नमो अमृतेश्वरभैरवाय

द्वारेशा नवरन्ध्रगा हृदयगो वास्तुर्गणेशो मनः
शब्दाद्या गुरवः समीरदशकं त्वाधारशक्त्यात्मकम् ।
चिद्देवोऽथ विमर्शशक्तिसहितः षाड्गुण्यमङ्गावलिर्
लोकेशः करणानि यस्य महिमा तं नेत्रनाथं स्तुमः॥

॥ श्रीचण्डकापालिनीध्यानम् ॥

चण्डी शूलकपालखड्गच्छुरिका खट्वाङ्गमुण्डाङ्किता रावैर्भूषितवामदक्षिणकरा वर्णैर्नवैर्भास्वरा । कल्पान्ताग्निसमप्रभैकवदना प्रेतोपरिस्थायिनी
देवीदूतिभिरावृता भगवती कुर्यात्स्वधाम्नि स्थितिम् ॥

॥ श्रीलकुलीशस्तोत्रम् ॥

श्रीशिवपुराणे लकुलीशमाहात्म्ये तृतीयोऽध्याये –
ऋषयः ऊचुः ॥
नमो बालकरूपाय अव्यक्ताय नमोनमः ।
व्योमप्रमाणकायाय कामेशाय नमोनमः ॥
व्योमप्रमाणविद्याय विद्येशाय नमोनमः ।
व्योमप्रमाणकालाय कालेशाय नमोनमः॥
व्योमप्रमाणधर्माय धर्मेशाय नमोनमः।
व्योमप्रमाणविश्वाय विश्वेशाय नमोनमः ॥
एकवज्रद्विवज्राय बहुवज्राय ते नमः।
एककण्ठद्विकण्ठाय बहुकण्ठाय ते नमः॥
एकहस्तद्विहस्ताय बहुहस्ताय ते नमः ।
एकनेत्रद्विनेत्राय बहुनेत्राय ते नमः ॥
नमस्तेऽस्तु महादेव ! नमस्तेऽस्तु महेश्वर ! ।
नमस्तेऽस्तु महारुद्र ! नमस्ते बालरूपिणे ! ॥
नमस्तेऽस्तु महासिद्ध ! देवखातसमुद्भव ! ।
नमस्तेऽस्तु महारुद्र ! नमस्तेऽस्तु सदा हरे ! ॥
अव्यक्ताय नमस्तुभ्यं शाश्वताय च ते नमः ।
एवं स्तवेन देवेशं स्तौति यो लकुलेश्वरम् ॥
स मुक्तः सर्वपापेभ्यो शिवलोके महीयते ।
भोगार्थी लभते भोगान् योगार्थी योगमाप्नुयात् ॥
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति सत्वरम् ।
शिवस्य पदमाप्नोति नित्यं पठति यो नरः ॥

उपरोक्त स्तोत्र श्रीशिवपुराण के लकुलीशमाहात्म्य के तृतीयाऽध्याय से उद्धृत किया गया हैं । इस स्तोत्र में ऋषिगणों द्वारा भगवान शिव के २८ वें अवतार लकुलीश कि स्तुति की गई हैं । इस स्तोत्र का जो भी जन लकुलीशशिव के सम्मुख पाठ करेंगे वे समस्त पापों से मुक्त होकर शिवलोक की प्राप्ति करेंगे। इस स्तोत्र के नित्य पाठ से भोगार्थी को भोग तथा योगार्थी को योग की प्राप्ति होती हैं। जो भी जन इस स्तोत्र का पाठ करेगा उसके अभीष्ट की सिद्धि होगी तथा अंतकाल में शिवपद की प्राप्ति होगी । इतिशिवम् ॥

आम्नाय और सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र

जनसाधारण से लेकर सिद्धसाधकों के मध्य कुंजिका स्तोत्र के पाठ की परम्परा रही हैं । विभिन्न आम्नायॊं के उपासकगण अपनी-अपनी आम्नाय नायिका के प्रीत्यर्थ सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र का पाठ चण्डीपाठाङ्गभूत तथा स्वतंत्ररूप से किया करतें हैं । साथ ही महाविद्या उपासकों के मध्य अपनी इष्ट महाविद्या के कुञ्जिकास्तोत्र के पाठ की पुरातन परम्परा हैं । ऊर्ध्वाम्नाय तथा पूर्वाम्नाय के उपासक ‘रुद्रयामलोक्तसिद्धकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं । वहीं दक्षिणाम्नाय के उपासक ‘कालीतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं ।पश्चिमाम्नायोपासकों के मध्य ‘गौरीतन्त्रोक्तकुब्जिकाकुञ्जिकास्तोत्र‘ के पाठ का चलन हैं । उत्तराम्नाय के साधकवर ‘डामरतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ उत्तराम्नयेशी के प्रीत्यर्थ करते हैं । महाविद्याक्रम में आद्या के उपासक ‘कालीतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं।  नक्षत्रविद्या के उपासक ‘महाचीनतन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का परायण किया करता हैं। श्रीबगलामुखी के उपासक ‘बगलातन्त्रोक्तकुञ्जिकास्तोत्र‘ का पाठ करते हैं । धूमावती साधकों का अपना कुञ्जिकास्तोत्र हैं ।
श्रीविद्या की एक परम्परा में ‘बृहदमहासिद्धकुञ्जिकास्तोत्र’के पाठ का प्रचलन हैं ।विभिन्न परम्पराओं तथा आम्नायों में प्रचलित कुञ्जिकास्तोत्र उन परंपराओं में प्रचलित विशिष्ट चण्डीपाठ की ओर भी संकेत करता हैं ।
भगवती के पाद युगलों की वन्दना कर लेख समाप्त किया जाता हैं। 

त्वं चन्द्रिका शशिनि तिग्मरुचौ रुचिस्त्वं
त्वं चेतनासि पुरुषे पवने बलं त्वम् ।
त्वं स्वादुतासि सलिले शिखिनि त्वमूष्मा
निस्सारमेव निखिलं त्वदृते यदि स्यात् ॥
ॐ शिवमस्तु लेखकपाठकयोः॥

सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्ररहस्यम्

ॐ नमो सिद्धिलक्ष्मीभगवत्यै ॥

विभिन्न आम्नायों के उपसकों के मध्य प्रसन्नपूजा के समय कर्पूरस्तोत्र का पाठ कर पुष्पाञ्जलि देने का प्रचलन हैं । इसी क्रम में उत्तराम्नाय के साधकगण अत्यन्त दुर्लभ व गोपनीय सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र का पारायण किया करते हैं। स्रगधारा छन्द में निबद्ध यह स्तोत्र १९ मंत्रो वाला हैं। यह स्तोत्र अपने भीतर उत्तराम्नाय के गूढ़ रहस्यों को गर्भित किए हुए हैं । सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र की पुष्पिका के अनुसार यह स्तोत्र रुद्र्यामलतंत्र के उत्तरखंड में उपलब्ध होता हैं । इस स्तोत्र में प्रत्यक्षरूप से भगवती गुह्यकाली तथा भगवती सिद्धिलक्ष्मी की स्तुति की गईं हैं वहीं परोक्षरूप से भगवती कालसंकर्षिणी भट्टारिका की ।अथर्वणश्रुति में कहा भी गया है –

परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः॥

गोपथब्राह्मण १,१.१

यह स्तोत्र इन तीनों देवीस्वरूपों में अद्वैतभावना का प्रतिपादन करता हैं।
इस स्तोत्र के प्रथम तीनमंत्रो में भगवती गुह्यकाली की षोडशाक्षरीविद्या का उद्धार तथा इस विद्या के जप की फलश्रुति का वर्णन किया गया हैं । वहीं पर कहा भी गया है-

जप्ता मुक्तिप्रदा सा श्रवणपथगताप्यायुरारोग्यदात्री ॥

३.ब

अर्थात् भगवती गुह्यकाली की षोडशाक्षरीविद्या जप मात्र से मोक्ष को देने वाली हैं एवं श्रवणमात्र से आयु तथा आरोग्य को प्रदान करती हैं ।
अगले मंत्र “कालीं जंबूफलाभां ………………” में भगवती कालसंकर्षिणी भट्टारिका का अमूर्त ध्यान दिया गया हैं ।

अगले दो मंत्रो में भगवती गुह्यकाली की भरतोपासिताविद्या का उद्धार किया गया हैं ।
सातवें मंत्र में भगवती गुह्यकाली के दशवक्त्रा दशभुजा स्वरूप का वर्णन दिया गया हैं । आठवें मंत्र में देवदुर्लभ भगवती सिद्धिलक्ष्मी के नवाक्षरीमंत्र का उद्धार बताया गया हैं। नवें मंत्र में भगवती सिद्धिलक्ष्मी के पंचवक्त्रा दशभुजा स्वरूप का ध्यान बताया गया हैं। वहीं भगवती सिद्धिलक्ष्मी के ध्यान की फलश्रुति का भी वर्णन दिया गया हैं –

ध्यायेद् यः सिद्धिलक्ष्मीं शशधरमुकुटां
सिद्धयस्तत् करस्थाः॥

९.द

अगले मंत्रो में उपरोक्त विद्याओं के यंत्रोद्धार दिए गए हैं जो कि गुरुगम्य हैं। तेरहवें तथा चौदहवें मंत्रो में दूतीयाग का अत्यन्त सांकेतिक भाषा में वर्णन किया हैं। अगले मंत्र में उपरोक्त विद्याओं के पुरूश्चरण का विधान प्रकाशित किया गया हैं। सोलहवें मंत्र में बलिपशु तथा खड्गसिद्धि का विधान बताया गया हैं। अगले दोनों मंत्र इन विद्याओं की क्षिप्रसिद्धि प्रदान करने वाले कुलप्रयोग का वर्णन करते हैं। अंतिम मंत्र में सिद्धिलक्ष्मीकर्पूरस्तोत्र के पाठ की फलश्रुति का वर्णन किया गया हैं , वहीं कहा भी गया हैं जो साधक पूजा के अन्त में प्रसन्नचित्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं वह शीघ्र ही जगदम्बा के अमृतमय चरणकमलरूप मधुको प्राप्त कर देवी का प्रियतर हो जाता हैं।

पठेद् यः पूजांते प्रमुदित मनो साधकवरः ।
स ते पादाम्भोजामृत मधुलिहस्यात प्रियतरः॥

१९. ब

भगवती सिद्धिलक्ष्मी की वन्दना कर लेखनी को विराम दिया जाता हैं ।

कलिदुःस्वप्नशमनीं महोत्पातविनाशिनीम् ।      प्रत्यंगिरां नमस्यामि सिद्धिलक्ष्मीं जयप्रदाम् ॥

जहां कभी काली मन्दिर था ।

कश्यपमहर्षि की मानसपुत्री कश्मीर ने शताब्दियों तक आतातायियों के नृशंस कृत्यों को झेला है और आज भी झेल रहीं हैं । महामद दैत्य के अनुयाई सनातनधर्म को कश्मीर की धारा से मिटाने के प्रयास करते रहें । कश्मीर के ब्राह्मणों (कश्मीरी पंडित समुदाय) की हत्याएं की गई, उन्हें यातनाएं दी है , उनकी स्त्रियों का शील भंग किया गया और जब फिर भी बात नही बनी तो कई मंदिरों को तोड़ा गया और उनकी जगह मस्जिदों का निर्माण किया गया । मंदिरों में मुर्दों को गाड़ कर उन्हे कब्र पूजने की जियारत बना दिया गया । इस पर भी बात नही बनी तो कश्मीर की धरा को ब्राह्मण तथा सनातनधर्म विहीन करने के लिए वहां से भगाया जाने लगा । कश्मीर के वीर ब्राह्मणों ने स्वधर्म के परित्याग के स्थान पर मृत्यु या मृत्युतुल्य पलायन को स्वीकार किया । इन्हीं सभी घटनाक्रमों का साक्षी है झेलम में तट पर बना श्रीनगर का एक काली मन्दिर ।

वह काली मंदिर जहां कभी भगवती भद्रकाली की कालसंकर्षिणी के रूप में पूजा होती थीं , इसे ‘कालेश्वरीतीर्थ’ के नाम से जाना जाता था । यहां पर एक झरना हैं जिसे प्राचीन काल में ‘कालीनाग’ अभिधान प्राप्त था । यह झरना आज भी हैं, जिससे पानी निकलकर झेलम में मिलता हैं । मस्जिद  परिसर के पीछे की रेलिंग के ठीक नीचे पत्थर पर सिन्दूरलेप लगा हैं जो मंदिर का जगतीभाग अथवा नीव का हिस्सा थीं ।

देवी कालेश्वरी का प्रतीक चिन्ह

आज यही स्थान कश्मीरी  सनातन धर्मावलम्बियों का आराधना स्थल हैं , जहां यदा कदा कश्मीरी पंडित जाया करते हैं।  इस मंदिर का उल्लेख भृंगिश संहिता के अप्रकाशित अंश में मिलता हैं ।

सन् 1395 में सिकंदर ‘बुतशिकन'( मूर्तिभंजक) ने इस मंदिर को और ईरान के एक मलेच्छ की स्मृति मे मस्जिद में परिवर्तित कर दिया । जिसे अब ‘खानकाह-ए-मौला’ के नाम से जाना जाता है ओर तब से  कालेश्वरी मंदिर मलेच्छों के कब्जे में हैं। यदि स्थापत्यकला के अनुसार भी के अवलोकन किया जाएं तो यह मस्जिद कम और वेश्मशैली का मंदिर ज्यादा लगता हैं ।

‘Eminent Personalities of Kashmir’ नामक पुस्तक में किशनलालकल्ला इस मंदिर का उल्लेख करते हुए लिखते है ” हिंदू मान्यता के अनुसार यहां कभी काली मंदिर था , जिसे तोड़ कर उसी सामग्री से यहां मस्जिद का निर्माण किया गया ” भविष्य की ओर आशान्वित होकर लिखता हुं , देवी कालेश्वरी के मंदिर की पुनर्प्रतिष्ठा होगी , यह स्थान एक बार पुनः सनातन धर्मावलम्बियों के अधिपत्य में होगा ।

लक्ष्मीं राजकुले जयां रणमुखे क्षेमङ्करीमध्वनि
क्रव्यादद्विपसर्पभाजि शबरीं कान्तारदुर्गे गिरौ ।
भूतप्रेतपिशाचजम्भकभये स्मृत्वा महाभैरवीं
व्यामोहे त्रिपुरां तरन्ति विपदं तरां च तोयप्लवे ॥

