के तत्त्व का नितान्त आभाव हैं। यह स्तोत्र दार्शनिक न होकर पौराणिक तथा काव्यप्रयोगात्मक अधिक प्रतीत होता हैं। शेष रहीं बात आचार्य कय्यट कृत व्याख्या की तो, उन्होंने अपनी व्याख्या में किसी भी स्थान पर इस स्तोत्र को क्रमनय से संबंधित नहीं बताया हैं। उनकी व्याख्या में भी क्रमतत्त्व  का नितान्त आभाव दृष्टिगोचर होता हैं ।

अपरपक्ष के अनुसार सिद्धनाथ कृत क्रमस्तोत्र का ही अपरनाम देवीस्तोत्र हैं । क्रमनय को ‘देवीनय‘ वा ‘देविकाक्रम‘ के अभिधान से भी जाना जाता है अतः क्रमस्तोत्र का अपरनाम देवीस्तोत्र होना समीचीन ज्ञात होता हैं । गीतार्थसंग्रह में उल्लेखित ‘देवीस्तोत्रविवरण’ वस्तुतः ‘क्रमकेलि’ का ही द्वितीय अभिधान हैं । महार्थमंजरी की अंतिमगाथा की परिमल व्याख्या में भी इस ओर संकेत किया गया हैं। महेश्वरानंद ने क्रमकेलि में निहित गीता के क्रमार्थ को ३८ कारिकाओं में बद्धकर अपने व्याखान में समुचित स्थान दिया हैं। अतः द्वितीयपक्ष अधिक समुचित तथा  समीचीन जान पड़ता हैं ।

ह्रीँ श्रीँ श्रीसंकर्षणि अम्बा पादुकां पूजयामि ॥

तत्त्वतस्तु न नानार्थरूपा नाप्येकविग्रहा ।
यानिकेतानिरातङ्का खस्वभावा नमामिताम् ॥ ॐ……. शिवमस्तु ।

॥ श्रीचण्डकापालिनीध्यानम् ॥

चण्डी शूलकपालखड्गच्छुरिका खट्वाङ्गमुण्डाङ्किता रावैर्भूषितवामदक्षिणकरा वर्णैर्नवैर्भास्वरा । कल्पान्ताग्निसमप्रभैकवदना प्रेतोपरिस्थायिनी
देवीदूतिभिरावृता भगवती कुर्यात्स्वधाम्नि स्थितिम् ॥

भैरवस्तोत्रम्

नमः तेजस्वरूपाय रश्मिचक्रधराय च ।
सृष्टिरूपाय देवाय तथास्थितिकराय च ॥
अवतारक्रमस्थाय कालिचक्रस्थिताय च ।
महासंहाररूपाय नमोमूर्तस्वरूपिणे ॥
नमश्चन्द्रार्कसद्ग्रास परितृप्ताय शासिने ।
चिद्रहस्यसमंदीप्त भैरवाय नमो नमः॥ (जयद्रथयामले)

Photo Credit – Sri S. Saha

भगवती सप्तकोटीश्वरी

क्रमनय के साधकों के मध्य श्रीसंकर्षिणी की विभिन्न मूर्तियों की उपासना का चलन हैं । देवी कालसंकर्षिणी के विभिन्न अमूर्त स्वरूपों में सप्तकोटीश्वरी प्रधान हैं। महाव्योमवागीश्वरी तथा घोरचण्डा इनके अपर नाम हैं ।
देवी सप्तकोटीश्वरी का कल्प जयद्रथयामल के तीसरे तथा चतुर्थ षट्क में प्राप्त होता हैं । काश्मीरपरम्परा की चार प्रत्यंगिराओ में देवी सप्तकोटीश्वरी संगणित हैं ।
देवी के अमूर्त ध्यान में इन्हें सप्तमुण्डों पर आसीन बताया गया हैं ।

……. कवलननिरता सप्तमुण्डासनस्था प्रोद्भोताधार चक्रात्प्रलयशिखि शिखा……….

