॥ महार्थेश्वर-महार्थेश्वरी ध्यानम्॥

महानयप्रभेदेन प्रेतपद्मोपरि स्थितम् ।
महामूर्तिधरं वीरं असितासहितं प्रियम् ॥
महासमयसंयुक्तं आरक्ताभं सुलोचनम् ।
महामूर्तिधरं रौद्रं मदिरानन्दविग्रहम् ॥
नृमांसोर्ध्वकरे दत्तं कपालाऽङ्कुशोभितम् ।
दशबाहुस्थितं क्रुद्धं मन्त्रमात्रविभूषितम् ॥
बीजपञ्चाशभिर्युक्तं रावाद्योक्ताधिपान्वितम् ।
दशसप्ताक्षरा विद्या असिता सा स्वयंस्थिता ॥
महाशक्तियुता सा तु बीजपञ्चाशभिर्युता ।
युग्मका सदृशा मूर्तिर्गुरुपंङ्क्तिसमन्विता ॥
प्रणवेनसुशोभाह्या चितिभस्मावगुण्ठिता ।
भैरव**कैर्युक्ता सिंहरूपे सुसंस्थिता ॥

कश्मीर की एक दुर्लभ मातृका ( श्रीशम्भूनाथ कौल जी के संग्रह में ) में महार्थेश्वर-महार्थेश्वरी का ध्यान वर्णित किया गया है। महार्थेश्वर भगवान् महाभैरव का ही मूर्त्यंतर है वहीं महार्थेश्वरी सत्रह अक्षरों की विद्या से उपासित श्री कालसंकर्षिणी है। विशिष्ट क्रमार्चा में महार्थयामल का अर्चन वामविधि से उत्तराम्नाय के साधक किया करते है। अस्तु…।

ह्रीं श्रीं महार्थेश्वरीमहार्थेश्वर अम्बा नाथ पादुकां पूजयामि॥

महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्तकृत देवीस्तोत्रविवरण

श्रीभगवद्गीताशास्त्र की ‘गीतार्थसंग्रह’ टीका महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त की आरम्भिक कृति हैं। भगवद्गीता की इस टीका में आचार्य भट्टेन्दुराज की परम्परा से प्राप्त रहस्यार्थ का उद्घाटन श्रीअभिनवगुप्त ने किया हैं। आचार्य ने गीता के श्लोकों में निहित महार्थतत्त्व का प्रकाशन इस कृति में किया हैं। इस ग्रंथ की रचना श्रीअभिनवगुप्त ने कालीकुलक्रमाचार्य श्रीभूतिराज के चरणकमलों में बैठकर अपने मित्र वा बान्धव लोटक के निमित्त की थीं । श्रीअभिनवगुप्त ने गीतार्थसङ्ग्रह के एकादश अध्याय में अपने देवीस्तोत्रविवरण का उल्लेख किया हैं ।

एतदेवात्राध्याये रहस्यं प्रायशो देवीस्तोत्रविवृतौ मया प्रकाशितम् ॥

11.18 की टीका

उक्त देवीस्तोत्रविवरण को लेकर विद्वानों ने दो प्रकार के मत उद्धृत किये हैं। प्रथमपक्ष के अनुसार श्रीअभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धनाचार्य कृत देविस्तोत्र पर विवृति लिखी थी जिसका उल्लेख उन्होंने यहां पर किया हैं । यह स्तोत्र तो प्राप्त होता हैं परंतु विवृति उपलब्ध नहीं होती । काव्यमालागुच्छिका सीरीज के ९वें  खंड में यह स्तोत्र आचार्य कय्यट की टीका के साथ प्रकाशित हैं। इस स्तोत्र का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह स्तोत्र काव्य की दृष्टि से तो अत्यन्त समृद्ध है परंतु इसकी विषयवस्तु में क्रमदर्शन के तत्त्व का नितान्त आभाव हैं। यह स्तोत्र दार्शनिक न होकर पौराणिक तथा काव्यप्रयोगात्मक अधिक प्रतीत होता हैं। शेष रहीं बात आचार्य कय्यट कृत व्याख्या की तो, उन्होंने अपनी व्याख्या में किसी भी स्थान पर इस स्तोत्र को क्रमनय से संबंधित नहीं बताया हैं। उनकी व्याख्या में भी क्रमतत्त्व  का नितान्त आभाव दृष्टिगोचर होता हैं ।

अपरपक्ष के अनुसार सिद्धनाथ कृत क्रमस्तोत्र का ही अपरनाम देवीस्तोत्र हैं । क्रमनय को ‘देवीनय‘ वा ‘देविकाक्रम‘ के अभिधान से भी जाना जाता है अतः क्रमस्तोत्र का अपरनाम देवीस्तोत्र होना समीचीन ज्ञात होता हैं । गीतार्थसंग्रह में उल्लेखित ‘देवीस्तोत्रविवरण’ वस्तुतः ‘क्रमकेलि’ का ही द्वितीय अभिधान हैं । महार्थमंजरी की अंतिमगाथा की परिमल व्याख्या में भी इस ओर संकेत किया गया हैं। महेश्वरानंद ने क्रमकेलि में निहित गीता के क्रमार्थ को ३८ कारिकाओं में बद्धकर अपने व्याखान में समुचित स्थान दिया हैं। अतः द्वितीयपक्ष अधिक समुचित तथा  समीचीन जान पड़ता हैं ।

ह्रीँ श्रीँ श्रीसंकर्षणि अम्बा पादुकां पूजयामि ॥

तत्त्वतस्तु न नानार्थरूपा नाप्येकविग्रहा ।
यानिकेतानिरातङ्का खस्वभावा नमामिताम् ॥ ॐ……. शिवमस्तु ।