A very rare form of shrIchakra

ह्रीँ श्रीँ श्रीचक्रेश्वरीपादुकां पूजयामि ॥

This kashmIrI / pahADi style painting depicts a very rare form of shrIchakra . In contrast with the prevalent geometry of shrIchakra , this form of shrIchakrarAja have single bhupura and three valayas ( which is actual and correct interpretation of ‘vRRittatrayaM’ pada in uddhArashloka of shrIchakra).

bindustrikoNavasukoNa
dashArayugmamanvashranAgadalasa~Ngata ShoDashAram ।
vRRittatrayaM cha dharaNIsadanamekaM cha
shrIchakrametaduditaM paradevatAyAH ॥ 

Both paramAnandatantra and vAmakeshvarImata describes this single bhupura and tri-valaya geometry of shrIchakra. In earlier traditions of traipurasaMpradAya this form of shrIchakra was worshiped . Deities in trailokyamohanachakra were very different from the current one , worshiped according to later traditions of traipurasaMpradAya which rely on later shrIkulatantras.
rAjAnaka jayaratha in his gloss on vAmakeshvarImata also describes this form of shrIchakra in following verse.

chakraM baindavamambikAmayam iyaM vAmA trayo ye bhramA jyeShTheyaM yadidaMpurandarapure rekhAchatuShkaM bahiH ।
yoayaM shaktyanalatrikoNanivaho raudrIyamityAmRRishan
yoarchAdhAramakRRitrimaM kalayate mAtaH sa te pUjakaH ॥

Oh goddess ! baindavachakra is thy ambikA shakti form, three circles are vAmA shakti form of thy , bhUpura with four lines is thy form of jyeShThA shakti and triangles in shrIchakra represents thy raudrI shakti form .The person who knows this and meditates on your fourfold form is only your true worshiper.

Lost shrIrasamahodadhi , an earlier text of  shrIkrama too supports single bhupura in shrIchakra.

chaturashraMtatodattvA kuryAddvArachatuShTayam।
chatuShkoNasamAyuktamevaM syAnmaNDalottamam ॥

shrIbhAskararAya too was aware of this form of shrIchakra. In his setubandhaTIkA he qoutes an verse of unknown origin describing this form.

guNavRRittaM tataH kuryAchchaturasraM cha tadbahiH ॥

Regarding three circles of shrIchakra shrIbhAskararAya in his setubandhaTIkA mentions” In tradition of other saMhitAs and tantras only three circles are discribed not five. “

saMhitAtantrAntarespaShTaM vRRittatritayamevopalabhyate na tat pa~nchakam iti ॥

Regarding bhupur he writes ” Bhupur is square with four gates drawn by single line. As single line bhupur is described in vAmakeshvarImatam.”

bhUgRuhaM nAma chaturasram । tachchaikarekhAtmakamekameva । mUle bhUpUramityekavachanAt ।

kAmapUrNajakArAkhya
shrIpIThAntarnivAsinIm ।
chaturAj~nAkoshabhUtAM
naumi shrItripurAmaham ॥

सरलशिवपूजाविधिः

श्रावणमास भगवान शिव को अत्यंत्य प्रियकर हैं , अतः मुमुक्षु तथा भुभुक्षु दोनों प्रकार के साधकों को इस मास में अनिवार्य रूप से शिवपुजन करना चाहिए। वे साधक जो समयाभाव अथवा द्रव्याभाव से विस्तार पूर्वक शिवपूजा नहीं कर सकते तथा जनसामान्य जो निगमागमादि शास्त्रोक्तविधि से शिवपूजा करने में असमर्थ है , उन सभी के सहायतार्थ अत्यन्तस्वल्प शिवपूजा की विधि को लिखा जाता हैं।

साधक अपने सम्मुख नर्मदेश्वर/बाणलिङ्ग /पार्थिव शिवलिङ्ग (तीर्थक्षेत्र की मिट्टीका बना लिंग)/पारदेश्वर (पारद का बना लिंग) अथवा भगवान शिव का चित्रपट भद्रपीठ/बाजौट अथवा पात्र में स्थापित करें । पञ्चाक्षरमन्त्र से भस्म का त्रिपुण्ड तथा रुद्राक्ष मालिका धारणे करें । कुश अथवा कम्बल के आसान को बिछाकर उसका पूजन करें , तत्पश्चात् आसान पर बैठकर तीन बार आचमन तथा प्राणायाम करें । पुनः हाथ में जलगंधपुष्प रखकर देशकालादि का संकीर्तन करते हुए संकल्प वाक्य का पाठ करें ।  तत्पश्चात् शिवासन (जिस भद्रपीठ/बाजौट अथवा पात्र में लिङ्ग स्थापित किया गया हैं।) की पूजा करें । हाथ मे जल, गन्ध, बिल्वपत्र, अर्कपुष्प (आंकडा) लेकर लिङ्ग में भगवान शिव की मूर्ति का पूजन करें। ध्यानश्लोक का पाठ कर भगवान शिव के चैतन्य का आवाहन लिङ्ग में करें।  तत्पश्चात जो भी उपचार उपलब्ध होवें उनसे लिङ्ग में भगवान शिव का पूजन पंचाक्षर मंत्र से करें । द्रव्यों का आभाव होने पर पुष्प, पत्र तथा जल से ही पूजन करें । अगले दो मंत्रो से संक्षेप में भगवान शिव के पांचमुखों तथा छः अंगो के एकावरण का पूजन करें । तत्पश्चात् लिङ्ग की पीठिका (योनि/आधार) में भगवती पार्वती का पूजन करें। तत्पश्चात पुष्पांजलि देकर भगवान का विसर्जन करें ।

त्रिपुण्डधारण । रुद्राक्षमालिकाधारण ।
आसानपूजा ॐ कुर्मासनाय नमः॥
आचमन । प्राणायाम । संकल्प
ॐ अद्य० श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं स्वल्पविधानेन शिवपूजामहं
करिष्ये ॥ 
ॐ शिवासनाय नमः॥
ॐ शिवमूर्तये नमः॥
शङ्खकुन्देन्दुधवलं त्रिनेत्रं रुद्ररूपिणम् ।
सदाशिवेन रूपेण वृषारूढं विचिन्तयेत् ॥
चतुर्भुजं महात्मानं शूलाभयसमन्वितम् ।
मातुलुङ्गधरं देवमक्षसूत्रधरं प्रभुम् ॥
ॐ नमः शिवाय आवाहयामी स्थापयामी ॥
ॐ नमः शिवाय ॥
ॐ पञ्चवक्त्रेभ्यो नमः॥
ॐ षडङ्गेभ्यो नमः॥
ॐ नमः शिवायै ॥
ॐ नमः शिवाय उद्वासयामि ॥ 