श्रीजयद्रथयामल में कहा गया भी है-

……………………………………………..।
सप्तमुण्डासनरतां तत्सङ्ख्या भुवनाध्वगाम् ॥

महार्थमंजरीपरिमल में महेश्वरानन्द सप्तकोटीश्वरी के विषय में लिखते हैं –

तत् श्रीमत्सप्तकोटीश्वरीविद्यानुसन्धानवासनानुस्यूतेः –
सप्तकोटिर्महामन्त्रा महाकालीमुखोद्गताः॥
इत्याम्नायन्यायादेकैककोटिक्रोडीकारसूचनार्थमेकैकदशकस्वीकार इति तस्याः सिद्धयोगिन्याः सप्तसंख्यात्मकमुद्रानिबन्धतात्पर्यात् सप्ततिसंख्यानिर्बन्ध इति तात्पर्यार्थः।

देवी महाकाली (सप्तकोटीश्वरी) के मुख से सप्तकोटिमंत्रों का उद्भव हुआ है। देवी सप्तकोटीश्वरी
का साधक इन का ज्ञान सप्ताक्षरी विद्या के जप से प्राप्त कर सकता हैं। सप्ताक्षरीविद्या होने से ही सप्त मुद्राओं के बंधन का विधान महार्थसंप्रदाय में किया गया हैं।

सप्तकोटीश्वरी कल्पानुसार इनकी अतिरहस्य गायत्री का केवल 8 बार जप करने से साधक के ब्रह्महत्या, सुरापानादि पंचमहापातकों का नाश होता हैं। सप्तकोटीश्वरीगायत्री का एक बार पाठ करने मात्र से साधक के उपपतकों का नाश होता हैं । शतबार जप करने से साधक सोमपुत, अग्निपुत तथा मंत्रपुत होता हैं। वैदिकी गायत्री के साथ सम्मेलन कर जप करने से ब्रह्मदण्डादिप्रयोगों में क्षिप्रसिद्धि प्राप्त होती हैं ।

देवी सप्तकोटीश्वरी की उपासना करने से कुहुकों का नाश होता हैं । भगवती अपने साधको के समस्त दुःखों का नाश करती हैं ।
श्रीजयद्रथयामल में कहा भी गया है-

अथातः संप्रवक्ष्यामि कुहकानां विनाशिनीम् ।
यस्याः पूजनमात्रेण सर्वदुःखाद्विमुच्यते ॥

देवी सप्तकोटीश्वरी की सप्ताक्षरी विद्या का जप करने से
साधक काव्य, ज्योतिष,व्याकरण तथा रहस्य शास्त्रों का ज्ञान स्वतः ही प्राप्त कर लेता हैं। श्रीजयद्रथयामल में कहा भी गया है-

काव्यं दैवज्ञतां चैव महाव्याकरणानि च ।
देवी पूजन मात्रेण लभते नात्र संशयः ॥

देवी सप्तकोटीश्वरी के साधन में वर्णन्यास, मुण्डभङ्गीन्यास, दण्डभङ्गीन्यास, धारान्यास तथा कुलक्रम न्यास को करना अत्यन्त आवश्यक है । इन न्यासों को करे बिना जो सप्तकोटीश्वरी का साधन करता है वह योगिनियों का पशु होता है। नेपालमण्डल से प्राप्त सप्तकोटीश्वरीपूजापद्धति की मातृका में इन न्यासों का विशद वर्णन प्राप्त होता है जो जयद्रथयामल के सप्तकोटीश्वरीकल्प में प्राप्त नहीं होता हैं। संभवतः पद्धतिकार के सम्मुख सप्तकोटीश्वरीकल्प का कोई अन्य पाठ था जो वर्तमान जयद्रथयामल में प्राप्त नहीं होता अथवा पद्धतिकार तंत्रान्तर से इनको उद्धृत करता हैं ।
भगवती सप्तकोटीश्वरी का साधन विजनवन, एकान्त स्थल अथवा देवीमंदिर में ही करना चाहिए , ऐसा करने से साधक सर्वसौभाग्य को प्राप्त करता हैं। भगवती की सप्ताक्षरी विद्या का साधन करने वाला साधक अन्त काल में परमपद को प्राप्त करता है तथा इहलोक में उत्तमस्त्री, धन , विद्या तथा रहस्यों को प्राप्त करता हैं । इस विद्या का साधन करने वाले साधक का कोई द्वेषी नहीं होता। इनका साधक जहां कहीं भी निवास करता है वहां अकाल, दुर्भिक्ष, व्याधि तथा अपमृत्यु नहीं होती ।
श्रीजयद्रथयामल में तो यहां तक कहा गया है कि सप्तकोटीश्वरी के साधक को संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं है, देवी के कृपा प्रसाद से उसकी समस्त कामनाएं सिद्ध होती हैं।

