सिद्धलक्ष्मी एवं स्वच्छन्दभैरव साधना



भगवती कालसंकर्षिणी, गुरुमण्डल एवं साधक समाज के आपर अनुग्रह से कालीक्रमप्रचारिणी सभा द्वारा अपने तुरीय तथा तुरीयातीत पुष्प के रूप में ‘उमायामलोक्त सिद्धलक्ष्म्यार्चनपद्धतिः’ तथा
‘श्रीशिखास्वच्छन्दभैरवरहस्यम्’ का प्रकाशन किया गया है।


१. उमायामलोक्त सिद्धलक्ष्म्यार्चनपद्धतिः



इस ग्रन्थ में उमायामल पर आधारित भगवती सिद्धलक्ष्मी के पूजाविधान का संकलन किया गया है। पुस्तक में सिद्धलक्ष्मी के दुर्लभ मंत्र, यन्त्र, ध्यान, स्वरुप, आवरणपूजा, नित्यपूजाविधि तथा होमविधि का संकलन किया गया है। नवीन साधकों के लिए सरल सिद्धलक्ष्मी पूजा विधान भी दिया गया है। साथ ही सिद्धलक्ष्मी मन्त्र कल्पम्, सिद्धलक्ष्मीपुष्पार्पण कल्पम्, सिद्धलक्ष्मी गद्यम्, सिद्धलक्ष्मी त्रैलोक्यमोहन कवचम्, सिद्धलक्ष्मी प्रत्यङ्गिरा स्तोत्रम् आदि दुर्लभ स्तोत्रों का संकलन किया गया है।


२. श्रीशिखास्वच्छन्दभैरवरहस्यम्


इस पुस्तक में रुद्रयामल के अन्तर्गत आने वाले
श्रीशिखास्वच्छन्दभैरव कल्प के आधार पर श्रीशिखा स्वच्छन्दभैरव के मंत्र, यन्त्र, ध्यान, स्वरुप, आवरणपूजा, नित्यपूजाविधि तथा होमविधि का संकलन किया गया है। साथ ही स्वच्छन्दभैरव से संबंधित कई दुर्लभ स्तोत्रों का संकलन किया गया है।

अनुवादित स्तोत्र:

स्वच्छन्दभैरव वक्त्र स्तोत्रम्, जयद्रथयामलोक्त भैरव स्तोत्रम्, श्रीमतोक्त भैरव स्तोत्रम् आदि ।


मूल स्तोत्र:
श्रीशिखास्वच्छन्दभैरव स्तोत्रम्,
श्रीशिखास्वच्छन्दभैरव कवचम्,
श्रीशिखास्वच्छन्दभैरवाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्,
अघोरस्वच्छन्दभैरवदण्डकम्,
आचार्य क्षेमराज कृत भैरवानुकरण स्तोत्र, 
आचार्य अभिनवगुप्त कृत भैरवस्तोत्रम् आदि।


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पण्डित अनिमेष नागर
ईमेल : animesh28nagar@gmail.com

New works

By the blessings of goddess Kālasañkarshinī and Guru Mandal, our kalīKrama Prachāriniī Sabhā has released two new works.

1. amriteshwarārchan paddhati
( अमृतेश्वरार्चनपद्धतिः )

The book includes a sadhana vidhi for Amriteshwar Bhairava based on the Shāradā and Devanāgarī manuscripts of the 14th and 17th centuries. Amriteshwar Bhairava’s Shaiva rituals based on Netra Tantra and nandīshikhāvatāra are described in detail, including the very rare saptāvarana puja and nyāsas.


2. brahma yāmalokta yoginī vijaya Stava
(ब्रह्मयामलोक्त श्रीयोगिनीविजयस्तवः)

A single manuscript was used to publish this rare stotra from Brahmayāmala.
The main mandala of Kapālisha bhairava and various yoginis is described by it. Stotra praises several yogis and matrikas. In their respective pithas, there is also a description of the union of ashta matrikas and ashta bhairavas.A stotra that has 333 verses in detail and is associated with southern agmic currents ( Bhairavāgama or Bhairava Shrota)


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वराहभैरव



प्राचीन काल से नेपाल तंत्र की भूमि रहा है। शैव, शाक्त, वैष्णव आदि मतवादों के विभिन्न देवताओं के विशिष्ट  स्वरूपों की उपासना यहां होती आईं हैं। नेपाल के तांत्रिकों ने ‘भैरवीकरण’ की विशिष्ट प्रक्रिया का आलंबन करते हुएं ‘रहस्यमूर्ति’ की अवधारणा को जन्म दिया। इन्हीं स्वरूपों में एक हैं वराहभैरव जिनकी अवधारणा वैष्णवमूर्ति के भैरवीकरण से प्रकट हुईं। इन्हें क्रोडभैरव भी कहा जाता हैं ।

यह वैष्णवस्वरुप षडाम्नाय में परिपूजित होता है। वराह उपासना में उच्चस्तरीय साधकों को इस मूर्ति की साधना विधि प्रदान की जाती हैं । इनकी उपासना प्रायः कौलाचार से होती है। इनकी उपासना से प्रबलतम शत्रुबाधा का नाश होता है। साधक षटकर्म में पारङ्गतता प्राप्त कर लेता है।

वराहभैरव के छः मुख हैं जो आगम के षड्स्रोत एवं षडाम्नाय के प्रतीक हैं। इनके छः मुख श्रीभगवान् के  षड्विध ऐश्वर्य का प्रतीक हैं।  पांचरात्रसिद्धान्त के अनुसार इनके छः मुख परवासुदेव (निर्वाणनारायण), वासुदेव, संकर्षण,अनिरुद्ध, प्रद्युम्न तथा साम्ब का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके मस्तक पर मुकुट विराजमान हैं। कर्णों में पुष्पकुण्डल हैं। कण्ठ एकावलीहार तथा प्रलंबित वनमाला से शोभायमान है। वराहभैरव के अंक में द्विभुजा भूमिभैरवी का अधिष्ठान हैं। देवी इनकी स्वात्रंत्यशक्ति का प्रतीक है। वराहभैरव की आठ भुजाएं हैं जिनमें वे क्रमशः अंकुश, डमरू, शर, मूसल, मणि, धनुष तथा पाश धारण करते हैं। एक हस्त देवी के श्रीस्कंध पर विराजमान हैं।अष्टभुजाएं पाशाष्टक के नाश का प्रतीक है। वराहयामल शवासन पर विराजमान हैं। 