(𑆯𑆳𑆫𑆢𑆳𑆬𑆴𑆥𑆴 𑆩𑆼𑆁 )
𑆠𑇀𑆫𑆴𑆥𑆶𑆟𑇀𑆝𑆣𑆳𑆫𑆟 𑇅 𑆫𑆶𑆢𑇀𑆫𑆳𑆑𑇀𑆰𑆩𑆳𑆬𑆴𑆑𑆳𑆣𑆳𑆫𑆟 𑇅
𑆄𑆱𑆳𑆤𑆥𑆷𑆘𑆳 𑆏𑆀 𑆑𑆶𑆫𑇀𑆩𑆳𑆱𑆤𑆳𑆪 𑆤𑆩𑆂𑇆
𑆄𑆖𑆩𑆤 𑇅 𑆥𑇀𑆫𑆳𑆟𑆳𑆪𑆳𑆩 𑇅 𑆱𑆁𑆑𑆬𑇀𑆥
𑆏𑆀 𑆃𑆢𑇀𑆪𑇐 𑆯𑇀𑆫𑆵𑆥𑆫𑆩𑆼𑆯𑇀𑆮𑆫𑆥𑇀𑆫𑆵𑆠𑇀𑆪𑆫𑇀𑆡𑆁 𑆱𑇀𑆮𑆬𑇀𑆥𑆮𑆴𑆣𑆳𑆤𑆼𑆤 𑆯𑆴𑆮𑆥𑆷𑆘𑆳𑆩𑆲𑆁
𑆑𑆫𑆴𑆰𑇀𑆪𑆼 𑇆
𑆏𑆀 𑆯𑆴𑆮𑆳𑆱𑆤𑆳𑆪 𑆤𑆩𑆂𑇆
𑆏𑆀 𑆯𑆴𑆮𑆩𑆷𑆫𑇀𑆠𑆪𑆼 𑆤𑆩𑆂𑇆
𑆯𑆕𑇀𑆒𑆑𑆶𑆤𑇀𑆢𑆼𑆤𑇀𑆢𑆶𑆣𑆮𑆬𑆁 𑆠𑇀𑆫𑆴𑆤𑆼𑆠𑇀𑆫𑆁 𑆫𑆶𑆢𑇀𑆫𑆫𑆷𑆥𑆴𑆟𑆩𑇀 𑇅
𑆱𑆢𑆳𑆯𑆴𑆮𑆼𑆤 𑆫𑆷𑆥𑆼𑆟 𑆮𑆸𑆰𑆳𑆫𑆷𑆞𑆁 𑆮𑆴𑆖𑆴𑆤𑇀𑆠𑆪𑆼𑆠𑇀 𑇆
𑆖𑆠𑆶𑆫𑇀𑆨𑆶𑆘𑆁 𑆩𑆲𑆳𑆠𑇀𑆩𑆳𑆤𑆁 𑆯𑆷𑆬𑆳𑆨𑆪𑆱𑆩𑆤𑇀𑆮𑆴𑆠𑆩𑇀 𑇅
𑆩𑆳𑆠𑆶𑆬𑆶𑆕𑇀𑆓𑆣𑆫𑆁 𑆢𑆼𑆮𑆩𑆑𑇀𑆰𑆱𑆷𑆠𑇀𑆫𑆣𑆫𑆁 𑆥𑇀𑆫𑆨𑆶𑆩𑇀 𑇆
𑆏𑆀 𑆤𑆩𑆂 𑆯𑆴𑆮𑆳𑆪 𑆄𑆮𑆳𑆲𑆪𑆳𑆩𑆵 𑆱𑇀𑆡𑆳𑆥𑆪𑆳𑆩𑆵 𑇆
𑆏𑆀 𑆤𑆩𑆂 𑆯𑆴𑆮𑆳𑆪 𑇆
𑆏𑆀 𑆥𑆚𑇀𑆖𑆮𑆑𑇀𑆠𑇀𑆫𑆼𑆨𑇀𑆪𑆾 𑆤𑆩𑆂𑇆
𑆏𑆀 𑆰𑆝𑆕𑇀𑆓𑆼𑆨𑇀𑆪𑆾 𑆤𑆩𑆂𑇆
𑆏𑆀 𑆤𑆩𑆂 𑆯𑆴𑆮𑆳𑆪𑆽 𑇆
𑆏𑆀 𑆤𑆩𑆂 𑆯𑆴𑆮𑆳𑆪 𑆇𑆢𑇀𑆮𑆳𑆱𑆪𑆳𑆩𑆴 𑇆

( বাংলায়)
ত্রিপুণ্ডধারণ । রুদ্রাক্ষমালিকাধারণ ।
আসানপূজা ওঁ কুর্মাসনায় নমঃ॥
আচমন । প্রাণায়াম । সংকল্প
ওঁ অদ্য০ শ্রীপরমেশ্বরপ্রীত্যর্থং স্বল্পবিধানেন শিবপূজামহং
করিষ্যে ॥
ওঁ শিবাসনায় নমঃ॥
ওঁ শিবমূর্তয়ে নমঃ॥
শঙ্খকুন্দেন্দুধবলং ত্রিনেত্রং রুদ্ররূপিণম্ ।
সদাশিবেন রূপেণ বৃষারূঢং বিচিন্তয়েৎ ॥
চতুর্ভুজং মহাত্মানং শূলাভয়সমন্বিতম্ ।
মাতুলুঙ্গধরং দেবমক্ষসূত্রধরং প্রভুম্ ॥
ওঁ নমঃ শিবায় আবাহয়ামী স্থাপয়ামী ॥
ওঁ নমঃ শিবায় ॥
ওঁ পঞ্চবক্ত্রেভ্যো নমঃ॥
ওঁ ষডঙ্গেভ্যো নমঃ॥
ওঁ নমঃ শিবায়ৈ ॥
ওঁ নমঃ শিবায় উদ্বাসয়ামি ॥

( ગુજરાતી લિપિમાં )

ત્રિપુણ્ડધારણ । રુદ્રાક્ષમાલિકાધારણ ।
આસાનપૂજા ૐ કુર્માસનાય નમઃ॥
આચમન । પ્રાણાયામ । સંકલ્પ
ૐ અદ્ય૦ શ્રીપરમેશ્વરપ્રીત્યર્થં સ્વલ્પવિધાનેન શિવપૂજામહં કરિષ્યે ॥
ૐ શિવાસનાય નમઃ॥
ૐ શિવમૂર્તયે નમઃ॥
શઙ્ખકુન્દેન્દુધવલં ત્રિનેત્રં રુદ્રરૂપિણમ્ ।
સદાશિવેન રૂપેણ વૃષારૂઢં વિચિન્તયેત્ ॥
ચતુર્ભુજં મહાત્માનં શૂલાભયસમન્વિતમ્ ।
માતુલુઙ્ગધરં દેવમક્ષસૂત્રધરં પ્રભુમ્ ॥
ૐ નમઃ શિવાય આવાહયામી સ્થાપયામી ॥
ૐ નમઃ શિવાય ॥
ૐ પઞ્ચવક્ત્રેભ્યો નમઃ॥
ૐ ષડઙ્ગેભ્યો નમઃ ॥
ૐ નમઃ શિવાયૈ ॥
ૐ નમઃ શિવાય ઉદ્વાસયામિ ॥