यत्किञ्चिद्भुवने वस्तु विद्यतेर्घ्यं सुरेश्वरि ।
तश्चेत्कामयते साक्षाल्लभते नात्र संशयः ॥

भगवती महाव्योमवागीश्वरी जगदम्बा सप्तकोटीश्वरी के चरणद्वन्द्व की वन्दना करते हुए लेख समाप्त किया जाता हैं । ॐ शिवमस्तु ॥

ह्रीँ श्रीँ महाव्योमवागीश्वरी अम्बा पादुकां पूजयामि ॥

श्रीप्रत्यङ्गिरामहाविद्याकल्पः

मध्यकालीन उत्तर भारत के विशिष्ट शाक्तसाधकों के मध्य श्रीप्रत्यङ्गिरा देवी की उपासना का चलन था । इन साधकों ने श्रीप्रत्यङ्गिरा उपासना विषयक अनेकों ग्रंथों की रचनाएं प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में की । इन्हीं कल्पग्रंथो में से एक ‘श्रीप्रत्यङ्गिरामहाविद्याकल्पः’ की मातृका अवलोकन हेतु एक जैन मित्र से प्राप्त हुईं। यह मातृका श्रीजैन के परिवार की व्यक्तिगत निधि है जो उन्हे अपने पूर्वपुरुषों के द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त हुईं। यह मध्यकालीनकल्प भगवती प्रत्यङ्गिरा की उपासना की अत्यन्त गोपनीय क्षिप्रसिद्धिप्रदविधि का निरूपण करता हैं । इस कल्प में प्राकृतभाषा में 76 गाथाएं हैं जो दो भागों में विभाजित हैं। प्रथम भाग में देवी प्रत्यङ्गिरा के मंत्रोद्धार ,यंत्रोद्धार , आवरण तथा मंत्र प्रयोगों का वर्णन प्राप्त होता हैं । देवी के आवरण में भैरव, गणपति, , सिद्धिचामुण्डा , क्षेत्रपाल , प्रतिहार, अष्टमातृका तथा अष्ट कुलनाग हैं । देवी प्रत्यङ्गिरा रक्तवर्णा, पंचदशनेत्रा, पंचवक्त्रा एवं अष्टादशभुजा हैं । देवी अपनी भुजाओं में क्रमशः खड्ग, वर, शङ्ख, मुद्गर, कर्तृ, शक्ति, त्रिशूल, कुन्त, बाण, अभय, डमरू, घण्टा, दण्ड, कपाल, खट्वाङ्ग , पाश, धनुष तथा करवाल धारण करती हैं । देवी नागाभरण तथा मुंडमाला धारण करती हैं । देवी ने अपने श्रीचरणकमल ब्रह्ममुण्ड तथा विष्णुमुण्ड पर रखें हुए हैं । इस भाग में प्रत्यङ्गिरा मन्त्र के द्वारा षट्कर्म साधन का विधान दिया गया हैं । द्वितीयभाग में प्रत्यङ्गिराहोम की विधि का वर्णन किया गया हैं । प्रत्यङ्गिराहोम के द्वारा भीषण से भीषण शत्रु के संहार की गोपनीय विधि इस कल्प में प्राप्त होती हैं । 60 से 75 तक की गाथाओं में विविध औषधियों तथा होमद्रव्यों के द्वारा मनोकामनाओं की पूर्ति साधन का वर्णन प्राप्त होता हैं । अंतिम गाथा में कल्पकर्ता आचार्य भद्रदेवगणि ने अपना तथा अपने गुरु श्रीदेवेन्द्रसुरी का नामोल्लेख किया हैं ।