ह्रीँ श्रीँ क्रोडभैरवी युत क्रोडभैरवनाथ पादुकां पूजयामि॥

सिद्धलक्ष्मी उपासना की फलश्रुति(श्रीजयद्रथयामल के परिप्रेक्ष्य में )

पिछले कुछ समय से तथाकथित मंत्रविक्रेता पाषण्डी माता  सिद्धलक्ष्मी के विषय में अनर्गल एवं अशास्त्रीय प्रलाप कर रहे थे अतः सिद्धलक्ष्मी उपासना की फलश्रुति के विषय में सप्रमाण लेख लिखा जा रहा हैं। साधकों एवं जनसामान्य से विशेष आग्रह है धन लेकर मंत्र की दीक्षा प्रदान करने वाले तथा शिविर लगा तन्त्र साधना के नाम पर ठगने वाले पाषण्डी लोगों से सावधान रहें। जो भी धन लेकर अथवा कूटरचित तथ्यों द्वारा आपको सिद्धलक्ष्मी मंत्र व साधना की दीक्षा देने का दावा करते हों ऐसे धन एवं स्त्री लोलुप लोगों का दूर से ही त्याग करें।

श्रीतन्त्रराजभट्टारक (जयद्रथयामल) में भगवती सङ्कर्षिणी के विविध स्वरूपों का वर्णन किया गया है इन्हीं स्वरूपों में एक है सिद्धलक्ष्मी । श्रीतन्त्रराजभट्टारक के द्वितीय षट्क के छत्तीसवें पटल में इनकी उपासना विधि तथा फलश्रुति का वर्णन किया गया है।

भुक्तिदा मुक्तिदा विद्या जयदा मुखसिद्धिदा ।
नानया सदृशी विद्या त्रिषुलोकेषु विद्यते ॥
ज.या.ष.२ प.३६

सिद्धलक्ष्मी भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हैं। इनकी कृपा से साधक विद्या, विजय तथा वाक्सिद्ध प्राप्त करता है। तीनों लोकों में इनके समान श्रेष्ठ विद्या नहीं है।

तं नास्ति यं न कुरुते त्रैलोक्ये स चराचरे ।
एषा दीप्ततरा घोरा नास्ति यद्यत्न साधयेत् ॥
प्रत्यङ्गिरा महाकाली स्मरणात् साधकस्य तु ।
ज.या.ष.२ प.३६

प्रत्यङ्गिरा एवं महाकाली स्वरुप सिद्धलक्ष्मी के स्मरण मात्र से त्रैलोक्य का कोई ऐसा कार्य नहीं है जो सिद्ध न हो। इनके प्रबल मंत्र वीर्य वाली देवी कोई नहीं है अतः शास्त्रीय लक्षणों से युक्त परम्परा प्राप्त गुरु के निर्देशन में यत्न पूर्वक इनका साधन करना चाहिए। देवी को यहां पर प्रत्यङ्गिरा तथा महाकाली कहा गया है। कुछ लोग अपनी दुकानदारी चलाने के लिए इन्हें आसुरी लक्ष्मी बताने की कुचेष्टा कर रहे हैं जो पूर्ण रूप से निर्मूल हैं।
(पाठकों से अनुरोध है ऐसा कहने वालों से शास्त्र प्रमाण भी पूछ कर देखें ।)

न कालवेला नियमो न च ध्यान जपादिकम् ।
व्रतन्न तपश्चास्य विद्यते कुलकृशोदरि ॥
ज.या.ष.२ प.३६

हे ! कुलकृशोदरि इनकी साधना में कालवेला का कोई नियम नहीं है। न ध्यान न बाह्यजप आदि का विधान है। किसी प्रकार के विद्याव्रत अथवा देह को कष्ट देने वाले निरर्थक तप की विधि है।

सर्वपापप्रशमनी सर्वसंपद्गुणावहा ।
सर्वानर्थप्रशमनी सर्वदुष्टविमर्दनी ॥
सर्वसंकरदोषघ्नी सर्वदारिद्र्यमर्दनी ‌।
सर्वव्याधिप्रशमनी सर्वोपद्रवभेदिनी ।
सर्वसौभाग्यजननी महाभाग्यावरोहिनी ॥
ज.या.ष.२ प.३६

माता सिद्धलक्ष्मी की उपासना समस्त प्रकार के  महापातक तथा उपपातकों का नाश करने वाली हैं।
इनकी साधना से आंतरिक तथा बाह्यसम्पदा प्राप्त होती है। देवी साधक के समस्त प्रकार के अनिष्टों का नाश करती हैं। समस्त प्रकार के दुष्टों का मर्दन करती हैं। देवी विभिन्न आगामों तथा परम्पराओं के मेलन से उत्पन्न होने वाले समस्त संकर दोषों का नाश करती हैं। आंतरिक दारिद्रय हो या बाह्य मां उभय प्रकार के दरिद्रता दूर करती हैं। मां भगवती संसाररूप व्याधि तथा पाप जनित व्याधियों का शमन करने वाली हैं। देवी अभिचार, षडयन्त्र आदि समस्तप्रकार के उपद्रवों का भेदन करने वाली हैं। देवी के अनुग्रह से साधक अपने निज शिव स्वरुप के प्रत्यभिज्ञान रूप सर्वसौभाग्य का लाभ करता हैं। देवी आत्मलाभ रूप महाभाग्य प्रदान करने वाली हैं।

यतः प्रभृति कर्णस्था विद्येयं शुभदायिका ।
ततः प्रभृति सर्वत्र भैरवे च विराजते ॥ज.या.ष.२ प.३६

सदगुरु से समस्त प्रकार के शुभों को प्रदान करनें वाली विद्या का कर्ण में ग्रहण करते ही साधक में भैरव भाव स्फूरित हो जाता है।

लिंगोत्पाटादि पापाणि लीलया नाशयेत्पलं ।
मन्त्रसिद्धिर्भवेत् तस्य यस्यैयं हृदिसंस्थिता॥
ज.या.ष.२ प.३६

शिवलिंग को उखाड़ने ( नष्ट करते) से लेकर जो भी जघन्य पाप है इनके स्मरण मात्र से नष्ट हो जाते हैं।