जयद्रथयामल के परिप्रेक्ष्य में भगवती सिद्धिलक्ष्मी

भगवती सिद्धिलक्ष्मी कालीकुलक्रम की देवता विशेष है, जिनकी उपासना का प्रारम्भ विस्तृत कश्मीर के उड्डीयाणपीठ के करवीर महाश्मशान से हुआ । उड्डीयाणपीठ से सिद्धिलक्ष्मी उपासना की धारा उत्तरभारत के कुछ भागों में तथा नेपाल तक जा पहुंची । नेवारसमुदाय के मल्लराजाओं ने सिद्धलक्ष्मी उपासना को अपने राज्य में प्राश्रय दिया। स्वयं मल्लराजपुरुषों ने आचार्यों से दीक्षाभिषेक प्राप्त कर भगवति सिद्धलक्ष्मी की उपासना की । मल्लराजवंश में जब तक सिद्धिलक्ष्मी की उपासना चलती रही, तब तक उनका राज्य अक्षुण्ण रहा । कालानलतंत्र में कहा भी गया हैं –
पुत्रपौत्रान्वितो भूत्वा चिरजीवीभवेन्नरः ।
विवादे विजयो नित्यं संग्रामे विजयस्तथा ॥
राजकन्या भवेत् पत्नी राजा च वशगो भवेत् ।
सर्वदा ज्ञातिश्रेष्टोऽपि बन्धुभर्त्ता सदाभवेत् ॥
रिपूणां वीर्यविध्वंसी भवत्येव न संशयः ।
अन्तकाले गतिस्तस्य निशामय मम द्विज ॥
सिद्धिलक्ष्मी प्रसादेन साधकस्य फलं शृणु ॥
भगवती सिद्धिलक्ष्मी के प्रसाद से साधक पुत्रपौत्रादि से युक्त होकर चिरायु को प्राप्त करता हैं । राजवंश की कन्या प्राप्त करता है तथा अपनी जाति में श्रेष्ठ होता हैं। शत्रुओं का नाश कर इनका साधक अंत में मोक्ष को प्राप्त करता हैं। कालानलतंत्र के अनुसार श्रीकामकलाकाली,श्रीगुह्यकाली,श्रीछिन्नमस्ता,श्रीतार,श्रीकालसंकर्षिणी तथा श्रीसिद्धिलक्ष्मी अभेद हैं । इनमे कोई भेद नहीं है, मात्र मूर्त्यान्तर हैं ।
यथा कामकलाकाली गुह्यकाली तथा द्विज ।
यथा छिन्ना यथा तारा वज्रकापालिनी यथा ॥
सिद्धिलक्ष्मीः तथा देवी विशेषोनास्ति कश्चन ॥

ह्रीँ श्रीँ श्रीसिद्धिरमाम्बापादुकां पूजयामि ॥

भगवान सिद्धेश्वर इनके भैरव हैं। ये उत्तराम्नाय से संबंधित देवी हैं। उड्डीयाणपीठ में भैरव तथा योगिनियों के मेलापोत्सवरूपी डामरयाग के मध्य भगवती सिद्धिलक्ष्मी का प्राकट्य हुआ । महाभैरव ने इनकी उपासन का उपदेश दिव्ययोगिनियों को दिया । दिव्ययोगिनियों से सिद्धों को यह उपासना प्राप्त हुईं । सिद्धों ने अधिकारी व लक्षणसंपन्न वीरों तथा योगिनियों को इस उपासना का उपदेश दिया। इनकी उपासना करने वाले कापालिक डामरक कहलाते थें। श्रीत्रिदशडामरमहातन्त्र के अनुसार
इस शक्तिविशेष को जयद्रथयामल में सिद्धिलक्ष्मीप्रत्यङ्गिरा,झंकारभैरवतन्त्र में चण्डकापालिनि तथा कुलडामर में शिवा कहा गया हैं।
प्रत्यङ्गिरात्वियं देवि सिद्धिलक्ष्मी जयद्रथे ।
झंकारभैरवे चण्डा शिवान्तु कुलडामरे ॥
२४,००० श्लोकों वाले जयद्रथयामल के द्वितीयषट्क में भगवती सिद्धिलक्ष्मी की उपासना का विशद वर्णन मिलता हैं। द्वितीयषट्क के २१वें पटल में भगवती सिद्धिलक्ष्मी के मूलमालामन्त्र का उद्धार दिया गया हैं।
इस पटल की पुष्पिका का पाठ इस प्रकार है-
…..श्रीजयद्रथयामलेविद्यापीठेभैरवस्रोतसिशिरश्च्छेदे
चतुर्विंशतिसाहस्रेद्वितीयषट्केश्रीसिद्धलक्ष्मीविधाने
मूलमालामन्त्रप्रकाशएकविंशतितमःपटलः…..
इस पटल पर वशिष्ठकुलोत्पन्न किसी आचार्य की लघुटीका भी हैं, जिसकी पुष्पिका का पाठ निम्न हैं ।
इतिवाशिष्ठायमतेजयद्रथेमालामन्त्रटीका॥
जयद्रथयामल में भगवती सिद्धिलक्ष्मी को कालसंकर्षिणी का ही एक स्वरूप माना गया हैं। इनका अभेद पूर्व में कह आए है सो आगे चर्चा नहीं करते । जयद्रथयामल में भगवती सिद्धिलक्ष्मी की सत्रह अक्षरों वाली विद्या तथा समयमालामंत्र की प्रधानता हैं। इन्हीं दोनों मंत्रों की साधनविधि तथा प्रयोगविधि का वर्णन विशेष रूप से इस ग्रंथ में प्राप्त होता हैं। २१वें पटल के प्रारम्भ में कहा भी गया हैं –
उद्धृत्ता परमाविद्या सुखसौभाग्यमोक्षदा
शतद्वयं च वर्णानां नवत्यधिकमुद्धृतम् ॥
एषा विद्या महाविद्या नाम्नात्रैलोक्यमोहिनी।
लक्ष्मीश्वरीति विख्याता बुहुभोगभरावहा ।
महालक्ष्मी महाकान्ता सर्वसौभाग्यदा स्मृता ।
अस्मिन्स्रोतसि देवेशि नानया सदृशी परा ॥
अन्य आगमों में भगवती सिद्धिलक्ष्मी की नवाक्षरी, सप्त दशाक्षरी, सहस्राक्षरी तथा आयुताक्षरी विद्याओं की प्रधानता हैं। द्वितीयषट्क के अंतिम १० पटलों में  सिद्धिलक्ष्मीकल्प के नाना प्रयोगों का वर्णन मिलता हैं जिनके नाम निम्न हैं
(१) प्रथमप्रतिहारविधिः
(२) द्वितीयप्रतिहारविधिः
(३) तृतीयप्रतिहारविधिः
(४) प्रतिहारसाधनविधिः
(५) शिरसाधनविधिः
(६) शिखासाधनविधिः
(७) केशसाधनविधिः
(८) अस्त्रसाधनविधिः
(९) यक्षिणीचक्रम्
(१०) यक्षिणीचक्रप्रयोगविधिः
इनमे प्रथम तीनपटल कृत्यादिप्रयोग के प्रतिहार की विधि को निर्देशित करते हैं। चतुर्थपटल रक्षापुरुष को प्रकट करने के प्रयोग का वर्णन करता हैं । आगे के चार पटलों में सिद्धिलक्ष्मी के अंगमंत्रो का साधन कहा गया हैं। अंतिम दो पटल यक्षिणीचक्र तथा यक्षिणीप्रयोगों की विधि का उल्लेख करते हैं। इन पटलों के अंत में निम्न पुष्पिका प्राप्त होती हैं । 
….श्रीजयद्रथयामलेविद्यापीठेभैरवस्रोतसिशिरश्च्छेदे
चतुर्विंशतिसाहस्रेद्वितीयषट्केश्रीसिद्धलक्ष्मीविधाननानाकल्पम् ….
जयद्रथयामल के अनुसार सिद्धिलक्ष्मी की उपासना
सभी उप्लवों का नाश करनेवाली,सर्वश्रेष्ठ,अत्यन्तउग्र सर्वसम्पत्प्रदायिनी हैं। इस विद्या के सामन १४ भुवनों में कोई और उग्रताम विद्या नहीं हैं। 
जयद्रथयामल में भगवती भैरवी ने कहा भी हैं –
सर्वसाधारणी घोरा सर्वोपप्लवनाशिनी । सर्वसम्पत्प्रदाश्रेष्ठा सर्वसम्पत्प्रदायिका ॥
अस्यां विज्ञातमात्रायां विभूति संप्रवर्तते ।
अस्याः घोरतरानान्या विद्यते भुवनोदरे ॥
भगवान भैरव ने भी इस विद्या की भूरी भूरी प्रशंसा की हैं ।
अलक्ष्मीशमनी ज्ञेया दुष्टदारिद्र्यमर्दिनी ।
कलिदुस्स्वप्नशमनी जात्योपद्रवनाशिनी ॥
राजोपसर्गशमनी दुष्टदस्यु विनाशिनी ।
सदारण्यभये घोरे सिंहव्याघ्रसङ्कटे ॥
यह विद्या अलक्ष्मी, दुष्टजनों तथा दारिद्रय का नाश करने वाली हैं। कलि के प्रभाव , दुस्स्वप्न, जात्योपद्रव, राजोपसर्ग तथा दुष्टदस्युओं का नाश करने करने वाली हैं। अरण्य,सिंह,व्याघ्र, सङ्कट तथा भय से रक्षा करने वाली हैं। जयद्रथयामल के अतिरिक्त झंकारभैरवतन्त्र, कुलडामर,श्रीकालिकुलसद्भावमहातन्त्र,श्रीसिद्धिलक्ष्मीमत,श्रीउमायामल,श्रीमहाकुलक्रमडामर,श्रीगुह्यकुलक्रम,श्रीकालसंकर्षणिमत, श्रीकालानलतंत्र तथा श्रीमेरुतंत्र मे भी सिद्धिलक्ष्मी की उपासना का वर्णन मिलाता हैं ‌।
सिद्धिलक्ष्मी गायत्री से लेख का समापन करते हैं।
ॐ सिद्धिरमायै विद्महे दशभुजायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
ॐ शिवमस्तु……….।

