॥ महार्थेश्वर-महार्थेश्वरी ध्यानम्॥

महानयप्रभेदेन प्रेतपद्मोपरि स्थितम् ।
महामूर्तिधरं वीरं असितासहितं प्रियम् ॥
महासमयसंयुक्तं आरक्ताभं सुलोचनम् ।
महामूर्तिधरं रौद्रं मदिरानन्दविग्रहम् ॥
नृमांसोर्ध्वकरे दत्तं कपालाऽङ्कुशोभितम् ।
दशबाहुस्थितं क्रुद्धं मन्त्रमात्रविभूषितम् ॥
बीजपञ्चाशभिर्युक्तं रावाद्योक्ताधिपान्वितम् ।
दशसप्ताक्षरा विद्या असिता सा स्वयंस्थिता ॥
महाशक्तियुता सा तु बीजपञ्चाशभिर्युता ।
युग्मका सदृशा मूर्तिर्गुरुपंङ्क्तिसमन्विता ॥
प्रणवेनसुशोभाह्या चितिभस्मावगुण्ठिता ।
भैरव**कैर्युक्ता सिंहरूपे सुसंस्थिता ॥

कश्मीर की एक दुर्लभ मातृका ( श्रीशम्भूनाथ कौल जी के संग्रह में ) में महार्थेश्वर-महार्थेश्वरी का ध्यान वर्णित किया गया है। महार्थेश्वर भगवान् महाभैरव का ही मूर्त्यंतर है वहीं महार्थेश्वरी सत्रह अक्षरों की विद्या से उपासित श्री कालसंकर्षिणी है। विशिष्ट क्रमार्चा में महार्थयामल का अर्चन वामविधि से उत्तराम्नाय के साधक किया करते है। अस्तु…।

ह्रीं श्रीं महार्थेश्वरीमहार्थेश्वर अम्बा नाथ पादुकां पूजयामि॥

भगवती सप्तकोटीश्वरी

क्रमनय के साधकों के मध्य श्रीसंकर्षिणी की विभिन्न मूर्तियों की उपासना का चलन हैं । देवी कालसंकर्षिणी के विभिन्न अमूर्त स्वरूपों में सप्तकोटीश्वरी प्रधान हैं। महाव्योमवागीश्वरी तथा घोरचण्डा इनके अपर नाम हैं ।
देवी सप्तकोटीश्वरी का कल्प जयद्रथयामल के तीसरे तथा चतुर्थ षट्क में प्राप्त होता हैं । काश्मीरपरम्परा की चार प्रत्यंगिराओ में देवी सप्तकोटीश्वरी संगणित हैं ।
देवी के अमूर्त ध्यान में इन्हें सप्तमुण्डों पर आसीन बताया गया हैं ।

……. कवलननिरता सप्तमुण्डासनस्था प्रोद्भोताधार चक्रात्प्रलयशिखि शिखा……….

श्रीजयद्रथयामल में कहा गया भी है-

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सप्तमुण्डासनरतां तत्सङ्ख्या भुवनाध्वगाम् ॥

महार्थमंजरीपरिमल में महेश्वरानन्द सप्तकोटीश्वरी के विषय में लिखते हैं –

तत् श्रीमत्सप्तकोटीश्वरीविद्यानुसन्धानवासनानुस्यूतेः –
सप्तकोटिर्महामन्त्रा महाकालीमुखोद्गताः॥
इत्याम्नायन्यायादेकैककोटिक्रोडीकारसूचनार्थमेकैकदशकस्वीकार इति तस्याः सिद्धयोगिन्याः सप्तसंख्यात्मकमुद्रानिबन्धतात्पर्यात् सप्ततिसंख्यानिर्बन्ध इति तात्पर्यार्थः।

देवी महाकाली (सप्तकोटीश्वरी) के मुख से सप्तकोटिमंत्रों का उद्भव हुआ है। देवी सप्तकोटीश्वरी
का साधक इन का ज्ञान सप्ताक्षरी विद्या के जप से प्राप्त कर सकता हैं। सप्ताक्षरीविद्या होने से ही सप्त मुद्राओं के बंधन का विधान महार्थसंप्रदाय में किया गया हैं।