सर्वतीर्थफलं देवि सप्तजप्तैर्न संशयः ।
सकृतोच्चार मात्रेण महापापं व्यपोहति ॥
सर्वयज्ञफलं चेष्टे सर्वदीक्षाफलं लभेत् ‌।
समयाचार लुप्तस्य शतजप्येन शुद्ध्यति ॥
अहो मन्त्रस्य माहात्म्यं जपमानस्य नित्यशः ।
विनापि लययोगेन योगीन्द्राणां समोभवेत् ॥

सिद्धलक्ष्मी की विद्या के सात बार जप से समस्त तीर्थों में अवगाहन का फल प्राप्त होता है। एक बार उच्चारण करने मात्र से महापापों का नाश होता है। केवल इस विद्या के अनुष्ठान से समस्त यज्ञों को करनें का फल प्राप्त होता है। चतुष्पीठ के तन्त्रों की दीक्षा का फल प्राप्त होता है। ऐसा नष्ट भ्रष्ट साधक जिसने समयाचार का लोप किया हो इनकी विद्या के शतवारजप मात्र से  शुद्धि को प्राप्त होता है। इनकी विद्या के नित्य जप से बिना किसी प्रकार के योग के साधक योगिन्द्रों के समान अवस्था को प्राप्त कर लेता है।

शब्दपुष्प रूप यह लेख माता सिद्धलक्ष्मी के चरणों में  समर्पित है । श्रीसिद्धलक्ष्मीदेव्यार्पणमस्तु ॥

॥ श्रीकुब्जिकेश्वरी ॥

प्राचीन काल से भारत में शक्ति उपासना प्रचलित रहीं है। भारतभूमि के जन  महाशक्ति के कालसंकर्षिणी, परा, महापरा, सिद्धलक्ष्मी, त्रिपुरा, बाला, तारा, पद्मावती, मनोन्मनी आदि विविध स्वरूपों की उपासना करते हैं। इन्हीं स्वरूपों में एक विशिष्ट स्वरूप है- कुब्जिका। चिंचिणी, कुजेशी, कुब्जेश्वरी, श्रीपश्चिमदेवता, कुलालिका, कुजा, वक्त्रिका, क्रमेशी,खंजिणी, त्वरिता,मातङ्गी इत्यादि इनके अपर अभिधान हैं।

कुब्जिका शब्द की व्युत्पत्ति कुब्जक् + टाप्, इत्व से होती हैं। शतसाहस्रसंहिता के भाष्य में वर्णन आता है कि वह महाशक्ति जो कुब्ज होकर जो सर्वत्र संकुचित रूप से व्याप्त हो जाती हैं उसे कुब्जिका कहते हैं। संवर्तामण्डलसूत्रभाष्य के अनुसार कु+अब्+ज अर्थात अग्नि, सोम तथा प्राण की अधिष्ठत्री देवि कुब्जिका हैं। सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जाए तो भगवती कुब्जिका ’कुलकुण्डलिनी’ का मूर्त स्वरूप है।

कई अज्ञ मंत्रविक्रेता  ‘कुब्जिका’ को चाबी, कुंजी, कुबड़ी तथा कुंजिका बताते हैं सो अशास्त्रीय तथा निर्मूल हैं। सुधिजनों को इनके झांसे में नहीं फसना चाहिए। ‘कुंजिका’ एक स्तोत्र विशेष का नाम है जिससे चंडीसप्तशती का उत्कीलन होता है वहीं ‘कुब्जिका’ पश्चिमाम्नाय की अधिष्ठात्री देवी हैं। इसी प्रकार भगवती को कूबड़ से युक्त या कुबड़ी कहना मूर्खता ही नहीं अपितु गुरूतर अपराध  है। वस्तुतः जो कुब्ज होकर जो सर्वत्र संकुचित रूप से व्याप्त हो जाती हैं उस महाशक्ति को कुब्जिका कहते हैं। इनका उपासना संप्रदाय अत्यन्त प्राचीन तथा श्रीविद्या संप्रदाय से उदय से पूर्व का है। मूल त्रैपुर क्रम से इनका कोई सम्बंध नहीं है। हालांकि परवर्ती श्रीविद्यासंप्रदाय में कुब्जिकानय के सिद्धांतों तथा पूजाक्रम का अन्तर्भाव किया गया है। श्रीविद्या संप्रदाय में मित्रोड्डीश आदि गुरुक्रम तथा षडान्वयशांभवक्रम कुब्जिकानय से लिया गया है।  वर्तमान में भी प्रमाणिक श्रीविद्यासंप्रदाय के लब्धाभिषेक साधक आम्नायसमिष्टिपूजा में पश्चिमाम्नायेश्वरी की पूजा करते हैं।

परमशिव के सद्योजात नामक पश्चिममुख से इनकी उपासना विधि का प्रतिपादन करने वाले आगमों का प्राकट्य होता है। इनकी साधना बालक्रम, ज्येष्ठक्रम तथा वृद्धक्रम इन तीन क्रमों से ’पश्चिमाम्नाय’ अथवा ’पश्चिमान्वय’ के अनुसार की जाती है। कलियुग में ’बालक्रम’ का प्राधान्य हैं। बालक्रम को ‘अष्टाविंशतिक्रम’ के अभिधान से जाना जाता है। आथर्वणी श्रुति के अनुसार कलियुग में शिप्र सिद्धि की प्राप्ति के लिए पश्चिमाम्नाय के क्रमानुसार कुब्जिका उपासना करनी चाहिए। ’पश्चिमाम्नाय’ का आलम्बन कर साधक कर्म करता हुआ संचितकर्म वा प्रारब्ध का संहार कर लेता है और मुक्ति के राजमार्ग पर प्रशस्त होकर गमन करता है। यह महाशाम्भवक्रम है जिसमें शाम्भवी शक्ति की उपासना ’कुब्जिका’ के रूप में की जाती है।
भगवती कुब्जिका लौकिक तथा परालौकिक उभय प्रकार की संपत्ति प्रदान करने वाले है इनकी उपासना का आलम्बन कर स्वकर्म में निरत साधक अपने दुःखः-द्रारिद्रय का उपशमन करता है।