जय मां सिद्धलक्ष्मी

A verse from karpUrama~njarI

karpUrama~njarI is an experimental drama written in shaurasenI prAkRRita around 900 CE by mahAkavi rAjashekhara . The early mediaeval period of Indian history was time , when many tantric sects rose to prominence . They were both subject of fear and reverence in Indian society . Dramatists too were part of that society , so most of them choose to potray a fearsome image of kApAlikas.This work is unique in many sense. In contrast with Indian tradition of Sanskrit drama,it is written in pure prAkRRita. Second important point to notice about this drama is, it potrayes a positive image of kApAlika ascetic while other dramatists of that time potrayed a negetive and fearsome image of kApAlikas to there subjects. mAlatImAdhava ,harShacharitra mattavilAsaprahasana and yashastilaka are examples of such dramas. In pandemic time , while going through the karpUrama~njarI , a prAkRRita verse attracted my attention.This verse is invocation to goddess chAmuNDA .


kappantakelibhavaNe
kAlassa purANaruhirasuram ।jaadi piantI chaNDI parameTThikavAlachasaeNa ॥

Sanskrit ChAyA of this sloka will be like

kalpANtakelibhavane
kAlasya purANarudhirasurAm ।
jayati pibantI chaNDI parameShThI kapAlachashakeNa ॥

” Praise to godess chaNDikA who drinks alcohol of life from skull of brahmA , in mahAkAlarudra’s palace of destruction. “

This verse praises fearsome form of mother divine chAmuNDA who is drinking blood and alcohol from skull of brahmA during the final distruction of Universe.Why This verse attracted my attention is because this verse have multiple secrate meanings.This verse can be interpreted in light of krama doctrine ,kula doctrine and Tantra doctrine. I’m not interpretating whole verse but pointing out some words and hidden aspects encapsulated in them .

chaNDI = kuNDalinI,chaNDakApAlini, chAmuNDA ,kAlasaNkarShiNI
kapAlachashaka= Skull cup,kAdya, brahmarandhra, VirapAtra
kalpANtakelibhavan = mahAshmashAna, Final yogic State of assimilation , Plain of mahAbhairava where he destroys everything in universe
rudhirasurAm = brahmarasa, nector falling from sahasrAra , chandrAmRRita , Blood and Alcohol,Life force of universe, PashUtA
parameShThI =brahmA , creater of impure universe , propagator of pashushAstra,हूँ सर्वसंहारिणीमहाचण्डेकापालिनीपादुकां पूजयामि॥