शारदीय नवरात्रि पर्व की शुभकामनाओं सहित ।

आम्नाय और सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र

जनसाधारण से लेकर सिद्धसाधकों के मध्य कुंजिका स्तोत्र के पाठ की परम्परा रही हैं । विभिन्न आम्नायॊं के उपासकगण अपनी-अपनी आम्नाय नायिका के प्रीत्यर्थ सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र का पाठ चण्डीपाठाङ्गभूत तथा स्वतंत्ररूप से किया करतें हैं । साथ ही महाविद्या उपासकों के मध्य अपनी इष्ट महाविद्या के कुञ्जिकास्तोत्र के पाठ की पुरातन परम्परा हैं । ऊर्ध्वाम्नाय तथा पूर्वाम्नाय के उपासक ‘रुद्रयामलोक्तसिद्धकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं । वहीं दक्षिणाम्नाय के उपासक ‘कालीतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं ।पश्चिमाम्नायोपासकों के मध्य ‘गौरीतन्त्रोक्तकुब्जिकाकुञ्जिकास्तोत्र‘ के पाठ का चलन हैं । उत्तराम्नाय के साधकवर ‘डामरतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ उत्तराम्नयेशी के प्रीत्यर्थ करते हैं । महाविद्याक्रम में आद्या के उपासक ‘कालीतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं।  नक्षत्रविद्या के उपासक ‘महाचीनतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का परायण किया करता हैं। श्रीबगलामुखी के उपासक ‘बगलातन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं । धूमावती साधकों का अपना कुञ्जिकास्तोत्र हैं ।
श्रीविद्या की एक परम्परा में ‘बृहदमहासिद्धकुञ्जिकास्तोत्र’के पाठ का प्रचलन हैं ।विभिन्न परम्पराओं तथा आम्नायों में प्रचलित कुञ्जिकास्तोत्र उन परंपराओं में प्रचलित विशिष्ट चण्डीपाठ की ओर भी संकेत करता हैं ।
भगवती के पाद युगलों की वन्दना कर लेख समाप्त किया जाता हैं। 

त्वं चन्द्रिका शशिनि तिग्मरुचौ रुचिस्त्वं
त्वं चेतनासि पुरुषे पवने बलं त्वम् ।
त्वं स्वादुतासि सलिले शिखिनि त्वमूष्मा
निस्सारमेव निखिलं त्वदृते यदि स्यात् ॥
ॐ शिवमस्तु लेखकपाठकयोः॥

सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्ररहस्यम्

ॐ नमो सिद्धिलक्ष्मीभगवत्यै ॥

विभिन्न आम्नायों के उपसकों के मध्य प्रसन्नपूजा के समय कर्पूरस्तोत्र का पाठ कर पुष्पाञ्जलि देने का प्रचलन हैं । इसी क्रम में उत्तराम्नाय के साधकगण अत्यन्त दुर्लभ व गोपनीय सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र का पारायण किया करते हैं। स्रगधारा छन्द में निबद्ध यह स्तोत्र १९ मंत्रो वाला हैं। यह स्तोत्र अपने भीतर उत्तराम्नाय के गूढ़ रहस्यों को गर्भित किए हुए हैं । सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र की पुष्पिका के अनुसार यह स्तोत्र रुद्र्यामलतंत्र के उत्तरखंड में उपलब्ध होता हैं । इस स्तोत्र में प्रत्यक्षरूप से भगवती गुह्यकाली तथा भगवती सिद्धिलक्ष्मी की स्तुति की गईं हैं वहीं परोक्षरूप से भगवती कालसंकर्षिणी भट्टारिका की ।अथर्वणश्रुति में कहा भी गया है –

परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः॥

गोपथब्राह्मण १,१.१

यह स्तोत्र इन तीनों देवीस्वरूपों में अद्वैतभावना का प्रतिपादन करता हैं।
इस स्तोत्र के प्रथम तीनमंत्रो में भगवती गुह्यकाली की षोडशाक्षरीविद्या का उद्धार तथा इस विद्या के जप की फलश्रुति का वर्णन किया गया हैं । वहीं पर कहा भी गया है-

जप्ता मुक्तिप्रदा सा श्रवणपथगताप्यायुरारोग्यदात्री ॥

३.ब

अर्थात् भगवती गुह्यकाली की षोडशाक्षरीविद्या जप मात्र से मोक्ष को देने वाली हैं एवं श्रवणमात्र से आयु तथा आरोग्य को प्रदान करती हैं ।
अगले मंत्र “कालीं जंबूफलाभां ………………” में भगवती कालसंकर्षिणी भट्टारिका का अमूर्त ध्यान दिया गया हैं ।

अगले दो मंत्रो में भगवती गुह्यकाली की भरतोपासिताविद्या का उद्धार किया गया हैं ।
सातवें मंत्र में भगवती गुह्यकाली के दशवक्त्रा दशभुजा स्वरूप का वर्णन दिया गया हैं । आठवें मंत्र में देवदुर्लभ भगवती सिद्धिलक्ष्मी के नवाक्षरीमंत्र का उद्धार बताया गया हैं। नवें मंत्र में भगवती सिद्धिलक्ष्मी के पंचवक्त्रा दशभुजा स्वरूप का ध्यान बताया गया हैं। वहीं भगवती सिद्धिलक्ष्मी के ध्यान की फलश्रुति का भी वर्णन दिया गया हैं –