कुब्जिकाक्रमपूजा में श्रीनवात्मागुरुमण्डल, श्रीअष्टाविंशतिक्रम तथा श्रीपश्चिममूलस्थानदेवी का अर्चन किया जाता हैं । कुब्जिका उपासना में उद्यत साधक को वाम-कौल मार्ग का आश्रय लेना चाहिए। यह विद्या दक्षिणाचार से फल प्रदान नहीं करती।

आथर्वणी श्रुति में महाकुब्जिका, गुह्यकुब्जिका, रूद्रकुब्जिका, वीरकुब्जिका, श्मशानकुब्जिका, घोरकुब्जिका, संहारकुब्जिका, प्रचण्डोग्रकुब्जिका तथा सिद्धकुब्जिका यह नव भेद कुब्जिका के कहे गये हैं।
श्रीवडवानलतन्त्र के अनुसार अघोरकुब्जिका, वज्रकुब्जिका, समयकुब्जिका, घोरकुब्जिका, वीरकुब्जिका, जयकुब्जिका, भोगकुब्जिका, सिद्धकुब्जिका, मोक्षकुब्जिका, राजकुब्जिका, क्रमकुब्जिका, दिव्यकुब्जिका, बर्बरकुब्जिका, बालकुब्जिका, गुह्यकुब्जिका, कुलालिका, मातंगी, राजमातंगी, अमृतलक्ष्मी, चण्डा, चण्डिका, प्रचण्डा, महोग्रतारा, सिद्धचामुण्डा, त्रिशक्तिचामुण्डा, त्रिखण्डा, चण्डकपालिका, कामेशी, नवात्मेशी, स्वच्छन्दभैरवी, राजलक्ष्मी तथा जयवागेश्वरी पश्चिमाम्नाय की बत्तीस नायिकाएं है।

चिंचिणीमतसारसमुच्चय, कुब्जिकामत, शतसाहस्रसंहिता, गोरक्षसंहिता, अम्बासंहिता, श्रीमतसंहिता, कुब्जिकोपनिषद,  नित्याह्निकतिलकम्, मन्थानभैरवतंत्र, कुलसार इत्यादि कुब्जिका उपासना संबंधित ग्रन्थ हैं।
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अथर्वणवेदीय कुब्जिकोपनिषत् के परिप्रेक्ष्य में श्रीश्रीकुब्जिका

प्राचीन काल से परमार्थ प्राप्ति हेतु भारतभूमि पर निगम एवं आगम के अनुसार साधकगण साधना करते आएं हैं। वैदिकों ने अथर्वणवेद को तंत्रागम का मूल माना है। अथर्वणवेद के सौभाग्यकाण्ड में कई शाक्त उपनिषदें प्राप्त होती है। इन्हीं उपनिषदों में संगणित होती है कुब्जिकोपनिषत् । इस उपनिषद में कुब्जिका तत्त्व की विस्तृत विवेचना की गई है। कुब्जिकोपनिषत् में पश्चिमाम्नाय के अनुसार कुब्जिकोपासना के विधिवाक्य तथा अर्थवाद प्राप्त होते हैं।

कुब्जिकोपनिषत् के श्रुति वाक्यों में श्रीकुब्जिका की ‘दशमहाविद्यात्मक्ता’ का वर्णन प्राप्त होता है। भगवती श्रुति कहती हैं-

कालिका च महाकुब्जा तारापि कुब्जिकास्मृता ।
षोडशी सिद्धिकुब्ज़ा च कुब्जिका भुवनेश्वरी ॥
कुब्जा भैरवी विख्याता कुब्जिका छिन्नमस्तका।
धूमावती स्मृता कुब्जा कुब्जिका बगलामुखी ।
मातङ्गी वीरकुब्जा च कुब्जिका कमलापरा ॥

कुब्जिकोपनिषत् ११.१-२

श्रीकालिका महाकुब्जिका हैं तथा तारा भी कुब्जिका हैं ।
षोडशी (ललितामहात्रिपुरसुन्दरी) सिद्धिकुब्जिका हैं तथा भुवनेश्वरी भी कुब्जिका हैं । कुब्जा ही भैरवी के नाम से विख्यात हैं छिन्नमस्तका भी कुब्जिका हैं । कुब्जिका ही धूमावती हैं तथा बगलामुखी भी कुब्जिका हैं । मातङ्गी वीरकुब्जिका हैं अपरा कमला भी कुब्जिका हैं । इस प्रकार श्रीकुब्जिका दशमहाविद्यामयी हैं । काली,तारा आदि दशमहाविद्याएं तथा श्रीकुब्जिका में अभेद हैं। इनकी साधना अद्वयभाव से करनी चाहिए।

श्रुति परोक्ष रूप से संकेत करती है कि केवल श्रीकुब्जिका के साधन से दशमहाविद्याएं सिद्ध हो जाती हैं। केवल श्रीकुजा की आराधना करने से दशमहाविद्याएं सहज ही साधक को अनुग्रहित करतीं हैं।

सामान्यतः कुजेश्वरी की उपासना पश्चिमाम्नाय के अनुसार की जाती है परन्तु भगवती श्रुति इनकी ‘सर्वाम्नायता’ तथा ‘सर्वाम्नायोत्तीर्णता’ का वर्णन करती हैं।

आथर्वणी श्रुति कहती हैं-

पूर्वाम्नायेश्वरी कुब्जा पश्चिमाम्नायस्वरूपिणी ।
उत्तराम्नायेश्वरी कुब्जा दक्षिणाम्नायस्वरूपिणी ॥ अधाम्नायेश्वरी कुब्जा महोर्ध्वाम्नायस्वरूपिणी । षट्सिंहासनगा कुब्जा रत्नसिंहासनस्थिता ॥