लाकुलपाशुपतसंप्रदाय का गुरुमण्डल तथा उनके ग्रंथ

मध्यकाल के आते आते भगवान लकुलीश के द्वारा प्रवर्तित लाकुलपाशुपतसंप्रदाय क्षीण हो चला था । लाकुलपाशुपतसंप्रदाय का स्थान अब त्रिक,सिद्धान्त इत्यादि नए शैवमत ले रहे थे। मध्यकाल के अंत तक पाशुपतसम्प्रदाय काल के धुंधले अन्धकार में समा गया, और अपने पीछे छोड़ गया अपने ध्वस्तावशेष ।
शैवसिद्धान्त सम्प्रदाय के अनुयायी लाकुलपाशुपतों को सर्वथा हेय मानते थे । काश्मीर के त्रिकसम्प्रदाय तथा कुलसंप्रदाय के अनुयायी लाकुलपाशुपतों को सर्वथा हेय नहीं मानते थें। वे लाकुलपाशुपतों के कुछ सिद्धांत स्वीकार करते थे , अन्य सिद्धांतो पर उनका मतभेद था । इन दोनों संप्रदायों ने कुछ अंश में लाकुलपाशुपतसम्प्रदाय को अपने अंदर समाहित कर लिया । श्रीसिद्धामत (अपरनाम- सिद्धयोगेश्वरीमत ) की गुरुपरम्परा में भगवान लकुलीश का नामोल्लेख मिलता है, जो इस तथ्य की पुष्टि करता हैं ।श्रीसिद्धादिविनिर्दिष्टा गुरुभिश्च निरूपिता ।
भैरवो भैरवी देवी स्वच्छन्दो लाकुलोऽणुराट् ॥ गहनेशोऽब्जजः शक्रो गुरुः कोट्यपकर्षतः ।
नवभिः क्रमशोऽधीतं नवकोटिप्रविस्तरम् ॥     (तंत्रालोक ३६.१-२)                                कुलसंप्रदाय की एक गुरुपरम्परा के अनुसार लकुलीश के शिष्य अनन्त की परम्परा में विश्वरूप नामक एक आचार्य हुए । ये विश्वरूप उत्तरतंत्र के सिद्धसाधक , लाकुलपाशुपतसम्प्रदाय के अनन्तगोत्र के थे । इन्ही के शिष्य श्रीमान अल्लट कुलशास्त्रों के विशेष प्रचारक तथा ज्ञाता हुए। लाकुलपाशुपतसम्प्रदाय की छोटी धाराएं अन्य संप्रदायों में विलीन हो गई तथा मुख्यधारा का लोप हो गया , पीछे रह गये तो बस उनके होने के प्रमाण । लाकुलपाशुपतसम्प्रदाय की गुरुपरम्परा में अठारह प्रधान पाशुपताचार्य हुए हैं । इन्हे ‘तीर्थकर’ भी कहा जाता था । पाशुपताचार्य भासर्वज्ञकृत ‘गणकारिका’ में कहा गया है- ततोऽवभृथस्नानं कृत्वा भगवंल्लकुलीशादीन्राशीकरान्तांश्च तीर्थकराननुक्रमेण यथावद्भक्त्या नमस्कुर्यात् तदनु प्रदक्षिणमेकमिति ॥ (गणकारिका-१.७.४९)      भगवान लकुलीश से स्वविद्यागुरु पर्यन्त अठारह आचार्यों के नाम का उल्लेख ‘तर्कसंग्रहदीपिका’ में मिलता हैं । इनके शुभनाम क्रमशःहै-
१) भगवान् श्रीलकुलीश
२) श्रीकौशिकपाशुपताचार्य
३) श्रीगार्ग्यपाशुपताचार्य
४) श्रीमित्रपाशुपताचार्य
५)श्रीकारूषपाशुपताचार्य
६) श्रीईशानपाशुपताचार्य
७) श्रीपारगार्ग्यपाशुपताचार्य
८) श्रीकपिलाण्डपाशुपताचार्य
९) श्रीमनुष्यकपाशुपताचार्य
१०) श्रीकुशिकपाशुपताचार्य
११) श्रीअत्रिपाशुपताचार्य
१२) श्रीपिङ्गलपाशुपताचार्य
१३) श्रीपुष्यकपाशुपताचार्य
१४) श्रीबृहदार्यपाशुपताचार्य
१५) श्रीअगस्तिपाशुपताचार्य
१६) श्रीसंतानपाशुपताचार्य
१७) श्रीराशीकरपाशुपताचार्य
१८) श्रीस्वविद्यागुरु अमुकपाशुपताचार्य
लाकुलपाशुपतसंप्रदाय के अनुयायी अपने इन अठारह पाशुपताचार्यों का नित्यस्मरण तथा प्रणाम किया करते थें । ‘तर्कसंग्रहदीपिका‘ के साथ साथ ‘गणकारिका‘ में भी लाकुलपाशुपतों की इस विधि का उल्लेख मिलता हैं ।
तत्रोपस्पृश्य कारणतीर्थकरगुरून् अनुप्रणम्य प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा पद्मकस्वस्तिकादीनाम् अन्यतमं यथासुखम् आसनं बद्ध्वा कृतम् उन्नतं च कृत्वा शनैः संयतान्तःकरणेन रेचकादीन् कुर्यात् ॥ (गणकारिका-१.६.७६)  लाकुलपाशुपतसंप्रदाय में आठप्रमाण ग्रंथों का प्रचलन था । कालान्तर में जब पाशुपत सम्प्रदाय का पतन हुआ तब प्रमाणग्रंथ लुप्त हो गये । कुछ विद्वान प्रमाणों की संख्या चौदह मानते हैं। इन चौदह के नाम क्रमशः है –
१) पञ्चार्थप्रमाण
२) शिवगुह्यप्रमाण
३) रुद्राङ्कुशप्रमाण
४) हृदयप्रमाण
५) व्युहप्रमाण
६) लक्षणप्रमाण
७) आकर्षप्रमाण
८) आदर्शप्रमाण
९) पुराकल्पप्रमाण
१०) हाटकप्रमाण
११) शालकप्रमाण
१२) निरूक्तप्रमाण
१३) विश्वप्रमाण
१४) प्रपंचप्रमाण
हृदयप्रमाण के छः उपविभाग थे , जिनको उपप्रमाण कहा जाता था । भगवान लकुलीश के शिष्य मुसलेन्द्र ने इन छः उपप्रमाणों का संग्रह किया था। यदि इन उपप्रमाणों का योग कर लिया जाए तो कुल चौदहप्रमाण सिद्ध होते हैं । केवल पञ्चार्थप्रमाण का कुछ अंश महामाहेश्वराचार्य क्षेमराज के ‘स्वच्छन्दोद्योत‘ में मिलता हैं। कश्मीर के शैवसिद्धान्ताचार्य भट्ट रामकण्ठ हृदयप्रमाण का नामोल्लेख अपने ‘परमोक्षनिरासकारिकावृत्ति’ में करते हैं। सायणमाधव कृत ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ के पाशुपतदर्शनप्रकरण में “इत्यादर्शकारादिभिस्तीर्थकरैर्निरूपितम् “
वाक्य में आदर्शप्रमाण का नामोल्लेख मिलता हैं। विभिन्न संप्रदायों के आचार्यों द्वारा उद्धृत होने तथा नामोल्लेख से इन प्रमाणग्रंथों की ऐतिहासिकता सिद्ध हो जाती हैं । दुर्भाग्यवश पञ्चार्थप्रमाण के ४ श्लोकों के अतिरिक्त इन ग्रंथों का कोई ओर अंश अप्राप्य हैं ।

भट्टारक लकुलीश के चतुर्भुज ध्यान को लिखकर लेख समाप्त करते हैं………शिवमस्तु ॐ ।
शोणाङ्गं डमरुञ्चशूलमपरे वामेऽभयं कुण्डिकां बिभ्राणस्मितभस्मराशितनुं पिङ्गोर्ध्वकेशावृतम् ।
त्र्यक्षं नीलगलं महोरगधरं हारादिभूषोज्वलं
ध्यायेऽहं लकुलीश्वरं सुरपतिं पद्मासनस्थं हृदि ॥

॥ पौराणिकसंध्याविधि:॥

शास्त्रों में सन्ध्या को अति महत्वपूर्ण आह्निककार्य घोषित किया गया है जिसके न करके से दोष होता हैं । जिस प्रकार त्रैवर्णिक द्विजातियों का २४ अक्षर की वैदिकी गायत्री में अधिकार है उसी प्रकार स्त्री तथा अन्य जनों को पौराणिक ३२ अक्षरों वाली गायत्री का अधिकार हैं । जिसका जप पौराणिक सन्ध्या वंदन के साथ किया जा सकता हैं।
पौराणिक गायत्री मंत्र निम्न है जो कि देविभागवत के अंतिम अध्याय में वर्णित हैं ।
सच्चिदानन्दरूपां तां गायत्री प्रतिपादिताम् ।
नमामि ह्रीँमयीं देवीं धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
साधक सूर्याभिमुख होकर शिखाबंधन कर तीन बार आचमन करें ।
निम्न मंत्र से अपना प्रोक्षण करें । संसृक्षोर्निखिलं विश्वं मुहुः शुक्रं प्रजापतेः।
मातरः सर्वभूतानामापो देव्यः पुनन्तु माम् ॥
दोनों हाथों को जोड़ कर गायत्री का ध्यान कर आवाहन करें । 
श्वेतवर्णासमुद्दिष्टा कौशेयवसना तथा ।
श्वेतैर्विलेपनैः पुष्पैरलंकारैश्च भूषिता ॥ आदित्यमण्डलांतस्था ब्रह्मलोकगताथवा ।
अक्षसूत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा ॥   आगच्छ वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनी । 
गायत्रीच्छन्दसां मातर्जपे मे सन्निधि भव ॥
तत्पश्चात पौराणिक गायत्री का
अष्ट/दश/शतबार जप करें ।
निम्न मंत्र से जप का समर्पण करें। गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं ग्रहाणास्मत् कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान् महेश्वरि ॥
तत्पश्चात देवी गायत्री का विसर्जन निम्न मंत्र से करें ।
महेश्वरवदनोत्पन्ना विष्णोर्हृदयसंस्थिता ।
ब्रह्मणा समनुज्ञाता गच्छ देवि यथेच्छया॥
निम्न मंत्र से सूर्य को तीन अर्घ्य देवें।
नमो विवस्वते ब्रह्मन् भास्वते विष्णुतेजसे ।
जगत्पवित्रे शुचये सवित्रे कर्मदायिने ॥ एषोऽर्घ: भगवते श्रीसूर्याय नमः॥
निम्नमंत्र से सूर्य का उपस्थान कर प्रणाम करें । उद्वयन्तमनाभासं परमं व्योम चिन्मयम् ।
अव्ययं सच्चिदाकाशमद्यन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥
इतिसंध्याविधि:॥