सप्तकोटीश्वरी कल्पानुसार इनकी अतिरहस्य गायत्री का केवल 8 बार जप करने से साधक के ब्रह्महत्या, सुरापानादि पंचमहापातकों का नाश होता हैं। सप्तकोटीश्वरीगायत्री का एक बार पाठ करने मात्र से साधक के उपपतकों का नाश होता हैं । शतबार जप करने से साधक सोमपुत, अग्निपुत तथा मंत्रपुत होता हैं। वैदिकी गायत्री के साथ सम्मेलन कर जप करने से ब्रह्मदण्डादिप्रयोगों में क्षिप्रसिद्धि प्राप्त होती हैं ।

देवी सप्तकोटीश्वरी की उपासना करने से कुहुकों का नाश होता हैं । भगवती अपने साधको के समस्त दुःखों का नाश करती हैं ।
श्रीजयद्रथयामल में कहा भी गया है-

अथातः संप्रवक्ष्यामि कुहकानां विनाशिनीम् ।
यस्याः पूजनमात्रेण सर्वदुःखाद्विमुच्यते ॥

देवी सप्तकोटीश्वरी की सप्ताक्षरी विद्या का जप करने से
साधक काव्य, ज्योतिष,व्याकरण तथा रहस्य शास्त्रों का ज्ञान स्वतः ही प्राप्त कर लेता हैं। श्रीजयद्रथयामल में कहा भी गया है-

काव्यं दैवज्ञतां चैव महाव्याकरणानि च ।
देवी पूजन मात्रेण लभते नात्र संशयः ॥

देवी सप्तकोटीश्वरी के साधन में वर्णन्यास, मुण्डभङ्गीन्यास, दण्डभङ्गीन्यास, धारान्यास तथा कुलक्रम न्यास को करना अत्यन्त आवश्यक है । इन न्यासों को करे बिना जो सप्तकोटीश्वरी का साधन करता है वह योगिनियों का पशु होता है। नेपालमण्डल से प्राप्त सप्तकोटीश्वरीपूजापद्धति की मातृका में इन न्यासों का विशद वर्णन प्राप्त होता है जो जयद्रथयामल के सप्तकोटीश्वरीकल्प में प्राप्त नहीं होता हैं। संभवतः पद्धतिकार के सम्मुख सप्तकोटीश्वरीकल्प का कोई अन्य पाठ था जो वर्तमान जयद्रथयामल में प्राप्त नहीं होता अथवा पद्धतिकार तंत्रान्तर से इनको उद्धृत करता हैं ।
भगवती सप्तकोटीश्वरी का साधन विजनवन, एकान्त स्थल अथवा देवीमंदिर में ही करना चाहिए , ऐसा करने से साधक सर्वसौभाग्य को प्राप्त करता हैं। भगवती की सप्ताक्षरी विद्या का साधन करने वाला साधक अन्त काल में परमपद को प्राप्त करता है तथा इहलोक में उत्तमस्त्री, धन , विद्या तथा रहस्यों को प्राप्त करता हैं । इस विद्या का साधन करने वाले साधक का कोई द्वेषी नहीं होता। इनका साधक जहां कहीं भी निवास करता है वहां अकाल, दुर्भिक्ष, व्याधि तथा अपमृत्यु नहीं होती ।
श्रीजयद्रथयामल में तो यहां तक कहा गया है कि सप्तकोटीश्वरी के साधक को संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं है, देवी के कृपा प्रसाद से उसकी समस्त कामनाएं सिद्ध होती हैं।

यत्किञ्चिद्भुवने वस्तु विद्यतेर्घ्यं सुरेश्वरि ।
तश्चेत्कामयते साक्षाल्लभते नात्र संशयः ॥

भगवती महाव्योमवागीश्वरी जगदम्बा सप्तकोटीश्वरी के चरणद्वन्द्व की वन्दना करते हुए लेख समाप्त किया जाता हैं । ॐ शिवमस्तु ॥