कुब्जिकोपनिषत् ११.३-४

भगवती कुब्जिका पूर्वाम्नाय की ईश्वरी (अधिष्ठात्री ) पूर्णेश्वरी हैं । आप पश्चिमाम्नाय स्वरूपिणी श्रीकुब्जा हैं। आप उत्तराम्नाय की अधिष्ठात्री गुह्यकाली तथा सिद्धलक्ष्मी हैं। श्रीकुब्जा‌ दक्षिणाम्नाय के स्वरूप वाली निशेश्वरी हैं। हैं। आप अधराम्नाय की नायिका हाटकेश्वरी एवं वज्रयोगिनी हैं। अतः सौगतमत में वज्रयान के अनुसार वज्रयोगिनी की साधना करने वाले प्रच्छन्नरूप से आपकी उपासना करते हैं। श्रीकुब्जा‌ महोर्ध्वाम्नाय के स्वरूप वाली हैं। महोर्ध्वाम्नाय पद से ऊर्ध्वाम्नाय तथा अनुत्तराम्नाय उभय का बोध होता है इस प्रकार मां कुब्जिका ऊर्ध्वाम्नाय की अधिष्ठात्री महात्रिपुरसुन्दरी तथा अनुत्तराम्नाय की नायिका परा के स्वरुप वाली हैं। वस्तुत एक ही महाशक्ति षडाम्नाय में व्याप्त है, तत्त्वतः इनमें कोई भेद नहीं है इसलिए इनकी उपासना अद्वयभय से करनी चाहिए। इस प्रकार भगवती श्रुति कुब्जिका की ‘सर्वाम्नायता’ का वर्णन करती हैं।


श्रीकुलालिका की सर्वाम्नायोत्तीर्णता का वर्णन करते हुए भगवती श्रुति कहती है ” आप षडाम्नाय रूप षट्सिंहासन पर अधिष्ठित हैं। आप नवरत्न विद्याओं अथवा पञ्चरत्न विद्याओं के रत्नसिंहासन स्थित हैं। “

उपरोक्त वचनों में श्रुति एक परोक्ष संकेत भी करती है ।
गोपथी श्रुति में कहा भी गया है “परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः ” देवता सदैव परोक्ष प्रिय होते हैं।
केवल श्रीकुब्जिका की उपासना करनें से षडाम्नाय की सभी देवियों तथा दशमहाविद्याएं साधक पर अनुग्रह करती हैं। केवल पश्चिमाम्नाय के साधन से साधक षडाम्नाय के साधन का फल प्राप्त कर लेता है।  तत्कारण नेपाल की नेवार तन्त्रपरम्परा में पश्चिमाम्नाय को ‘ज्येष्ठाम्नाय’ भी कहा जाता है। ज्येष्ठाम्नाय का अर्थ अग्रणी, सर्वोत्कृष्ट, सर्वप्रधान तथा सर्वमुख्य आम्नाय होता है। केवल इसी आम्नाय का आलंबन करने से साधक सर्वाम्नाय की साधना से जनित फल को प्राप्त करने में शक्त होता है।

श्रीकुब्जिका के पदकमलों की वन्दना कर लेख समाप्त करते हैं ।

नवमृदुततमृणाली तन्तुसंतानसूक्ष्मा
क्रमकृतगतिलीलालद्वन्दषट्चक्रभेदा ।
अकुलकुलकुलान्तर्व्यापिनी सैवशक्तिः
जयति जय सुतेजारूपिणी श्रीकुजेशी ॥

जय जय श्रीकुब्जिके ज्येष्ठाम्नायेश्वरी मात ।                   नागर कवि वंदन करे सो साधो सारे काज ॥

दो नवीन ग्रन्थ प्रकाशित

भगवती कालसंकर्षिणी एवं गुरुमण्डल के आपर अनुग्रह से कालीक्रमप्रचारिणी सभा द्वारा अपने द्वितीय तथा तृतीय पुष्प के रूप में ‘अमृतेश्वरार्चनपद्धतिः’ तथा ब्रह्मयामलोक्त श्रीयोगिनीविजयस्तवः का प्रकाशन किया गया है।

१. अमृतेश्वरार्चनपद्धति:

इस ग्रन्थ का प्रकाशन कश्मीर से प्राप्त दुर्लभ शारदा तथा देवनागरी पांडुलिपि के आधार पर किया गया है। इस पुस्तक में अमृतेश्वर भैरव के पूजाविधान का संकलन नेत्र तन्त्र तथा नन्दी शिखावतार के आधार पर किया गया है। अमृतेश्वर के दुर्लभ पूजा विधान के साथ -साथ कश्मीर संप्रदाय के अनुसार भूतशुद्धि, तत्त्वशुद्धि, शैवपात्रस्थापन तथा अमृतेश्वर की सप्तावरणपूजा का संग्रह किया गया है।

२. ब्रह्मयामलोक्त श्रीयोगिनीविजयस्तवः

इस पुस्तक को श्रीयोगिनीविजयस्तवः की एकमात्र पांडुलिपि के आधार पर प्रकाशित किया गया है। यह अत्यन्त दुर्लभ स्तोत्र ब्रह्मयामल के मंत्रोत्तरखण्ड से संकलित किया गया है। ३३३ श्लोकों वाले इस स्तोत्र में कपालीश भैरव तथा विविध योगिनियां के चक्र की स्तुति की गई है । दक्षिणस्रोत के भैरवागमों से संबंधित इस स्तोत्र मे अष्टमातृका, अष्टभैरव, अष्टपीठ आदि का विस्तार से वर्णन मिलता है। विविध पीठ तथा उनकी अधिष्ठात्री योगिनियों की वन्दना की गई है।

अपनी प्रति प्राप्त करने के लिए निम्न विपत्र पर संपर्क कर सकते हैं।
animesh28nagar@gmail.com

कुलसार में भगवान् अमृतेश्वर एवं अमृतलक्ष्मी

प्राचीन काल से कश्मीर की पुण्यभूमि पर क्रम,कुल, त्रिक आदि अद्वयवादी मतों का प्रचलन रहा है। इन मतों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन तथा स्पष्टिकरण विविध आगमों में प्राप्त होता है। कुलमत की दृष्टि का प्रतिपादन करने वाले आगमों को ‘कुलागम’ के अभिधान से जाना जाता है। इन्हीं कुलागमों में एक ’कुलसार’ है। आन्तरिक साक्ष्यों से यह बोध होता है कि इसका संकलन ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्व में किया गया होगा। इस आगम को कश्मीर के कई आचार्यों ने उद्धृत किया है। अतः यह संकेत प्राप्त होता है कि इसका प्रचलन कश्मीर देश की आगम परम्परा में रहा है।

’कुलसार’ में भगवान् अमृतेश्वर एवं अमृतेश्वरी के एक विशिष्ट स्वरूप का विवरण प्राप्त होता है। यह स्वरुप मृत्युंजयभट्टारक (नेत्रतन्त्र) आदि शास्त्रों में प्राप्त नहीं होता है। नेत्रनाथ (अमृतेश्वर) के इसी स्वरुप से आगे चलकर महामृत्युंजय स्वरुप का विकास हुआ।