Ramblings on Tibetan Chöd System

  • Chöd (གཅོད/Chedaka) is a special vajrayAna Buddhist sAdhanA of anuttarayoga class tantra.
  • Chöd literally mean ‘Cutting Through the Ego’.It cuts through hindrances and obscurations, sometimes called ‘demons’ or ‘gods’.It is also known as ‘The Beggars Offering’.
  • Chöd has long been a way of seeking direct and personal experiences of mind and divinity outside of conventional and institutional frameworks of Vajrayana Buddhism.
  • According to Machig Labdrön མ་གཅིག་ལབ་སྒྲོན the main goal of Chöd is cutting through ego clinging.
  • Historically Maa Machig Labdrön མ་གཅིག་ལབ་སྒྲོན is originator of the Chöd lineage in Tibet.
  • She is renowned 11th century Tibetan tantric Buddhist yoginI who is reincarnation of Yeshe Tsogyal ཡེ་ཤེས་མཚོ་རྒྱལ.
  • Padampa Sanggye was guru of Machig Labdrön.Dampa Sangye is known as the ‘father of Chöd’.
  • Machig’s encounters with and teachings received from Dampa Sangye, a famed Indian master, provided the basis for her development and formalization of the Chöd.
  • One of her major contributions in Tibetan Buddhism is systemisation of the practice of Chöd .She is known as the ‘Mother of Chöd’.
  • As one of Machig Labdron’s biographies states

All the Dharmas originated in India And later spread to TibetOnly Machig’s teaching, born in Tibet Was later introduced in India and practiced there.

  • Iconographically, she is depicted holding a large drum, a vajrablad in her right hand and a bell in her left. Her right leg is often lifted and the standing left leg is bent in motion, in a dancing posture. Machig Labdron is depicted as white in color with three eyes and a pleasing countenance. She wears the Six Bone Ornaments of the charnel grounds, and stands on a lotus. Above Machig Labdron is Buddha Shakyamuni and mahasiddhas and the Chod lineage masters, while specific teachers and lineage holders are on either side. Below her is a tantric deity holding a Chod bone trumpet and swinging skins, while Gesar and a wrathful tantric dakini are on either side.
  • Machig and her guru are generally viewed as the founders of the Chöd system.
  • It is practised among Yundrung Bön traditions as well as the Nyingma and Kagyu schools of Tibetan Buddhism .
  • There are three different Chöd lineages. (1) Method based Father tantra lineage (2) Wisdom based Mother tantra lineage (3) Experience based Son tantra lineage
  • Chöd combines praj~nApAramitA philosophy with specific tantric rituals of vajrayAna.
  • Chöd practitioners perform rituals in lonly caves, hidden monasteries , graveyards, mountains and in no mans land.
  • Chöd practitioners visualise offering their bodies in a tantric feast in order to put their understanding of emptiness to the ultimate test.
  • In Chöd sAdhanA the mindstream precipitates into a tulpa simulacrum of vajrayoginI. In sambhogakAya attained through visualization sAdhakas offers a gaNachakra of their own physical body to the four guests: ratnatraya, DAkinI, dharmapAla and beings of the bhavachakra, lokapAlas and the pretAs. The rite may be protracted with separate offerings to each maṇḍala of guests, or significantly abridged.
  • As an internalization of an outer ritual, Chöd involves a form of self-sacrifice. Practitioner visualizes their own body as the offering at a ganachakra. The purpose of the practice is to engender a sense of victory and fearlessness.
  • krodhakAlI is main deitiy of Chöd system. She is wrathful form of vajravArAhI.
  • Iconographically, she is depicted with a great radiance at the time of darkness, fierce and raging. Her face is wrathful, gazing upward; having three round red eyes.The right hand holds a curved knife upraised and the left a skullcup of blood to the heart. In the bend of the left elbow, as the nature of method, appears a khaTvA~Nga staff. Wearing an elephant hide as an upper garment and a tiger skin as a lower garment; adorned with snakes and bones. Dark yellow hair bristles upward, the remainder falling loose. With a crown of five dry human skulls, a necklace of fifty fresh. The left leg is extended in a half dance posture pressing on the heart of a human corpse. Appearing youthful and dwelling in the middle of a blazing mass of fire. Adorned with a tiara of five skulls, bone earrings, ornaments and a necklace of freshly severed heads, draped across the shoulders she wears a frightful human skin. Standing on the left leg in a posture of dance atop a corpse, sun disc and lotus blossom, she is completely surrounded by the orangered flames of pristine awareness. At the lower left, presented as an offering, is a skullcup of nectar. At the lower right is a skullcup of blood.
  • Male practitioners of Chöd are called ChödpAs གཅོད་པ and Female practitioners of Chöd are called ChödmA. They are similar to Hindu avadhUta and kApAlikas.
  • ChödpAs and ChödmAs use a use a ritual bell vajraghaNTA, a specialized drum called a Chöd DamarU, and a human thigh bone trumpet Kangling རྐང་གླིང་།.
  • Chöd Kangling is part of an ensemble of sacred instruments that emerged from the tantric crucible of India some fifteen hundred years ago. shaiva and bauddha yogIs and yoginIs lived as wandering ascetics, staying close to charnel grounds , wearing bone ornaments, and using a unique group of ritual implements, including the human skullcup kapAla . These same objects, worn by the deities described in tantric liturgies, also appeared in the great monasteries of the time, used for both their profound symbolic meaning, and as objects possessing inherent spiritual power. Buddhist tantric religion and lifestyle.

भीमभैरवद्वादशनामावलिः

ॐ महाभैरवाय नमः॥१॥
ॐ दु:शासनान्तकाय नमः॥२॥
ॐ दिक्पालाय नमः॥३॥
ॐ गदाधारिणे नमः॥४॥
ॐ अभयप्रदाय नमः॥५॥
ॐ नरभक्षमहाप्रियाय नमः॥६॥
ॐ मधुपानप्रियाय नमः॥७॥
ॐ अट्टाटहासाय नमः॥८॥
ॐ श्मशानवासिने नमः॥९॥
ॐ अघोराय नमः॥१०॥
ॐ शववाहनाय नमः॥११॥
ॐ रक्तकापालय नमः॥१२॥