ह्रीँ श्रीँ महाव्योमवागीश्वरी अम्बा पादुकां पूजयामि ॥

जयद्रथयामल-एक सिंहावलोकन

भैरवस्रोत के विद्यापीठग्रन्थों में जयद्रथयामल एक प्रधान आगम हैं । सिंधुदेश के राजा जयद्रथ को भगवान महेश्वर द्वारा प्रसन्न होकर इस ग्रंथ का उपदेश
उपदेश किया गया । भगवती कालसंकर्षिणी इस आगमग्रंथ का उपजीव्य विषय हैं। भगवती कालसंकर्षिणी के ३६० स्वरूपों के मंत्र, यंत्र, प्रयोगादि का वर्णन इस ग्रंथ में प्राप्त होता हैं। यह ग्रंथ शिवशिवासंवादात्मक हैं, भगवती शिवा इस ग्रंथ की प्रश्नकर्ता तथा भगवान शिव उत्तरदाता हैं। यह ग्रंथ विशालकाय कलेवर वाला है, जो कि २४,००० श्लोकों में निबद्ध हैं। ग्रंथ की पुष्पिका में “श्रीभैरवस्रोतसि विद्यापीठे जयद्रथयामले महातन्त्रे …. षट्के चतुर् विंशतिसाहस्रे …..” लिखा प्राप्त होता हैं ।
इस ग्रंथ का विभाजन ४ षट्कों में किया गया हैं। प्रत्येक षट्क में ६,००० श्लोक हैं। उपलब्ध षट्कों में ६००० श्लोक प्राप्त नहीं होते हैं।
षट्कों का विभाजन पुनः पटलों में किया गया हैं। अनुमानतः पूर्ण जयद्रथ यामल में १८०-१५० पटल थें । उपलब्ध जयद्रथयामल में लगभग १३५ पटल हैं।
इस ग्रंथ के चारषट्कों की ३०-३२ पांडुलिपियां नेवारी तथा पुरानीदेवनागरी लिपि में नेपाल देश में प्राप्त होती हैं। यह पांडुलिपियां ११-१२ शती में लिखी गई थीं , जिनमे कई का समय समय पर पुनर्लेखन किया गया। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाएं तो जयद्रथयामल की रचना ८-९ शती में कश्मीर देश में की गई । इस ग्रंथ पर कापालिकों तथा डामरकों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टि गोचर होता हैं। अनेकों भयावह यागों तथा अमानुषिक प्रयोगों का वर्णन इस ग्रंथ में प्राप्त होता हैं। साथ ही विभिन्न योगों , आसनों तथा मुद्राओं का विवरण भी प्राप्त होता हैं।
जिसमे बाद की ९-१० शती तक कई क्षेपक जोड़े गए। जयद्रथयामल के निर्माणसमय से पूर्व में प्रचलित माधवकुल, योगिनीसञ्चार, कुलगह्वर तथा कालीक्रमविधान इत्यादि स्वतंत्र प्रकरणों वा ग्रंथो का समावेश भी इस यामलग्रंथ में किया गया हैं ।वर्तमान में यह ग्रंथ अपूर्ण अवस्था में प्राप्त होता हैं। कश्मीर के ग्रंथो में जयद्रथयामल के ऐसे अनेकों भाग उद्धृत किए गए है जो की नेपाल के हस्तलेखों में उपलब्ध नहीं होते हैं यथा कालीपटल, बगलामुखीपटल तथा वटुकभैरवपटल इत्यादि । प्रकटभैरव महामाहेश्वाराचार्य अभिनवगुप्त अपने तन्त्रालोक में अनेकों स्थानों पर इस ग्रन्थ को उद्धृत करते हैं। अब जयद्रथयामल के चारों षट्कों की विषयवस्तु का वर्णन किया जाता हैं ।