कुलसार के अनुसार अमृतेश्वर का स्वरुप इस प्रकार है-

भगवान् अमृतेश्वर का यह स्वरुप परमामृत से उद्भूत हुआ है। अमृतनाथ चन्द्रमण्डल के मध्य में स्थित हैं। श्वेत पद्म पर इनका अधिष्ठान है। यह पद्म विविध कलाओं का प्रतीक है। नेत्रदेव करोड़ो चन्द्र के समान ख्यति (आभा) वाले विशुद्ध श्वेतवर्ण के हैं। भगवान् एकमुख तथा त्रिनेत्र वाले हैं। इनके मस्तक पर जटामुकुट शोभायमान है। इनकी चार भुजाएं हैं जिनमें ये क्रमशः त्रिशूल, स्फटिकमाला, श्वेताब्ज तथा अमृतकुम्भ धारण करते हैं। इन्होनें श्वेतवस्त्र धारण किये हुए हैं। नाना प्रकार के मुक्ता जड़ित आभूषण तथा हार आपके श्रीदेह की शोभा में वृद्धि करते हैं। इनके अंक में प्रसन्न मुख वाली अमृतेश्वरी का अधिष्ठाान है। जो अत्यन्त लावण्य से युक्त प्रसन्नमुख वाली है। देवी साधक के आप्यायन (कल्याण एवं अनुग्रह) के लिए अमृत का वर्षण करती हैं।

भगवान् अमृतेश ‘प्रकाश’ तथा अमृतेशी ‘विमर्श’ का मूर्त स्वरुप हैं। भगवान् का पद्म शैवकलाओं का प्रतीक है । शुद्ध श्वेतवर्ण इनके स्वच्छ ‘प्रकाश’ का द्योतक है। श्वेत आभा उपाधि रहित ’चिद्ज्योति’ का प्रतीक है। अपर प्रकार से व्याख्या करने पर श्वेतवर्ण ’प्रतिबिम्बवाद’ के सिद्धान्त का द्योतक है। त्रिनेत्र अड़सठ कलाओं वाले धामत्रय वा मंडलत्रय ( सूर्यमंडल, सोममंडल तथा वह्निमंडल) की ओर संकेत करते हैं। इच्छा, क्रिया तथा ज्ञान इन तीन शक्तियों से युक्त होने के कारण इन्हें त्रिनेत्र कहा गया है। स्वातन्त्र्य शक्ति के योग से ये एक मुख वाले कहे गये हैं। अमृतनाथ शान्त्यातीता कला की ओर इंगित करते हैं। इनकी चार भुजाएं शान्ता, प्रतिष्ठा, निवृत्ति तथा विद्या इन चार कलाओं की द्योतक हैं। कलाचतुष्टय के विस्फार के कारण इन्हें चतुर्भुज कहा गया है।आपके श्रीहस्त में शोभायमान त्रिशूल सत्व, रज तथा तम इन तीन गुणों का तथा आपके गुणातीत होने की ओर संकेत करते हैं। अमृतकुम्भ आपके द्वारा अणुओं पर किए जाने वाले अनुग्रह का संकेेतक है। स्फटिकमाला अपने स्वरुप के प्रत्यभिज्ञान की ओर इंगित करती है। श्वेताब्ज आपके स्वातंत्र्य का प्रतीक है। अपर प्रकार से आपकी चार भुजाएं आगम के क्रिया, चर्या, योग तथा ज्ञान इन चार पादों का प्रतीक है। इस प्रकार हम पाते हैं कि भगवान् अमृतेश्वर का श्रीविग्रह अद्वयवादीशैवमत के सिद्धांतों का मूर्त रूप है। अनुग्राह्य पर अनुग्रह करने के निमित्त परमेश्वर इस स्वरूप में स्फुरित होते हैं।

भगवान अमृतेश्वर का स्वरुप



प्राचीन काल से भारतभूमि पर परमशिव के अमृतेश्वर स्वरुप की उपासना होती आई है। नेपाल तथा कश्मीर इनकी उपासना के प्रमुख केन्द्र हैं। नेपाली परम्परा में इन्हें सदाशिव, मृत्युंजय तथा महाभैरव कहा गया है वहीं कश्मीर परम्परा में इन्हें भैरव के रूप में माना गया है।

नेत्रतन्त्र में अत्यन्त विस्तार से अमृतनाथ के स्वरूप का वर्णन किया गया है। भगवान् अमृतेश्वर भैरव कोटि चन्द्र के समान कान्ति वाले हैं। इनकी आभा स्वच्छ मुक्ताफल (मोती), स्फटिक के पर्वत, कुन्देन्दु, गाय के दूध तथा हिमाच्छादित पर्वत के समान है। अमृतेश्वर श्वेतवर्ण वाले हैं तथा श्वेतवस्त्र धारण करते हैं। भगवान हार, अर्धचन्द्र आदि नाना आभूषणों से शोभित हैं। इनके देह पर श्वेत चन्दन तथा कर्पूर का अंगराग लगा हुआ है। धूसरवर्ण वाले अमृतेश अपने हाथ में धारण किये हुए चन्द्रमा की विस्फुरित अमृत रश्मियों से परिप्लुत हैं। इनका अधिष्ठिान सोममण्डल के मध्य श्वेत पद्मासन पर है जिस पर ये पद्मासन लगाकर बैठे हैं। आप एक मुख तथा त्रिनेत्र वाले हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। उर्ध्ववाम हस्त में क्रमशः अमृत से पूरित कुम्भ तथा दक्षिणहस्त में परिपूर्ण व्योमाकृति चन्द्रमा धारण किया हुआ है। अधः वामहस्त में वर एवं अभय मुद्राएं धारण की हैं।