ध्यायेद् यः सिद्धिलक्ष्मीं शशधरमुकुटां
सिद्धयस्तत् करस्थाः॥

९.द

अगले मंत्रो में उपरोक्त विद्याओं के यंत्रोद्धार दिए गए हैं जो कि गुरुगम्य हैं। तेरहवें तथा चौदहवें मंत्रो में दूतीयाग का अत्यन्त सांकेतिक भाषा में वर्णन किया हैं। अगले मंत्र में उपरोक्त विद्याओं के पुरूश्चरण का विधान प्रकाशित किया गया हैं। सोलहवें मंत्र में बलिपशु तथा खड्गसिद्धि का विधान बताया गया हैं। अगले दोनों मंत्र इन विद्याओं की क्षिप्रसिद्धि प्रदान करने वाले कुलप्रयोग का वर्णन करते हैं। अंतिम मंत्र में सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र के पाठ की फलश्रुति का वर्णन किया गया हैं , वहीं कहा भी गया हैं जो साधक पूजा के अन्त में प्रसन्नचित्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं वह शीघ्र ही जगदम्बा के अमृतमय चरणकमलरूप मधुको प्राप्त कर देवी का प्रियतर हो जाता हैं।

पठेद् यः पूजांते प्रमुदित मनो साधकवरः ।
स ते पादाम्भोजामृत मधुलिहस्यात प्रियतरः॥

१९. ब

भगवती सिद्धिलक्ष्मी की वन्दना कर लेखनी को विराम दिया जाता हैं ।

कलिदुःस्वप्नशमनीं महोत्पातविनाशिनीम् ।      प्रत्यंगिरां नमस्यामि सिद्धिलक्ष्मीं जयप्रदाम् ॥

Mysteries of kubjikAkarpUrastotra

karpUrastotra have its special place among various kind of tAntrika stotras. sAdhakas of different amnAyas recite karpUrastotra of their amnAyanAyikA . sAdhakas of dakShiNAmnAya recite kAlIkarpUrastotra while siddhilakShmIkarpUrastotra is recited by sAdhakas of uttarAmnAya . UrdhvAmnAya upAsakas declaims  sundarIkarpUrastotra and sAdhakas of adharamAmnAya recite tArAkarpUrastotra. kubjikAkarpUrastotra is declaimed  by sAdhakas of the pashchimAmnAya.

This stotra is heighly esoteric in nature with various secrets in every single verse. It is passed down by master to qualified deciples who undergoes practice of western currents ( pashchimAmnAya ) of goddess kubjikeshvarI. As per colophon of kubjikAkarpUrastotra , this stotra belongs to siddhikhaNDa of rudrayAmala . It is composed in sRRigdhArA meter with a total of twenty one verses . First six verses of stotra encapsulates uddhAra of kulapraNava ( five bIjas of pashchimAmnAya ) which are prefixed to every mantra of pashchimAmnAya. Next three verse describes six limbs of mistress of pashchimAmnAya. Ninth verse embodies yantroddhAra of goddess kubjikA . Next three verse describes the elements of kubjikA yantra and explains meaning of different names of goddess kubjikA. Fifteenth verse elobrates pUjAvidhi and kulayAga of pashchimAmnAya. Sixteenth verse describes animals for sacrifice in kubjikAkula. Deer,Chicken,Sheep,Cat, Rabbit,Got and Camel are main balipashus recommended in stotra .

meShaM shashaM hariNa kukkuTa bhekasarpa
mArjAra muShaka mahoShTra varaM prashastam ॥

16.A

Next three verse describes purushcharaNavidhi for supreme vidyA of kubjikA along with the mUrtiyAga and dUtIyAga. Final two verses describes phalashruti of pashchimAmnAyopAsanA and recital of the kubjikAkarpUrastotra.

pUrvAmnAyeshvarI kubjA pashchimAmnAyasvarUpiNI । uttarAmnAyeshvarI kubjA dakShiNAmnAyasvarUpiNI ॥ adharAmnAyeshvarI kubjA mahordhvAmnAyasvarUpiNI ।  ShaTsiMhAsanagA kubjA ratnasiMhAsana sthitA ॥