१.प्रथमषट्क प्रथमषट्क में ५० पटल हैं। जिनमें देवी भगवती कालसंकर्षिणी के गुप्तयोग का वर्णन मिलता हैं। प्रथम पांचपटलों में विद्यापीठ के विभिन्न ग्रंथो का वर्णन प्राप्त होता हैं। इस भाग का अपरनाम ‘शिरच्छेद’ हैं। वामस्रोत से संबंधित चतुर्भगनियों के सहित भगवान तुम्बुरू का विशद ध्यान प्राप्त होता हैं। इसी भाग में नवाक्षरीविद्या का उद्धार दिया गया हैं। साथ ही देवी लक्ष्मी के विशिष्टयाग तथा इंद्रजाल का वर्णन प्राप्त होता हैं। यामलानुसारी होमविधि भी इसी भाग में लिखी गई हैं।
२.द्वितीयषट्कद्वितीयषट्क में ४० पटल हैं। आरंभ के पटलों में इंद्रध्वज, वरुणध्वज, वायुध्वज, धनेश्वर ध्वज, ब्रह्मध्वज , विष्णुध्वज तथा रुद्रध्वज का विवरण हैं। इसी भाग में चर्चिका,यमकाली, नंदा, जंघकरा, रक्तकाली, ईशानकाली, प्रज्ञाकाली , वीर्यकाली इत्यादि भगवती कालसंकर्षिणी के स्वरूपों का विवरण प्राप्त होता हैं। अष्टम पटल में भगवती कालसंकर्षिणी के विशिष्ट स्वरूप गह्नेश्वरी काली का वर्णन किया गया हैं। भगवती काली की परम गोपनीय हृदयविद्या का उद्धार भी इसी भाग में किया गया हैं। विद्याविद्येश्वरी देवी का याग ३ पटलों में प्राप्त होता हैं। भगवती सिद्धिलक्ष्मी इस षट्क की प्रधान देवता हैं। अधिकतर पटल इसी स्वरूप को समर्पित हैं। इस भाग का अपरनाम ‘महाकालिकातंत्र’ हैं।
३.तृतीयषट्क– ऐतिहासिकदृष्टि से यह षट्क जयद्रथ यामल का सर्वप्राचीन भाग हैं। इस भाग पर प्राचीन पाञ्चरात्र संप्रदाय का प्रभाव जान पड़ता हैं। पांच पटलों में माधवकुल तथा आठपटलों में योगिनीसंचार इसी भाग में उपलब्ध होते हैं। इसी भाग में भुवनदीक्षा से लेकर निर्वाणदीक्षा पर्यन्त २४ प्रकार की दीक्षाओं का वर्णन मिलता हैं। अव्ययदेशकाली के याग की विधि भी इसी भाग में हैं। महामेलाप प्रकरण भी इसी भाग में हैं । उपलब्ध पाण्डुलिपियों में इस भाग के १६ पटल प्राप्त होते हैं। संभवतः यह भाग अपूर्ण हैं।
४.चतुर्थषट्क– यह भाग भी अत्यंत प्राचीन मालूम होता हैं। मन्त्रवीर्य की चर्चा इसी भाग में भगवान करते हैं। इस भाग में एक मुद्राकोश भी प्राप्त होता है , जिसमे महामुद्रा, खेचरीमुद्रा इत्यादि पचास से अधिक मुद्राओं का वर्णन भगवान साधकों की सिद्धि के हेतु करते हैं । इसी भाग में परान्तककाली, मेघकाली, बगलामुखी, नागाशनी, पापन्तकारी, नित्याकाली, कालरात्रि, मेलपाकाली, वागीश्वरी , मोहकाली तथा संग्रामकाली इत्यादि स्वरूपों के याग की विधि प्राप्त होती हैं। इसी भाग में कालीक्रम तथा राविणीयोग का वर्णन मिलता हैं। कालीकुलपूजा विधि भी इसी भाग में प्राप्त होती हैं। संभवतः यह भाग भी कुछ अपूर्ण हैं । भगवती संकर्षिणी के ध्यान के साथ लेख समाप्त किया जाता है………. शिवमस्तु ।
काद्यं कङ्कालयुक्ता कुलकमला कालिका कन्दकोणा कङ्काली कालयन्ति कुलाऽकुलकला कोविदं कार्गलस्था । पायाद्वः कालकामारणिकलितकला केलिकेकाकलापैः काद्येकोष्णं कलेशी कवलयति सदा सा करङ्का क्रमेण ॥