भगवती अमृतलक्ष्मी (अमृतेश्वरी) अमृतनाथ के अंक में विराजमान हैं। इनकी आभा विशुद्ध स्फटिक, श्वेत कमल, कोटि चन्द्रमा, गाय के दूध तथा मुक्ताफल के समान श्वेत है। भगवती ने श्वेतवर्ण के वस्त्र धारण किये हुएं है। देवी के अंगो पर श्वेतचन्दन तथा श्वेतकर्पूर लगा हुआ है। देवी श्वेतवर्ण के नाना आभूषण धारण करती हैं। चन्द्रकान्त मणियों के आभूषण देवी की शोभा में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हैं। देवी प्रसन्न मुद्रा में विराजमान हैं। आपके मस्तक पर श्वेतवर्ण का मुकुट विराजमान है। इनका एकमुख तथा त्रिनेत्र है। देवी पद्मासन में योगपट्ट धारण कर विराजमान है। देवी की चार भुजाएं है। देवी ने उर्ध्व वामहस्त में शंख तथा उर्ध्व दक्षहस्त में पद्म धारण किया हुआ है। निचली वाम एवं दक्ष भुजाओं में देवी वर तथा अभय मुद्राएं धारण करती हैं।

अमृतेश्वर के स्वरुप का रहस्य एवं प्रतीकवाद

महामाहेश्वराचार्य क्षेमराज के अनुसार भगवान् की श्वेत आभा उपाधि रहित ’चिद्ज्योति’ का प्रतीक है। श्वेतवर्ण स्वच्छ स्वच्छन्द की महिमा से अपनी ही भित्ति पर समस्त विश्व के आभासन का प्रतीक है। सरलशब्दों में कहें तो श्वेतवर्ण ’प्रतिबिम्बवाद’ का द्योतक है। स्वातन्त्र्य शक्ति के योग से ये एक मुख वाले कहे गये हैं। इच्छा, क्रिया तथा ज्ञान इन तीन शक्तियों से युक्त होने के कारण इन्हें त्रिनेत्र कहा गया है। श्वेतपद्म शक्तिकमल का प्रतिनिधित्व करता है। उपरोक्त अधिष्ठान पर पद्मासन में विराजमान अमृतनाथ, शान्त्यातीता कला के साथ अद्वय की ओर इंगित करते हैं। इनकी चार भुजाएं शान्ता, प्रतिष्ठा, निवृत्ति तथा विद्या इन चार कलाओं की द्योतक हैं। कलाचतुष्टय के विस्फार के कारण इनका स्वरूप चतुर्भुज वर्णित किया गया है। वरमुद्रा ’सिद्धिदान’ तथा अभयमुद्रा ’सर्वभयोन्मूलन’ को अभिव्यक्त करती हैं। अमृतकुम्भ ज्ञान तथा पूर्णचन्द्र क्रिया का संकेेतक है। इस प्रकार हम पाते हैं कि भगवान् अमृतेश्वर का श्रीविग्रह अद्वयवादी शैवमत के प्रतीकवाद का मूर्त स्वरूप है। अनुग्राह्य पर अनुग्रह करने के निमित्त परमेश्वर इस स्वरूप में स्फुरित होते हैं।

श्रीअमृतेश्वरार्पणमस्तु ॥

कश्मीर की देवी-शारदा

त्र्यक्षाव्याघ्रनिविष्टतामुपगतारक्तांशुका शारदा
सूर्याचन्द्रमसौ शरंधनुरथो प्रासंवरंचाभयम् ।
देवी साच्छुरिकां सदैव दधती पूर्णेन्दुरम्यानना मालाकुण्डलभूषिणावतु परं सानः सदा शारदा ॥

महर्षि कश्यप की मानसपुत्री ‘कश्मीर’ प्राचीन काल से शास्त्रों के अध्ययन का केन्द्र रहीं हैं। आगामों की भूमि कश्मीर में अत्यन्त प्राचीन काल से शारदा देवी की उपासना होती आई है। कश्मीर के ‘अद्वयवादी’ दर्शन हों या ‘द्वैतवादी’ सभी संप्रदायों में ‘वागीश्वरी’ का यजन होता आया है। कश्मीर के आचार्य शास्त्रव्याख्या प्रारम्भ करने से पूर्व गुरु, गणपति, वागीश्वरी तथा शास्त्र के अधिष्ठाता कल्पदेवता का याग किया करते थे।

‘………….भुवि उल्लिख्य संकल्प्य वा पद्माधारं चतुरश्रं
पद्मत्रयं पद्ममध्ये वागीशीं वामदक्षिणयोः गणपतिगुरू च पूजयेत् आधारपद्मे व्याख्येयकल्पदेवताम् ।… ‘

महामाहेश्वराचार्य अभिनवगुप्तकृत तन्त्रसार २०वां आह्निक

द्वैतवादी दर्शन में जहां मां शारदा का यजन ‘वागीश्वरी’ रूप में किया जाता था जो वैदिकों की सरस्वती से भिन्न स्वरूप था । कई लोग कश्मीर की शारदा और वैदिक देवी सरस्वती को अभिन्न मानते है जो समुचित नहीं है। देवी के दोनों स्वरूपों में भेद है। मां शारदा का ध्यान, मंत्र, आवरण आदि सरस्वती से भिन्न है। कश्मीर देश में शारदाकल्प के अनुसार इनकी पूजा हुआ करती थीं। कुछ विद्वान् इन्हें कश्मीर की लोकदेवी अथवा क्षेत्रीय देवी मानते है।

अद्वयवादी दर्शन में मां शारदा का यजन ‘वाग्वादिनीकाली’ अथवा ‘वागीश्वरीकाली’ के रुप में किया जाता था। इनके भैरव ‘विजयेश्वर’ है। कश्मीर की कई प्राचीन तथा अर्वाचीन पद्धतियां इस तथ्य की साक्षी हैं , इन ग्रन्थों में वाग्वादिनीकाली के रुप में ही शारदा का ध्यान प्राप्त होता है।

पद्माधिरूढां सुसितां त्रिनेत्रां शूलाक्षमाले कमलं च खड्गाम् ।
करैश्चतुर्भिः पतितो वहन्तीं सरस्वतीं सिद्धिकरीं नमामि ॥

वाग्वादिनीकालीकल्पे
समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाली, संविदरस से परिपूर्ण, देवी शारदा पद्म पर आसीन हैं । इनकी कांति श्वेतवर्ण की है, देवी एकवक्त्रा तथा त्रिनेत्रा हैं जो अपनी चारों भुजाओं में त्रिशूल, अक्षमाला, पद्म तथा खड्ग धारण करती हैं। 

देवी का त्रिनेत्रा होना, शूल तथा खड्ग धारण करना इनके कालीत्व की ओर संकेत करता है। प्राचीन पद्धतियों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि इनकी उपासना जयद्रथयामल के चतुर्थषटक के अंतर्गत आने वाले ‘वाग्वादिनीकालीकल्प‘ तथा ‘पुस्तकवागीश्वरीकल्प‘ के आधार पर हुआ करती थीं। देवी का यह स्वरूप सामान्य सरस्वती अथवा दक्षिणभारत के श्रृंगेरी में पूजित शारदा स्वरूप से पूर्णतया भिन्न है।

मां शारदा के स्वतन्त्र उपासना सम्प्रदाय का केन्द्र था ‘शारदापीठ’। शारदापीठ का उपपीठ कुलग्राम ( वर्तमान कुलगाम) में था। इनके भैरव विजयेश्वर का भी एक मन्दिर है जो वर्तमान कश्मीर के बिजबिहारा में स्थित है।

बिजबिहारा में स्थित विजयेश्वर भैरव मन्दिर


६टीं से १२वीं तक शारदापीठ शास्त्रों के अध्ययन तथा अध्यापन का मुख्य केन्द्र रहा। यहां देवी का त्रिकाल यजन ‘कौलाचार’ से हुआ करता था।प्रातः देवी की पूजा ‘वाग्वादिनीकाली’ के रुप में होती थी वहीं सायंकाल में ‘पुस्तकवागीश्वरी’ रुप में इनका यजन होता था। महानिशा के समय ‘कुलवागीश्वरी’ रुप में इनका अर्चन होता था।

शारदापीठ के उपपीठ कुलग्राम में केवल कुलवागीश्वरी का यजन होता था। यह पीठ कुलगाम अभी भी मंदिर के रूप में विद्यमान हैं। यहां आधिकारी साधकों को कुलागाम तथा कुलप्रक्रिया का अध्ययन करवाया जाता था।

कुलग्राम में स्थित भगवती कुलवागीश्वरी का अमूर्त शिलाविग्रह

कालांतर में जड़ब्रह्मवादियों द्वारा हठात् कौलाचार के अनुसार मां शारदा की पूजा को रुकवा दिया गया और पशुभाव पर आधारित पाश्वकल्पानुसारीपूजा को प्रारम्भ किया । आकरण कौलाचार की विधि को भग्न करनें से देवी शारदा कुपित हो गईं। देवीकोप के कारण शनै शनैः शारदापीठ का तिरोधान हो गया और कश्मीर पर यवन मलेच्छों का आधिकार हो गया। शारदापीठ का भग्न मन्दिर आज भी इसकी साक्षी देता है।

भग्नावस्था में शारदापीठ

जड़ब्रह्मवादियों की उद्दण्डता के कारण कुलमार्ग के साधकों द्वारा देवीचैतन्य को कुलग्राम के कुलवागीश्वरी पीठ में समाहित कर दिया गया। एक लम्बे समय तक यहां कुलाचार द्वारा देवी कुलवागीश्वरी का यजन किया जाता रहा परन्तु काल के प्रभाव से यहां भी परम्परा का उच्छेद हो गया साक्षीरूप में पीछे छुट गया देवी कुलवागीश्वरी का मन्दिर।

श्रीविजयेश्वर भैरव युत भगवती वाग्वादिनीकाली
को नमस्कार कर लेख उन्हीं के चरणों में अर्पित करते हैं।

विजयेश्वरसंयुक्तां काश्मीरे वाग्विधायिनीम् ।
विद्यापीठेश्वरीं वन्दे शारदां बुद्धिवर्धिनीम् ॥

An Introduction to Kalikula

इस वीडियों में विविध शास्त्रों के आधार पर ‘कालीकुल’ का वर्णन किया गया है। मां काली के उपासना मत को ‘कालीकुल’ कहा जाता है। यहां कालीकुल में पूजित देवी काली के कालसंकर्षिणी, भद्रकाली, दक्षिण काली, वामाकाली आदि विविध स्वरुपों तथा मंत्रक्रम की चर्चा की गई है। इस वीडियों में शास्त्रों के आधार पर ‘काली’ पद की व्याख्या की गई है साथ ही कालीकुल के काश्मीर सम्प्रदाय, केरलीय सम्प्रदाय तथा गौडीय सम्प्रदाय का विस्तार से वर्णन किया गया है।

This video is aimed at introducing Kalikula to the general public and sadhakas. The term Kalikula is generally used to describe different cults of goddess Kali that are prevalent in Kashmir, Kerala, and Gauda. The creator endeavors to explicate the cults of goddess Kali using various ancient scriptures.

गुह्यकाली रहस्यम् भाग १, Guhyakali Rahasyam Part 1

The topic of discussion in this video is the goddess Guhyakali. Her cult, mantra, and various secret forms are described in a profound manner. This part also touches on the simplified mantra upasana and complex mantra Krama of goddess Guhyakali.

इस वीडियो में आगमशास्त्रों के अनुसार गुह्यकाली उपासना क्रम का सविस्तार से वर्णन किया गया है।
गुह्यकाली के विविध उपासना संप्रदाय , साधना पीठ, विविध स्वरूप तथा मंत्रों का वर्णन करने का प्रयास किया गया हैं। पाठकों के लिए गुह्यकाली के लघुमंत्रक्रम तथा विस्तृत मंत्रक्रम की विवेचना इस भाग में की गई है।

Gopal Mantra Rahasyam

In this video, Lord Krishna (Gopal) is discussed in light of various ancient scriptures. Krishna’s rare forms such as Gopal Kalika, Gopal Sundari, and Mahagopala are discussed.


इस वीडियो में प्राचीन भारतीय शास्त्रों के आधार पर श्रीकृष्ण ( गोपाल) के विषय में जानकारी दी गई है। इस वीडियो में श्री कृष्ण के दुर्लभ गोपालसुन्दरी, गोपाल कालिका, राजगोपाल, महाराजगोपाल आदि दुर्लभ स्वरुपों के विषय में चर्चा की गई है।

Talk on Chaura Ganpati

In this video, Chaura Ganpati (Chor Ganpati) is extensively discussed in light of various Agmic-Tantric texts.


इस विडियो में विविध आगमिक ग्रंथों के आधार पर चौर गणपति ( चोर गणेश) के विषय में चर्चा की गई है।